Jemimah Rodrigues विवाद: प्राइमिंग और पहचान पर मनोवैज्ञानिक नजरिया

By Ankit Jaiswal | Nov 04, 2025

हाल ही में भारत में मनोविज्ञान और सामाजिक व्यवहार पर हो रही चर्चाओं के बीच एक दिलचस्प उदाहरण सामने आया है, जो यह दिखाता है कि किस तरह हम अनजाने में ही अपने विचारों और प्रतिक्रियाओं को बाहरी संकेतों से प्रभावित होने देते हैं। बताया जाता है कि 2017 में 'द न्यू यॉर्कर' में छपी एक रिपोर्ट में बताया गया था कि कैसे एक सुपरमार्केट ने "12 पर पर्सन" का बोर्ड लगाकर दोगुनी सूप की बिक्री की थी। यह प्रभाव मनोविज्ञान में ‘एंकरिंग’ और ‘प्राइमिंग’ के नाम से जाना जाता है।


गौरतलब है कि ‘प्राइमिंग’ का असर तब भी देखा जा सकता है, जब कोई व्यक्ति यह महसूस तक न करे कि उसके व्यवहार में बदलाव आ रहा है। अब बात भारत की करें तो कुछ समय पहले दिल्ली में एक घटना ने इस मनोवैज्ञानिक अवधारणा को और रोचक बना दिया। जुलाई में, दिल्ली से कोच्चि जाने वाली फ्लाइट के दो पत्रकारों के टिकट में नाम की हल्की गलती हो गई।

 

लेकिन सिक्योरिटी पर नियुक्त CISF गार्ड्स ने एक पत्रकार को अंदर जाने दिया, जबकि दूसरे को रोक दिया गया। दोनों के नाम में केवल एक अक्षर का अंतर था। एक का नाम सिद्धार्थ वरदराजन था, तो दूसरे का ज़िया उस सलाम। एक हिंदू थे, दूसरे मुस्लिम। उसके बाद वरदराजन ने लोगों से वही सवाल पूछा जो किसी मनोवैज्ञानिक प्रयोग में पूछा जाता “सोचिए किसे अंदर जाने दिया गया होगा?”


इसी तरह, भारतीय महिला क्रिकेटर जेमिमा रोड्रिग्स के हालिया प्रदर्शन और उनसे जुड़े विवाद ने भी इस बहस को फिर से जिंदा कर दिया है। बता दें कि रोड्रिग्स ने ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ वर्ल्ड कप सेमीफाइनल में 127 रनों की नाबाद पारी खेली थी, जिसके बाद वह प्लेयर ऑफ द मैच बनीं। मैच के बाद उन्होंने मैदान पर खड़े होकर भावुक होते हुए अपनी संघर्ष भरी यात्रा का जिक्र किया और भगवान पर अपने विश्वास के बारे में खुलकर बात की।


लेकिन इतना सराहनीय प्रदर्शन करने के बाद भी, रोड्रिग्स को सोशल मीडिया पर तब निशाना बनाया गया जब उन्होंने जीसस को धन्यवाद दिया। मौजूद रिपोर्ट्स के अनुसार, 2024 में उनके पिता पर कंवर्ज़न कराए जाने के आरोप लगे थे और इसी वजह से उनका क्लब मेंबरशिप तक रद्द किया गया।

 

इससे सोशल मीडिया पर धार्मिक नफरत और विवाद फिर से उभर आए हैं। तो एक तरफ जहां कुछ लोग रोड्रिग्स की तारीफ कर रहे थे, वहीं कुछ ने उन्हें “धर्म की राजनीति” से जोड़ने की कोशिश की। कई लोगों ने कहा कि खेल को राजनीति से दूर रखना चाहिए, लेकिन यह सवाल अब भी बना हुआ है कि आखिर क्या वजह है जो हमें इस तरह की सोच की ओर ले जाती हैं।


स्पष्ट है कि हमारे समाज, मीडिया और मन में चल रहे विचार चाहे वे किसी पोस्ट से जुड़े हों या खेल प्रदर्शन से अनजाने में ही हमारे अनुभवों और धारणाओं द्वारा ‘प्राइम’ किए जा रहे हैं। यही वजह है कि यह समझना बेहद जरूरी हो गया है कि हम क्या सोचते हैं और क्यों सोचते हैं, क्योंकि इसी से तय होता है कि हम किस दिशा में बढ़ रहे हैं।

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