DDLJ को हुए 25 साल: अब भी उतनी ही रूमानी, जादू बरकरार
फिल्म विदेशों में रहने वाले भारतीयों के अंदर बसी भारतीयता को भी छूती है। मुंबई के मराठा मंदिर में फिल्म 25 साल से लगी हुई है और इस साल मार्च में कोविड-19 लॉकडाउन लगने से पहले तक दर्शक इसे देखने आते रहे।
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वरिष्ठ फिल्म समीक्षक सैबाल चटर्जी के मुताबिक, इस फिल्म ने एनआरआई लोगों के लिए डिजाइनर फिल्म के युग की शुरुआत की थी। मशहूर फिल्मकार यश चोपड़ा के बेटे आदित्य चोपड़ा के निर्देशन में बनी पहली फिल्म में अमरीश पुरी, फरीदा जलाल और अनुपम खेर के भी प्रमुख किरदार थे। फिल्म उस समय रिलीज हुई जब भारत ने उदारीकरण को अपनाया था। चटर्जी ने कहा कि फिल्म ताजातरीन दिखी लेकिन इसमें नयी चमक-दमक के साथ जीने के पुराने तौर-तरीकों को शामिल किया गया। उन्होंने ‘पीटीआई-भाषा’ से कहा, ‘‘कहानी एक एनआरआई दंपती की है जो अपनी शर्तों पर जीते हैं लेकिन दिल से पूरी तरह भारतीय हैं।’’ चटर्जी के अनुसार ‘डीडीएलजे’ हिंदी सिनेमा पर अपना असर दिखाने के मामले में 1975 में आई ‘शोले’ के बाद दूसरी फिल्म है। पिछले दो दशक में दर्शकों की पूरी पीढ़ी उम्र में आगे निकल चुकी है लेकिन कुछ के लिए फिल्म की प्रासंगिकता पहली बार उनके फिल्म देखने के अनुभव से ही जुड़ी है।
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मथुरा निवासी पूर्व स्कूल प्राचार्य 84 वर्षीय प्रेमा महर्षि जब फिल्म को याद करती हैं तो उन्हें इसका सबसे लोकप्रिय संवाद ‘जा सिमरन जा, जी ले अपनी जिंदगी’ सबसे पहले याद आता है। वह हल्के-फुल्के अंदाज में कहती हैं, ‘‘एक बात मुझे तब भी सोचने पर मजबूर कर देती थी कि शाहरुख ने ट्रेन रोकने के लिए चेन क्यों नहीं खींची। अगर ट्रेन काजोल को लिये बगैर स्टेशन से चली जाती तो क्या होता? काजोल को कितना भागना पड़ता।’’ सरकारी अधिकारी रोहित सागर के अनुसार यह फिल्म वास्तविक जीवन और काल्पनिकता का अनोखा मिश्रण है। कोलकाता के रहने वाले सागर कहते हैं कि वह ‘डीडीएलजे’ को 1995 में 20 साल पुराना और आज 45 साल पुराना मानते हैं। उन्होंने कहा, ‘‘नयी पीढ़ी इस फिल्म को थोड़ी पुरानी सोच वाली मान सकती है। हालांकि कुछ बातें आज के समय में प्रासंगिक हैं।
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