अयोध्या-विवाद का हल अदालत के बाहर हो सकता है बशर्ते...

A solution to the Ayodhya dispute can be outside the court is possible

मंदिर और मस्जिद के मामले में हिंदू संगठनों ने साफ-साफ कह दिया है कि मंदिर तो वहीं बनेगा। यदि अदालत का फैसला यह हो कि मस्जिद भी मंदिर से सटकर वहीं बनेगी तो क्या वे मान लेंगे?

अयोध्या के मंदिर-मस्जिद विवाद पर आजकल सर्वोच्च न्यायालय विचार कर रहा है। पिछले कई महिनों से बहस टलती जा रही है। कभी इस बहाने से कि इस विचार से संबंधित दस्तावेज संस्कृत, प्राकृत, अरबी, फारसी और हिंदी में भी हैं। जब तक उन सबका अनुवाद अंग्रेजी में न हो, अदालत उन्हें समझेगी कैसे ? लाखों पृष्ठों और चार-पांच सदियों तक फैली इस सामग्री का अनुवाद करने में कितने साल लगेंगे ? बहस के टलने का ताजा कारण यह रहा कि इस विवाद के तीन मुख्य पक्षकारों के अलावा लगभग दो दर्जन लोगों ने भी याचिकाएं लगा रखी थीं। अदालत ने उन याचिकाओं को अस्वीकार कर दिया और बहस की तारीख आगे बढ़ा दी

इस मसले पर 2019 तक कोई बहस ही न हो, ऐसी राय सुन्नी वक्फ बोर्ड के वकील ने दी है। उनकी राय है कि इस विवाद का हल 2019 के बाद ही किया जाए। ऐसा उन्होंने क्यों कहा, यह तो वे ही बता सकते हैं लेकिन मोटे तौर पर इसका अर्थ यही है कि उन्होंने वर्तमान सरकार और अदालत की निष्पक्षता पर उंगली उठाई है। मान लें कि वे बिल्कुल गलत हैं और सर्वोच्च न्यायालय साल भर में ही कोई फैसला कर दे तो भी सबसे बड़ा सवाल यह है कि उसे लागू कौन करेगा ? यह मामला इतना नाजुक है कि कोई भी सरकार अपने हाथ जलाना क्यों चाहेगी ? ऐसे दर्जनों अदालती फैसले हैं, जिन्हें कोई भी सरकार आज तक लागू नहीं कर पाई। इलाहाबाद हाईकोर्ट का वह फैसला मुझे अभी याद पड़ रहा है, जिसमें उसने आदेश दिया था कि उप्र के समस्त सरकारी कर्मचारियों के बच्चे अनिवार्य रुप से सरकारी स्कूलों में पढ़ाए जाएं। यह मूल सुझाव मेरा ही था। लखनऊ में सरकारें बदल गईं लेकिन वह फैसला अधर में ही लटका हुआ है। 

मंदिर और मस्जिद के मामले में हिंदू संगठनों ने साफ-साफ कह दिया है कि मंदिर तो वहीं बनेगा। यदि अदालत का फैसला यह हो कि मस्जिद भी मंदिर से सटकर वहीं बनेगी तो क्या वे मान लेंगे ? इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले का व्यावहारिक परिणाम यही होता लेकिन उसे हिंदू और मुस्लिम तीनों पक्षकारों ने अमान्य कर दिया। यदि फैसला ऐसा हो, जैसा कि शिया नेताओं का सुझाव है, कि मस्जिद या तो लखनऊ में बने या सरयू नदी के पार बने तो क्या मुसलमान इसे मान लेंगे? शिया नेताओं ने कहा है कि इस नई मस्जिद का नाम बाबर या मीर बाकी से जोड़ने की बजाय ‘मस्जिदे-अमन’ रखा जाए। इस प्रस्ताव का समर्थन किसी भी प्रमुख मुस्लिम संगठन ने नहीं किया है। इस सुझाव को सिर्फ इस तर्क के आधार पर नहीं माना जा सकता कि इस मस्जिद का निर्माता मीर बाक़ी शिया था और 1944 तक इस मस्जिद के पुरोहित (मुतव्वली) बाक़ी परिवार के लोग ही रहते रहे। अयोध्या में कोई मस्जिद बने ही नहीं, यह तर्क भी गले नहीं उतरता। वहां दर्जनों मस्जिदें अभी भी सक्रिय हैं। 

