सपाई दंगल में कौन जीता, कौन हारा का फैसला करना मुश्किल

किसी की छवि में उतार−चढ़ाव हुआ करता है लेकिन रिश्ते नहीं बदला करते। अखिलेश के पिता मुलायम सिंह हैं, तो सगे चाचा शिवपाल ने भी उन्हें गोद में खिलाया है। कैसे कहा जाए कौन जीता कौन हारा।

सुलह−समझौते की कोशिशें सफल न होने पर समाजवादी पार्टी के पुरोधा मुलायम सिंह यादव ने अंततः सार्वजनिक रूप घोषित ही कर दिया कि पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष वहीं हैं और उनके बेटे ने अपने को राष्ट्रीय अध्यक्ष अवैध रूप से घोषित कर रखा है। उन्होंने कहा कि साइकिल चुनाव चिह्न उनका है, इस पर दूसरा कोई अधिकार नहीं जता सकता। इसके साथ ही उन्होंने अपने मन की पीड़ा भी जता दी। मुलायम सिंह ने कहा कि अखिलेश मेरा बेटा है, पार्टी के ज्यादातर लोग उसके साथ चले गये, मेरे साथ तो थोड़े ही बचे हैं बेटा है, उसे मार तो डालूंगा नहीं...। इसके साथ ही मुलायम सिंह ने प्रो. रामगोपाल यादव द्वारा बुलायी गयी राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक को अवैध बताया और कहा कि 30 दिसम्बर को ही रामगोपाल को पार्टी से निष्कासित कर दिया था तो उन्हें बैठक बुलाने का अधिकार ही नहीं था। इस प्रकार मुलायम सिंह के बयान के बाद अब चुनाव चिह्न की लड़ाई तय हो गयी है और गेंद चुनाव आयोग के पाले में है।

समाजवादी पार्टी पीढ़ीगत परिवर्तन के नए दौर में पहुंच चुकी है। इसमें व्यावहारिक रूप से अखिलेश यादव ने निर्णायक बढ़त बना ली है। संभव है अब नामकरण में भी परिवर्तन हो। चुनाव निशान के बारे में अंतिम फैसला निर्वाचन आयोग को करना है। जाहिर है सपा में परिवर्तन साफ दिखाई दे रहा है। सपा की स्थापना के समय मुलायम ने अनेक सपने देखे होंगे। सत्ता में अपनी पार्टी को देखना प्रत्येक नेता की चाहत होती है। मुलायम का यह सपना पूरा हुआ। परिवार आधारित पार्टियों में उत्तराधिकार यहीं से तय होता है। मुलायम ने कभी अपने पुत्र की ताजपोशी का सपना भी देखा होगा। लेकिन उन्होंने सपने में भी नहीं सोचा होगा कि एक दिन उनकी सहमति के बिना आयोजित सम्मेलन उन्हें मार्गदर्शक बनाने का प्रस्ताव पारित कर देगा। सम्मेलन में जो भी प्रस्ताव पारित हुए वह मुलायम सिंह से ही संबंधित थे। एक तो उन्हें हटाकर अखिलेश को राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाया गया। यह प्रस्ताव प्रत्यक्ष रूप में मुलायम के लिए था। शेष दो प्रस्ताव अप्रत्यक्ष रूप में उन्हीं से संबंधित थे। मुलायम ने ही शिवपाल सिंह यादव को प्रदेश अध्यक्ष बनाया, सम्मेलन ने उन्हें हटाने का प्रस्ताव पारित किया। मुलायम ने ही अमर सिंह की पार्टी में वापसी कराई थी, सम्मेलन में उन्हें पार्टी से निकालने का प्रस्ताव पारित हुआ। 

सैफई परिवार में से एक घोषित बाहरी किरदार को निकाल दें, तो अन्य सभी लोग एक परिवार से ही संबंधित हैं। इसमें दंगल दिखाई दिया। बर्खास्तगी, बहाली, नाराजगी, खुशी, जय, पराजय, तंज, भावुकता, एक से बढ़कर एक डायलाग, सस्पेंस, सभी कुछ इसमें शामिल था। किसी ने कहा कि इसकी पटकथा एक विदेशी चुनाव−प्रबन्धक ने पहले से लिखी थी। इसमें सभी की भूमिका निर्धारित थी। सब कुछ उसी के अनुरूप चल रहा था। इसका मकसद एक बार फिर अखिलेश यादव की छवि को निखारना था। जिसके सहारे विधानसभा चुनाव लड़ा जाए। लेकिन इस दावे में कोई दम नहीं दिखाई देता। यदि कोई चुनावी−प्रबन्धक ऐसी पटकथा लिखता है, या सुझाव भी देता है, तो उससे तौबा ही कर लेना चाहिए। क्योंकि पिछले कुछ महीने से सपा में जो चल रहा है, उसने किसी की भी प्रतिष्ठा नहीं बढ़ाई है। इससे किसी की छवि में निखार नहीं आया है। वरन् रिश्तों की गरिमा गिरी है। इसमें नुकसान सभी का हुआ है क्योंकि सभी मुख्य किरदार दोहरी भूमिका में हैं। वह करीबी रिश्तेदार हैं, वहीं संगठन या सरकार में एक दूसरे के सहयोगी भी हैं। अखिलेश मुख्यमंत्री हैं, तो राष्ट्रीय अध्यक्ष के पुत्र व प्रान्तीय अध्यक्ष के भतीजे भी हैं। इस तथ्य से अखिलेश भी इन्कार नहीं कर सकते कि वह मुलायम सिंह यादव के पुत्र होने की वजह से मुख्यमंत्री बने थे। इस पृष्ठभूमि के बल पर ही वह कई बार लोकसभा के लिए निर्वाचित हुए थे। इतना अवश्य है कि पिछले विधानसभा चुनाव में सपा को अखिलेश की छवि का लाभ मिला था। क्योंकि वह सपा में परिवर्तन का विश्वास दिलाते दिखाई दिये थे। किसी की छवि में उतार−चढ़ाव हुआ करता है लेकिन रिश्ते नहीं बदला करते। अखिलेश के पिता मुलायम सिंह हैं, तो सगे चाचा शिवपाल ने भी उन्हें गोद में खिलाया है। कैसे कहा जाए कौन जीता कौन हारा। 

