वित्त मंत्रीजी यह देखिये किसानों का हाल, जरा बजट में ख्याल रखियेगा

Finance Minister, see this, the situation of the farmers
दीपक गिरकर । Jan 28 2018 10:09AM

भारत कृषि प्रधान देश है। कृषि भारतीय अर्थव्यवस्था व भारतीय जीवन की मुख्य धुरी है। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संघटन की हालिया रिपोर्ट बताती है कि एक किसान परिवार खेती से औसतन 3078 रुपये ही कमा पाता है।

भारत कृषि प्रधान देश है। कृषि भारतीय अर्थव्यवस्था व भारतीय जीवन की मुख्य धुरी है। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संघटन की हालिया रिपोर्ट बताती है कि एक किसान परिवार खेती से औसतन 3078 रुपये ही कमा पाता है जबकि एक अन्य सर्वे का कहना है कि करीब 58 फीसदी किसान भूखे पेट सोने को मजबूर हैं। सीएसडीएस के आँकड़े भी बताते है कि 62 फीसदी किसान खेती छोड़ना चाहते हैं। किसानों के आर्थिक सुधार के लिए कृषि ऋण की माफी से सभी सीमांत और छोटे किसानों की राहत नहीं मिलेगी क्योंकि सभी सीमांत किसान और छोटे किसान बैंक से कर्ज़ प्राप्त नहीं कर पाते हैं। हमारे देश में 2.21 करोड़ सीमांत और छोटे किसान सेठ-साहूकारों से कर्ज़ लेते हैं। खेती का खर्च लगातार बढ़ रहा है और फसलों के बम्पर उत्पादन के कारण किसानों को अपने उत्पाद के वाजिब दाम नहीं मिल रहे हैं। जब उद्योग जगत कोयला, प्राकृतिक गैस और ऑटोमोबाइल जैसे कई महत्वपूर्ण क्षेत्रों में लागत तय करने वाली तमाम प्रक्रिया अपना रहा है, और अपने उत्पादों की मनमानी कीमतें तय कर रहा है, तब भला किसानों को अधिक मूल्य देने से आखिर कितना नुकसान होगा? बढ़ती कृषि लागत एवं कृषि उपज के घटते दामों के बीच भारतीय किसान पिस रहा है।

बढ़ता कर्ज ही मुख्य समस्या नहीं

हालांकि कृषि उत्पादों पर कम मूल्य और कर्ज का बढ़ता बोझ ही उनकी मुख्य समस्याएं नहीं हैं। दरअसल कृषि के ढांचे में ही कुछ ऐसी समस्याएं हैं, जिनका कर्ज माफी जैसे अस्थाई उपायों से समाधान नहीं हो सकता। कृषि क्षेत्र की वर्तमान हालत पर नाबार्ड के पूर्व चेयरमैन प्रकाश बक्शी कहते हैं, ऐसा लगता है कि यह अव्यवस्था हाल ही में हुई गड़बड़ियों की वजह से पैदा हुई है, लेकिन इस समस्या की जड़ें काफी गहरी हैं। पीढ़ी दर पीढ़ी खेती के विभाजित होने से खेतों का आकार घटता जा रहा है। खेतों का आकार छोटा होने से कृषि उत्पादन और फसलों से होने वाली बचत में कमी आ रही है।

छोटे खेत वाले किसानों के पास खेती के पर्याप्त साधन, सिंचाई की व्यवस्था आदि का अभाव होता है और इस सब के लिए उन्हें बड़े किसानों पर निर्भर रहना पड़ता है। वहीं, बड़े किसानों की संख्या भी समय के साथ घट रही है। ऐसे में छोटे किसानों के लिए खेती के साधन जुटाना बेहद मुश्किल होता जा रहा है। इसके अलावा क्रय-विक्रय में छोटे किसानों की मोलभाव क्षमता भी कम होती है। ऐसे में जैसे-जैसे खेतों का आकार छोटा होता जा रहा है, किसानों को होने वाला फायदा भी कम होता जा रहा है। हर 5 साल में कृषि क्षेत्र में 1 करोड़ छोटे किसान जुड़ रहे हैं। अगर यह दर बरकरार रही तो आने वाले समय में कृषि क्षेत्र के हालात बेकाबू हो सकते हैं।