कुछ हफ्तों पहले मैं स्वयं अयोध्या गया और रामजन्म भूमि का जो दृश्य मैंने देखा, वह हृदय-विदारक था। लोहे के पाइपों से घिरी संकरी पगडंगी ऐसी लग रही थी, जैसे हम हिटलर के किसी यातना-शिविर से गुजर रहे हों। ऐसे कई शिविर मैंने यूरोपीय देशों में देखे हैं, लेकिन यह तो उससे भी भयंकर था। सुरक्षा कर्मियों ने कलम, घड़ी, बटुआ वगैरह भी नाके पर रखवा लिया। ऐसी सुरक्षा मैंने रुस के क्रेमलिन, अमेरिका के व्हाइट हाउस और भारत के राष्ट्रपति भवन में भी नहीं देखी। जहां रामलला की मूर्ति रखी हुई थी, उससे थोड़ा बढ़े तो क्या देखा ? सरकार द्वारा अधिग्रहीत 67 एकड़ जमीन में गंदगी का ढेर लगा हुआ है और बंदरों ने उत्पात मचा रखा है। उसके बाद वह स्थान देखा, जहां राम मंदिर निर्माण के लिए शिलाएं तराशी जा रही थीं। शिलाओं पर कारीगरी तो मनोहारी थी लेकिन लाल रंग की शिलाएं अजीब-सी लग रही थीं। ‘इमामे हिंद’ भगवान राम का मंदिर बने तो उसमें दुनिया की सर्वश्रेष्ठ शिलाएं लगनी चाहिए। ऐसी कि दुनिया के लोग ताजमहल के पहले उसे देखने के लिए भारत आएं। 

यह विवाद इतना उलझा हुआ है कि इसे अदालतें सुलझा नहीं सकतीं। यह मामला कानून का नहीं, विश्वास का है। इसीलिए पूर्व मुख्य न्यायाधीश ने कहा था कि हिंदू और मुसलमान इसे बातचीत से सुलझाएं। इसे बातचीत से सुलझाने की कोशिशें प्रधानमंत्री चंद्रशेखर और नरसिंहराव के जमाने में सफल होती दिखाई पड़ रही थीं। 1992 में मेरे सुझाव पर प्रधानमंत्री नरसिंह राव और विश्व हिंदू परिषद के नेता अशोक सिंघल मंदिर की कार सेवा को तीन महिने के लिए टालने पर राजी हो गए। समाधान की तैयारी चल ही रही थीं कि 6 दिसंबर 1992 को मस्जिद ढहा दी गई। उस समय सरकार और दोनों पक्ष इसे बातचीत से हल करना चाहते थे लेकिन ढांचे के साथ-साथ बातचीत भी टूट गई। 

नरसिंहराव सरकार 1993 में एक अध्यादेश लाई और उसने राम जन्मभूमि की पौने तीन एकड़ जमीन के साथ-साथ आस-पास की 67 एकड़ जमीन बाकायदा सरकार के कब्जे में ले ली। उस अध्यादेश में लिखा हुआ है कि इस जमीन को इसलिए लिया गया है कि इसमें राममंदिर की जगह तो मंदिर बने ही लेकिन इस विशाल क्षेत्र में मस्जिद भी बने, पुस्तकालय भी बने तथा अन्य सुविधाएं भी खड़ी की जाएं। संसद ने इस पर अपनी मुहर लगाई। उन कठिन दिनों में हमारी राय यह थी कि भूतकाल को भूला जाए और आगे की सुध ली जाए। अयोध्या-विवाद का ऐसा समाधान निकाला जाए, जो अयोध्या नाम को सार्थक कर दे। युद्ध को समाप्त कर दे। न कोई जीते, न कोई हारे। सब संतुष्ट हो जाएं। इसी मूल विचार को आगे बढ़ाते हुए अब एक नया सुझाव उभरा है, जो सभी पक्षों को मान्य हो सकता है। वह सुझाव यह है कि रामजन्म भूमि पर तो एक भव्य और विशाल राम मंदिर बने और शेष 60-65 एकड़ जमीन पर मस्जिद, गुरुद्वारा, गिरजाघर, जैन और बौद्ध मंदिर यहूदियों का साइनेगॉग, पारसियों का पूजा स्थल आदि कई इतने सुंदर भवन खड़े कर दिए जाएं कि अयोध्या विश्व तीर्थ बन जाए। यह विश्व का सबसे बड़ा पर्यटन-स्थल बन जाए। अयोध्या में ही विश्व का सबसे बड़ा आध्यात्मिक और दार्शनिक विश्वविद्यालय बने। अयोध्या सर्वधर्म सदभाव की विश्व राजधानी बन जाए। मेरा सुझाव है कि संसद उक्त आशय का प्रस्ताव पारित करे और उसके पहले उस प्रस्ताव पर देश के सभी संप्रदायों की सर्वसम्मति अर्जित करने की कोशिश करे। अदालतों के भरोसे बैठे रहने से काम नहीं चलेगा।

-डॉ. वेदप्रताप वैदिक

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