अमेरिका ही नहीं ब्रिटेन में भी बढ़ रहा है नस्ल भेद
जज के आदेश पर सजा पाने वालों को उनके मूल देश भेजा जाता है तो ब्रिटिश सरकार को नस्ल भेद का दोषी माना जाएगा। लेकिन यह मानना पड़ेगा कि ब्रिटेन में नस्ल भेद मुख्य स्थान ले रहा है।
यह सिर्फ नस्लवाद है। पाकिस्तानी मूल के चार ब्रिटिश नागरिकों ने यौन शोषण का अपराध किया था और उन्हें जेल की सजा दी गई। लेकिन जज मेक्लोस्की ने अपने विवेक के आधार पर कहा कि उनकी सजा पूरी होने के बाद उन्हें उनके मूल देश भेज दिया जाए।
मुझे शक है कि किसी गोरे आदमी, खासकर यूरोपीय, के साथ ऐसा होता। जज ने बिना बिना किसी झिझक के कहा कि सजा पाने वाले की राष्ट्रीयता छीन ली जाए। एक प्रवासी परिषद ने भी बाद में अपने एक फैसले के जरिए पाकिस्तानियों को ब्रिटेन से हटा देने का रास्ता साफ कर दिया। उन्होंने देशीकरण के जरिए ब्रिटिश नागरिकता हासिल की थी।
कराची के डान अखबार के मुताबिक, वे पाकिस्तानी और अफगानी मूल के उन नौ लोगों में से थे जिन्हें 13 साल से भी कम उम्र की लड़कियों को शराब और नशीले पदार्थों को इस्तेमाल से यौन कर्म की ओर फुसलाने के लिए सजा मिली थी। वे उत्तरी इंग्लैंड के रोसडेल में रहते थे। जिनकी दोहरी नागरिकता छीन ली गई, उनमें से पांच ब्रिटिश पाकिस्तानी थे और दो के पास ब्रिटिश और सूडानी नागरिकता थी। बाकी छह लोग इराकी, रूसी, मिश्री और लेबनानी दोहरी नागरिकता वाले थे। अभी तक ऐसे दस फैसलों के खिलाफ अपील की जा चुकी है।
वापस भेजे जाने के फैसले का सामना कर रहे चार लोगों में अपराध का सरगना शबीर अहमद भी है जिसे 2012 में 22 सालों की सजा मिली थी। बाकी चार हैं आदिल खान, कार अब्दुल रऊफ और अब्दुल अजीज। अहमद, जिसे बलात्कार और अन्य आरोपों में सजा दी गई थी, जेल में है। और शेष तीन लोगों को लाइसेंस पर रिहा कर दिया गया है। खान, रऊफ तथा अजीज को साजिश करने और यौन शोषण के लिए मानव तस्करी करने के आरोपों में सजा मिली है। अजीज पर किसी बच्चे के साथ दुष्कर्म का आरोप नहीं है।
अपर इमिग्रेशन ट्रिब्यूनल (अपर प्रवासी परिषद) और एसायलम कौंसिल (आश्रय परिषद) के जज ने सुनवाई के दौरान उनके अपराधों को ''धक्का पहुंचने वाला क्रूर और विचलित करने वाला'' बताया। उसके फैसले ने मानवाधिकार कानूनों के दावों और उनके अधिकारों में ''जरूरत से ज्यादा'' हस्तक्षेप की शिकायत को खारिज कर दिया। मुकदमा गृहमंत्री के कार्यकाल के दौरान प्रधानमंत्री टेरसा मे के इस फैसले पर केंद्रित है कि जनहित में लोगों की नागरिकता छीनी जा सकती है।
जब से ब्रिटेन में गठबंधन की सरकार आई है, जनहित में दोहरी नागरिकता से वंचित करने के गृहमंत्री के अधिकार से प्रभावित होने वालों की संख्या बढ़ गई है। यह प्रावधान 2006 के प्रवास, शरण और राष्ट्रीयता कानून में 2005 के बम बिस्फोटों की घटना के सीधे नतीजे के रूप में शामिल किया गया था। इन विस्फोटों में 52 लोग मरे थे और 700 लोग घायल हुए थे। इस कानून को बाद के चार सालों में सिर्फ चार बार प्रयोग में लाया गया। लेकिन पिछले साल के आम चुनावों के बाद इसका इस्तेमाल नौ बार हो चुका है।
2012 के सामूहिक बलात्कार के पांच पीड़ितों में सभी के सभी गोरे हैं और उन्होंने अपने पर बलात्कार होने, मारपीट और यौन कर्म के लिए बेचे जाने, एक आदमी से दूसरे आदमी को सौंपे जाने और कभी-कभी ज्यादा शराब के नशे में होने के कारण बुरे बर्ताव से अपना बचाव करने में असमर्थ होने की बात कही है। आरोपियों ने, जो 22 से 59 साल के बीच के थे, अपना बचाव विभिन्न तरीकों से किया। अपने बचाव में उन्होंने यह दावा भी किया कि लड़कियां वेश्या थीं। एक ब्रिटिश सांसद ने यह मांग भी की थी कि ट्रिब्यूनल के सामने लाए गए चार अभियुक्तों को ''जितनी जल्दी हो'' वापस भेज दिया जाए उसने कहा था कि ''देश−निकाला से बचने के लिए विदेशों में जन्म लेने वाले अपराधियों को मानवाधिकार कानूनों की आड़ लेने का मौका नहीं देना चाहिए''।