लघु किसानों की भी सोचें

लघु किसानों की सबसे बड़ी परेशानी है पूँजी या लागत का न होना। अपनी घरेलु जरूरतों से लेकर कृषि की लागत तक उन्हें पैसा चाहिए एवं इसके लिए वो साहूकार एवं किसान क्रेडिट कार्ड पर निर्भर रहते हैं। किसान क्रेडिट कार्ड से चूँकि सरलता से पैसा मिल जाता है, अतः इसका उपयोग वो कृषि की जगह अपने सामाजिक एवं घरेलु जरूरतों की पूर्ति में लगा देता है एवं पैसा खर्च होने के बाद किसानी की लागत के लिए साहूकारों के चुंगल में फंस जाता है।

आज भी आज़ादी के 70 साल बाद भी अधिकांश भारतीय कृषि इन्द्र देव के सहारे ही चलती है। इंद्र देवता के रूठ जाने पर सूखा, कीमतों में वृद्धि, कर्ज का अप्रत्याशित बोझ, बैंकों के चक्कर, बिचौलियों एवं साहूकारों के घेरे में फँस कर छोटा किसान या तो जमीन बेचने पर मजबूर हैं या आत्महत्या की ओर अग्रसर है।

कृषि निर्यात में कमी

पिछले तीन वर्षों में कृषि निर्यात में लगातार कमी हुई है। कृषि निर्यात जोकि वर्ष 2013-14 में 42.9 अरब डालर का था वह वर्ष 2016-17 में घटकर 33.4 अरब डालर का रह गया। कृषि निर्यात में गिरावट सरकार की विदेश व्यापार संबंधी नीतियों में अस्थिरता की वजह से आई हैं। घरेलु कीमतों में और निर्यात में कमी से देश के असली किसान जोकि सिर्फ़ कृषि पर ही निर्भर हैं काफ़ी निराश हो चुके हैं। सरकार कृषि निर्यात पर अकसर प्रतिबंध क्यों लगाती रहती है? निर्यात शुल्क के कारण भी कृषि निर्यात का बाजार तैयार नहीं हो पा रहा है। सरकार आयात शुल्क बढ़ाने की जगह जानबूझकर कम करती जा रही है।

हमारे देश में पिछले 21 वर्षों में लगभग 3 लाख 30 हज़ार किसानों ने कर्ज़ की वसूली के दबाव और आर्थिक तंगी के कारण आत्महत्या की है। अभी तक यह समझ में नहीं आया है कि फसलों के बंपर उत्पादन के बावजूद किसानों की फसलों की लागत भी घरेलु बाजार में नहीं निकल पा रही है और किसान फसलों को मंडी तक ले जाने की अपेक्षा सड़कों पर फेंक रहे हैं। सरकार समर्थन मूल्य के नाम पर किसानों को सिर्फ़ और सिर्फ़ बेवकूफ़ बनाती है।

किसान आत्महत्या

आधिकारिक आकलनों में प्रति 30 मिनट में एक किसान आत्महत्या कर रहा है, इसमें छोटे एवं मझोले किसान हैं, जो आर्थिक तंगी की सूरत में अपनी जान गँवा रहे हैं। अगर आत्महत्या के मामलों की सघन जाँच की जाए तो ऐसे किसानों की संख्या ज्यादा निकलेगी जो मजदूर एवं शोषित वर्ग के हैं एवं जिनका जमीन पर स्वामित्व तो है, लेकिन उनकी जमीन किसी साहूकार एवं बड़े किसान के पास गिरवी रखी है और वो बटहार का काम करते हैं।

