काव्य रूप में पढ़ें श्रीरामचरितमानस: भाग-54
श्रीराम चरित मानस में उल्लेखित लंकाकांड से संबंधित कथाओं का बड़ा ही सुंदर वर्णन लेखक ने अपने छंदों के माध्यम से किया है। इस श्रृंखला में आपको हर सप्ताह भक्ति रस से सराबोर छंद पढ़ने को मिलेंगे। उम्मीद है यह काव्यात्मक अंदाज पाठकों को पसंद आएगा।
ब्रह्मशक्ति ने कर दिया, सीने पर आघात
व्याकुल हो लक्ष्मण गिरे, हुई भयानक बात।
हुई भयानक बात, दौड़कर रावण आया
लेकिन लखनलाल को किंचित उठा न पाया।
कह ‘प्रशांत’ बजरंग बली ने कांधे लीन्हा
राघव के हाथों में सौंप उन्हें फिर दीन्हा।।91।।
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लक्ष्मण जाग्रत हो गये, सुन राघव आवाज
पहुंच गये रणक्षेत्र में, करने कौतुक आज।
करने कौतुक आज, सारथि उसका मारा
रथ टूटा, लंकेश हो गया बिना सहारा।
कह ‘प्रशांत’ कुछ क्षण को उसे मूरछा आयी
लौट गया महलों में रक्षराज दुखदाई।।92।।
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लंका में करने लगा, वह इक यज्ञ विशेष
वानर दल ने कर दिया, पर उसको निःशेष।
पर उसको निःशेष, क्रोध रावण को आया
सेना बड़ी जुटाकर युद्धभूमि को धाया।
कह ‘प्रशांत’ देवों ने स्तुति राम की गाई
मारो इसको, बहुत दुखी है सीता माई।।93।।
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दोनों दल में छिड़ गया, बड़ा विकट संग्राम
एक तरफ रावण बली, और इधर श्रीराम।
और इधर श्रीराम, अंग कट-कट गिरते थे
उनके ऊपर चढ़ योद्धा आगे बढ़ते थे।
कह ‘प्रशांत’ पशु-पक्षी जी भर मौज मनाते
मृतक जनों का मांस पेट भरकर वे खाते।।94।।
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सागर का जल हो गया, दूर-दूर तक लाल
जल के जीव विचर रहे, उसमें काल कराल।
उसमें काल कराल, खून वे पीते जाते
मगर युद्ध में कमी नहीं वे बिल्कुल पाते।
कह ‘प्रशांत’ फिर भूत पिशाच-निशाचर आये
रावण ने माया के ऐसे जाल बिछाए।।95।।
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सभी देव चिंतित हुए, बने किस तरह काम
रावण तो रथ पर खड़ा, लेकिन पैदल राम।
लेकिन पैदल राम, इन्द्र ने रथ मंगवाया
और राम के पास सुसज्जित कर भिजवाया।
कह ‘प्रशांत’ थे घोड़े चार तीव्र गतिगामी
कुशल सारथी मातलि रामचरण अनुगामी।।96।।
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रघुनंदन ने प्रेम से, रथ कीन्हा स्वीकार
रावण दल पर अब पड़ी, मानो दोहरी मार।
मानो दोहरी मार, पुनः माया फैलाई
चहुंदिश राम-लखन ही पड़ने लगे दिखाई।
कह ‘प्रशांत’ राघव ने हंसकर बाण चलाया
पल भर में ही काटी रावण की वह माया।।97।।
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सीधे-सीधे छिड़ गया, अब दोनों में युद्ध
राघव थे हंसते मगर, रावण रहता क्रुद्ध।
रावण रहता क्रुद्ध, राम थे बाण चलाते
एक-एक कर उसके सिर थे कटते जाते
कह ‘प्रशांत’ पर रक्षराज की मौत न आयी
सब थे परेशान, ये क्या चक्कर है भाई।।98।।
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चिंतित देखा राम को, गये विभीषण पास
रक्षराज की नाभि में, है अमृत का वास।
है अमृत का वास, वहीं पर बाण चलाओ
और धरा से इस पापी का भार घटाओ।
कह ‘प्रशांत’ राघव ने बाण इस तरह मारा
अमृत सूखा नाभि कुंड का पल में सारा।।99।।
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बीस हाथ धरती गिरे, कटे सभी फिर मुंड
रावण का बाकी रहा, गिरता-पड़ता रुंड।
गिरता-पड़ता रुंड, बाण राघव ने मारा
दो भागों में टूट गया उसका धड़ सारा।
कह ‘प्रशांत’ गिर पड़ा धरा पर पर्वत जैसा
चमत्कार देवों ने देखा कभी न ऐसा।।100।।
- विजय कुमार
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