यह कुछ हद तक उसी के समान है जो सत्ता संभालने के बाद राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने किया है। एक सरकारी आदेश के जरिए उन्होंने अस्थाई तौर पर कुछ मुस्लिम−बहुल देशों के लोगों को वीजा पर अमेरिका में प्रवेश करने से रोक दिया। इसमें ग्रीन कार्ड रखने वाले भी शामिल थे जिन्हें बिना नागरिकता हासिल किए अमेरिका में प्रवेश करने का अधिकार है।
ब्रिटेन की तरह ट्रंप का आदेश भी यही कहता है कि यह आदेश अमेरिकियों के आतंकवाद या आपराधिक गतिविधियों के खतरे से बचाने के लिए किया गया है। लेकिन आवश्यक तौर पर यह ऐसा नहीं करता है। इसके बदले, यह चुनाव प्रचार के उनके मुख्य हिस्से, 'इस्लाम के भय' को अमल में लाने की गंभीर सोच के संकेत देता है। लेकिन राष्ट्रपति चुनाव में उन्हें चुनौती देने वाली हिलेरी क्लिंटन ने इसका जवाब दिया है कि वे अमेरिका के संविधान की रक्षा करेंगे। संविधान किसी के आने पर पाबंदी नहीं लगाता क्योंकि अमेरिका खुद प्रवासियों का देश है।
देश की राष्ट्रीयता से नागरिकों को वंचित करने को लेकर चल रही बहस अशुभ है। किसी को राष्ट्रद्रोही बता कर उस देश में भेज सकते हैं जहां का वह कभी था। यह लेखकों और पत्रकारों के लिए बहुत कठोर होता है। वे अभिव्यक्ति की आजादी का इस्तेमाल कर अपने देश या राजनेताओं की आलोचना करते हैं।
यह भारत में भी हो रहा है। एक आनलाइन संपादक का मामला ही लें जो पहले चरण के मतदान के बाद किए गए एक्जिट पोल के प्रकाशन को लेकर चुनाव आयोग के क्रोध का सामना कर रहा है। अखबार के खिलाफ 15 प्राथमिकियां दर्ज कर दी गई हैं। कुछ समय पहले एक राष्ट्रीय चैनल के मालिक तक को सूचना और प्रसारण मंत्रालय ने दोषी ठहराया जब उसने चैनल में हुए प्रसारण को लेकर माफी मांगने से मना कर दिया।
कुछ समय पहले मंत्रालय ने सेंसरशिप का पक्ष भी लिया था। मंत्री ने कहा था कि सरकार के पास केवल एक चैनल है। इसलिए मंत्रालय को सरकार का पक्ष रखने के लिए सरकारी चैनल के उपयोग का पूरा अधिकार है। मैं चाहता था कि इस विशेषाधिकार का उपयोग दलितों और अल्पसंख्यकों की हालत बयान करने के लिए होता। लेकिन मीडिया में ऊंची जाति का वर्चस्व होने की वजह से वंचितों पर होने वाले जुल्म की शायद ही चर्चा होती है।
जहां तक भारत का सवाल है, यहां कोई नस्लभेद नहीं है। संसद भवन या मुंबई पर आक्रमण करने वालों की विभिन्न न्यायालयों में सनुवाई की गई और उन्हें सजा दी गई। सजा पाने वाले मुसलमान थे। धर्म पर जोर देना अपने आप में गलत है। सऊदी अरब एक मुस्लिम देश है और अपने यहां मुसलमानों को रखना ही पसंद करता है। यह अलग बात है कि वह पाकिस्तानी मुसलमानों की जगह भारतीय मुसलमान को ही तरजीह देता है। यहां तक कि ट्रैफिक उल्लंघनों के मामलों में वहां के पुलिस वाले भारतीय मुसलमानों को छोड़ देते हैं, लेकिन पाकिस्तानी मुसलमानों को सजा देते हैं।
जज के आदेश पर सजा पाने वालों को उनके मूल देश भेजा जाता है तो ब्रिटिश सरकार को नस्ल भेद का दोषी माना जाएगा। लेकिन यह मानना पड़ेगा कि ब्रिटेन में नस्ल भेद मुख्य स्थान ले रहा है।
- कुलदीप नैय्यर
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