सभी सरकारी योजनाएँ जोकि सीमांत और छोटे किसानों के लिए हैं उन सभी योजनाओं का जमीनी क्रियान्वयन सरकारी तंत्र द्वारा नहीं किया जा रहा है। सीमांत और छोटे किसानों के पास पूरे साल भर खेती का काम नहीं होता है। इन किसानों के पास कृषि उपकरणों और साधनों की कमी होने से वे साल की तीनों फसलें नहीं ले पाते हैं। सिर्फ़ कृषि ऋण की माफी और बैंक ऋण के ब्याज में छूट देने से सभी सीमांत और छोटे किसानों का आर्थिक विकास नहीं होगा। कृषि ऋण माफी और बैंक ऋण ब्याज में छूट अस्थाई उपाय हैं। ये उपाय संपूर्ण समस्या का समाधान नहीं हैं।

हमारे देश में अभी भी 60 फीसदी से अधिक किसान परंपरागत तरीकों से ही खेती कर रहे हैं। सरकारी योजनाएँ विधायिका और कार्यपालिका के रवैये के कारण रास्ते में ही गुम हो रही हैं या इन योजनाओं के बारे में किसानों को जागरूक नहीं किया जा रहा है। औद्योगीकरण और बुनियादी ढाँचे को मजबूत करना, मेक इन इंडिया, बुलेट ट्रेन और स्मार्ट सिटीज़ तक ही सरकार की सोच नहीं होनी चाहिए बल्कि हमारे देश की आबो-हवा, प्रकृति और कृषि आधारित अर्थ व्यवस्था के आधार पर ही सरकार को विकास के पथ पर देश को आगे ले जाना चाहिए। सन् 2004 से सन् 2015-16 के बीच 12 वर्षों में उद्योग क्षेत्र को कारपोरेट टैक्स में लगभग 50 लाख करोड़ रूपये की छूट सरकार द्वारा दी गई। इस राजस्व का एक अंश भी यदि कृषि में निवेश कर दिया जाए तो किसानों की समस्या का समाधान आसानी से हो सकता है। सरकार उद्योगों को हर तरह से बढ़ावा देती है लेकिन कृषि में सिर्फ़ लोकलुभावन घोषणाएँ कर देती है। सरकार की इस सौतेलेपन की नीति के कारण ही देश में अमीरों और ग़रीबों की बीच की खाई बढ़ती ही जा रही है। एक तरफ़ किसानों की कर्ज़ माफी के लिए रिजर्व बैंक तैयार नहीं है और दूसरी तरफ़ कारपोरेट घरानों के कर्ज़ से बैंकों के एनपीए बढ़े हैं और बैंकों की सेहत खराब हुई है। उसे सुधारने के लिए आम जनता के पैसों का इस्तेमाल होगा। इस आम जनता में किसान भी शामिल हैं। बैंकों के एनपीए में वृद्धि के लिए किसान नहीं बल्कि कारपोरेट घराने ज़िम्मेदार हैं।

