काव्य रूप में पढ़ें श्रीरामचरितमानस: भाग-14
श्रीराम चरित मानस में उल्लेखित अयोध्या कांड से संबंधित कथाओं का बड़ा ही सुंदर वर्णन लेखक ने अपने छंदों के माध्यम से किया है। इस श्रृंखला में आपको हर सप्ताह भक्ति रस से सराबोर छंद पढ़ने को मिलेंगे। उम्मीद है यह काव्यात्मक अंदाज पाठकों को पसंद आएगा।
रामचंद्र के ब्याह से, फैला नव आलोक
धन्य अवधवासी हुए, मिटे रोग दुख-शोक।
मिटे रोग दुख-शोक, सभी की भारी इच्छा
राम बनें युवराज शीघ्र तो होगा अच्छा।
कह ‘प्रशांत’ सब मंत्रीगण वरिष्ठ दरबारी
दशरथ को देते संकेत, करें तैयारी।।1।।
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दर्पण ले थे कर रहे, राजमुकुट को ठीक
श्वेत केश दीखे उन्हें, कानों के नजदीक।
कानों के नजदीक, साफ संदेशा पाया
जीवन का दिन बीता, वक्त शाम का आया।
कह ‘प्रशांत’ दशरथ राजा मत समय गंवाओ
हैं समर्थ श्रीराम, उन्हें युवराज बनाओ।।2।।
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गुरु वशिष्ठ के पास में, पहुंचे अवध नरेश
अपने मन की बात कह, पूछा फिर आदेश।
पूछा फिर आदेश, उन्हें युवराज बनाऊं
और शांति से अपना बाकी समय बिताऊं।
कह ‘प्रशांत’ गुरुवर ने श्रेष्ठ विचार बताया
करो शीघ्रता हे राजन, मंतव्य सुनाया।।3।।
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आज्ञा पा सब लग गये, अपने-अपने काम
ग्राम-नगर सज्जित हुए, पुरी अयोध्या धाम।
पुरी अयोध्या धाम, विविध सामग्री लाये
मंगल जल के कलश, सभी तीर्थों से आये।
कह ‘प्रशांत’ जिसने भी यह संदेशा पाया
पुलकित हुआ शरीर, मन मयूर हर्षाया।।4।।
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गुरुवर का आदेश पा, राम किये उपवास
जिम्मेदारी आ रही, बहुत बड़ी थी पास।
बहुत बड़ी थी पास, हृदय की व्यथा बताई
जन्मे और विवाहे एक साथ सब भाई।
कह ‘प्रशांत’ युवराज अकेला राम बनेगा
क्या यह बाकी तीनों से अन्याय न होगा।।5।।
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भरत गये ननिहाल हैं, साथ शत्रुघन लाल
गुरुवर मुझको हो रहा, इससे बड़ा मलाल।
इससे बड़ा मलाल, संदेशा भेज बुलाएं
और दिवस दो-चार यहां हम भी रुक जाएं।
कह ‘प्रशांत’ था राघव को असमंजस भारी
और उधर महलों में कुछ कुचक्र था जारी।।6।।
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दासी थी इक मंथरा, कुटिल बुद्धि की खान
थी कैकेयी के लिए, वही आंख अरु कान।
वही आंख अरु कान, घूमकर जो भी जाना
खूब लगाकर नमक-मिर्च जा उसे बखाना।
कह ‘प्रशांत’ कैकेयी ने समझाया उसको
जो कुछ भी हो रहा, खुशी है भारी मुझको।।7।।
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जैसा मेरा भरत है, वैसे मेरे राम
दोनों एक समान हैं, अलग भले हैं नाम।
अलग भले हैं नाम, मगर मंथरा न मानी
तरह-तरह की झूठी-सच्ची कही कहानी।
कह ‘प्रशांत’ कौशल्या रानी राज करेगी
और तुम्हें नौकर जैसा अब वो समझेगी।।8।।
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कूबड़ वाली मंथरा, के षड्यंत्र अपार
बहकावे में आ गयी, रानी आखिरकार।
रानी आखिरकार, करूं क्या मुझे बताओ
ये आयोजन रुके, जुगत इस तरह लड़ाओ।
कह ‘प्रशांत’ राजा से अब वरदान मांग लो
रखे सुरक्षित हैं जो, एक नहीं पूरे दो।।9।।
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कैकेयी की बुद्धि में, बैठ गयी सब बात
कोपभवन में जा घुसी, पहन मलीने गात।
पहन मलीने गात, वहां उसको पहुंचाकर
नाची-गाई कुबड़ी विष की बेल लगाकर।
कह ‘प्रशांत’ राजा को पता लगा यह सारा
गये दौड़कर और प्रेम से उसे पुकारा।।10।।
- विजय कुमार
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