कहा जा सकता है कि चुनाव में टिकट वितरण पर नियंत्रण को लेकर मतभेद उभरे। दूसरी बात यह थी कि अखिलेश का मानना था कि वह विकास के मुद्दे पर चुनाव लड़ेंगे। जबकि मुलायम सिंह इससे असहमत थे। उनका मानना था कि केवल यह मुद्दा चुनाव नहीं जिता सकता। जहां तक विकास के प्रचार की बात है तो पहले मुलायम और बाद में मायावती सरकार ने इसमें कोई कसर नहीं छोड़ी थी। लेकिन सत्ता में उनकी वापसी नहीं हो सकी थी। मुलायम अनुभव से काम ले रहे थे। इसलिए वह समीकरण भी ठीक करना चाहते थे। कौमी एकता दल का विलय उनकी रणनीति का हिस्सा था। शिवपाल का यह कहना गलत नहीं था कि मुलायम सिंह की सहमति व जानकारी से ही यह कार्य किया गया।

हार जीत से ज्यादा−महत्वपूर्ण आत्मचिंतन है। इस दंगल में सभी दिग्गजों से चूक हुई है। यह मुलायम का पुत्र मोह ही था कि उन्होंने मुख्यमंत्री के साथ प्रदेश अध्यक्ष का पद भी अखिलेश को सौंप दिया था। यहां तक गनीमत थी। क्या यह मुलायम के लिए उचित नहीं होता कि यही व्यवस्था चुनाव तक कायम रखते। चुनाव के कुछ महीने पहले−परिवर्तन का कोई औचित्य नहीं होता। दूसरी बात यह कि कौमी एकता दल के विलय पर अखिलेश को भी विश्वास में लिया जाता। कौमी एकता दल के विलय व अखिलेश से प्रदेश अध्यक्ष का पद वापस लेने से विवाद सतह पर आ गया। जाहिर है मुलायम उचित निर्णय लेने में विफल हो रहे थे। उनके फैसलों में अस्थिरता थी। कौमी एकता दल का विलय निरस्त हुआ। कुछ दिन बाद फिर विलय हो गया।

इसी प्रकार राष्ट्रीय महासचिव रामगोपाल यादव की चंद दिनों में दो बार बर्खास्तगी व बहाली हो गयी। मुख्यमंत्री ने जिन दो मंत्रियों को बर्खास्त किया, उन्हें मंत्री पद पर बहाल करने का दबाव मुलायम ने ही बनाया था। किसी पार्टी द्वारा अपने ही मुख्यमंत्री को बर्खास्त करना साधारण कदम नहीं होता। मुलायम ने यह भी कर दिया। बीस घंटे बाद पुनः बहाली हो गयी। इन फैसलों ने मुलायम की प्रतिष्ठा नहीं बढ़ाई। इसी प्रकार शिवपाल यादव ने भी बतौर प्रदेश अध्यक्ष फैसलों में जल्दीबाजी की। वह जानते थे कि उनके फैसले अखिलेश को चिढ़ाने का काम करेंगे। फिर भी वह नहीं रुके। वह जानते थे कि अखिलेश कई नामों को स्वीकार नहीं करेंगे। अखिलेश ने जिसे सार्वजनिक मंच पर किनारे किया था, शिवपाल ने उसे टिकट दे दी। शिवपाल ने जिसे सार्वजनिक मंच में किनारे किया था, उसे अखिलेश ने राज्यमंत्री का दर्जा दे दिया। शिवपाल ने जिसे पार्टी से निकाला, अखिलेश उसे मंत्री परिषद में बनाए रहे। ये कदम किसकी प्रतिष्ठा बढ़ा सकते हैं। जिसे संगठन नकार रहा था, वह सरकार का प्रिय हो जाता था, जिसे मुख्यमंत्री नापसन्द करते थे, वह संगठन की पसन्द बन जाता था। इससे संगठन व सरकार, दोनों की छवि पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा था। मुख्यमंत्री युवा हैं। उनके पास सत्ता है। मुलायम बुजुर्ग हैं। जब एक पीढ़ी से दूसरी में सियासत का हस्तांतरण होता है, तो भीड़ युवा नेतृत्व की ओर होती है। ऐसे एक नहीं अनेक उदाहरण हैं। जहां लम्बी पारी की उम्मीद होती है, लोग उसी ओर आकर्षित होते हैं। वह नेतृत्व सत्ता में हो तो सोने पर सुहागा। अखिलेश को इसका लाभ मिलना ही था। अधिकांश विधायक उनके साथ थे। उनका पलड़ा भारी होना ही था। जहां तक सरकार का सवाल है− साढ़े चार वर्ष से ज्यादा जैसी सरकार चलती है, वही उसकी वास्तविक छवि बना देती है। 

- डॉ. दिलीप अग्निहोत्री

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