किसानों की आय दोगुनी कैसे हो

सरकार चाहती है क़ि सन् 2022 तक किसानों की आय दोगुनी हो जाये। वित्तमंत्री जी के मुताबिक कुछ विकसित देश सब्सिडी सीधे तौर पर किसानों को पहुँचाते हैं। मोदी सरकार भी इसी प्रकार की योजना पर विचार कर रही है। आगामी बजट में सरकार किसानों को शार्ट टर्म लोन की राशि 3 लाख रुपये से बढ़ाकर 5 लाख रुपये कर सकती है और लांग टर्म लोन पर 4% की सब्सिडी देने का भी ऐलान कर सकती है। अभी तक सरकार शार्ट टर्म लोन पर 3 से 4% की सब्सिडी देती है और लांग टर्म लोन पर नहीं देती है। खेती का खर्च लगातार बढ़ रहा है। जब उद्योग जगत्, क़ोयला, प्राकृतिक गैस और ऑटोमोबाइल जैसे कई महत्वपूर्ण क्षेत्रों में लागत तय करने वाली तमाम प्रक्रिया अपना रहे हैं, और अपने उत्पादों की मनमानी कीमतें तय कर रहे हैं, तब भला किसानों को अधिक मूल्य देने से कितना नुकसान होगा? क्या राजनीतिक दबाव के कारण सरकार किसानों की आय बढ़ाने के लिए सिर्फ़ लोकलुभावन योजनाओं का ऐलान ही करेगी? अब समय आ गया है कि केंद्र सरकार को समूचे राष्ट्र के किसानों की आय को सन् 2022 तक दोगुना करने के लिए एक समग्र नीति बनानी होगी। वैसे सरकार ने इस दिशा में विचार करना प्रारंभ कर दिया है। सिर्फ़ किसानों की आय बढ़ाने के लिए समग्र नीति बनाकर और लोकलुभावन योजनाओं का ऐलान कर देने से ही सरकार का कर्तव्य पूरा नहीं हो जाता बल्कि किसानों के उत्थान के लिए बनायी गई योजनाओं का विधायिका और कार्यपालिका द्वारा उचित क्रियान्वयन और समय-समय पर नियंत्रण एवं निगरानी भी अति आवश्यक है।

देश में 80 फीसदी छोटे और सीमांत किसान हैं। अनुबंध या संविदा कृषि छोटे और सीमांत किसानों के लिए वरदान साबित होगी। सरकार को अनुबंध या संविदा कृषि के संबंध में एक ठोस नीति बनानी होगी तब ही सीमांत और छोटे किसानों के अधिकारों की सुरक्षा सुनिश्चित होगी। एक ओर सरकार सरकारी कर्मचारियों को कई प्रकार के भत्ते देती है और किसानों को सिर्फ़ न्यूनतम समर्थन मूल्य दिया जाता है जो खेती की लागत से भी कम होता है। बढ़ती कृषि लागत एवं कृषि उपज के घटते दामों के बीच भारतीय किसान पिस रहा है। हमारे नीति निर्माताओं को चाहिए कि वे किसानों विशेषकर छोटे और सीमांत किसानों के हक में योजनाएँ बनाएँ और और सरकार यह सुनिश्चित करें कि वे योजनाओं का लाभ इन किसानों तक पहुँचाएँ। अब समय आ गया है कि सरकार को सीमांत और छोटे किसानों के घरों की मासिक आय के साधन तलाशने की अत्यंत आवश्यकता है।

ग्रामीण क्षेत्र

ग्रामीण क्षेत्र में स्थित धार्मिक स्थलों को पर्यटन से जोड़कर ग्रामीणों को रोज़गार देकर उन्हें गाँव में ही रोका जा सकता है। लाभकारी मूल्य गारंटी, खेतों के नज़दीक समृद्ध बाज़ारों का सृजन, खेतों के नज़दीक ही गोदाम और कोल्ड स्टोरेज की सुविधाएं देकर एवं मासिक आय की सुविधा सुनिश्चित करके सरकार इन सीमांत और छोटे किसानों की आर्थिक स्थिति में सुधार ला सकती है। हमारे देश में विकास का मूलमंत्र कृषि का विस्तार और विकास ही होना चाहिए। अब वर्ष 2018-19 के बजट में विकास की योजनाएं सीमांत और छोटे किसानों के हितों को ध्यान में रखकर ठोस योजनाओं का ज़मीनी स्तर पर क्रियान्वयन सुनिश्चित किया जाना चाहिए तभी हमारे देश की अर्थव्यवस्था मजबूत होगी और तभी इन किसानों की आत्महत्याओं का सिलसिला रुक पाएगा।

-दीपक गिरकर

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