अन्ना तुम संघर्ष मत करो अब तुम्हारे साथ बहुत कम लोग हैं

Anna Hazare please do not fight

जैसी तीन प्रमुख माँगों को लेकर सामाजिक कार्यकर्ता अन्ना हजारे 23 मार्च से दिल्ली के रामलीला मैदान में अनशन पर बैठे तो एक बार यही लगा कि सात साल पहले जैसी ''''क्रांति'''' शुरू होने वाली है।

लोकपाल और लोकायुक्तों की नियुक्ति, 60 वर्ष से अधिक उम्र के किसानों के लिए पेंशन और चुनाव सुधार लागू किये जाने जैसी तीन प्रमुख माँगों को लेकर सामाजिक कार्यकर्ता अन्ना हजारे 23 मार्च से दिल्ली के रामलीला मैदान में अनशन पर बैठे तो एक बार यही लगा कि सात साल पहले जैसी ''क्रांति'' शुरू होने वाली है। यह भी माना गया कि जिस तरह मनमोहन सरकार को 'अन्ना आंदोलन' ने लोकपाल कानून लाने के लिए बाध्य कर दिया था वैसा ही दबाव अब मोदी सरकार पर पड़ने वाला है। लेकिन ऐसा हुआ नहीं क्योंकि अब स्थितियाँ ही नहीं अन्ना भी बदल चुके हैं और उनके सभी पुराने साथी भी बदल चुके हैं। नयी 'टीम अन्ना' में ना कोई बड़ा या जाना पहचाना नाम था और ना ही इस टीम में कोई दम था।

अन्ना हजारे ने अपने इस बार के अनशन को किसी के लिए राजनीतिक सीढ़ी नहीं बनने देने के जो पुख्ता उपाय किये थे वही उनके लिए सबसे बड़ी मुश्किल बन गये। जो रामलीला मैदान सात वर्ष पहले खचाखच भरा रहता था और 'मैं भी अन्ना तू भी अन्ना' के नारे चारों ओर गुँजायमान रहते थे उसकी जगह इस बार रामलीला मैदान के एक छोटे से भाग में उत्तर भारत से आये कुछ लोग मौजूद थे और जोशीले नारों तथा प्रतिबद्ध कार्यकर्ताओं का सर्वथा अभाव था। एक कहावत है- 'काठ की हांडी बार बार नहीं चढ़ती'। अन्ना हजारे के अनशन पार्ट-2 के साथ भी यही हुआ। आइए डालते हैं उन बिंदुओं पर नजर जो अन्ना हजारे के अनशन की विफलता के प्रमुख कारण रहे।

टीम अन्ना में नहीं थी एकता

अन्ना हजारे की टीम के सदस्य एक दूसरे को पीछे धकेलने में लगे थे और मीडिया से एक दूसरे के बारे में ही उल्टी सीधी बातें कहते थे। दैनिक आधार पर कोई तय कार्यक्रम भी नहीं था और जैसे सब कुछ भगवान भरोसे ही चल रहा था। कौन प्रमुख लोग आने वाले हैं, किस राज्य से क्या फीडबैक है जैसे प्रश्नों का हर किसी के पास अलग जवाब होता था और कुल मिलाकर सामान्य जन के भी यह बात बड़ी आसानी से समझ आने वाली थी कि टीम अन्ना में समन्वय की भारी कमी है।

अन्ना की किचन कैबिनेट

अन्ना हजारे ने भले राष्ट्रीय स्तर पर कोर कमेटी बना कर उसमें कई लोग रखे थे लेकिन उनके आसपास तीन-चार ऐसे लोगों का घेरा था जोकि अन्ना हजारे को जो समझाते थे वह वही समझते थे। बताया जाता है कि यही तीन-चार लोग सरकार के साथ संपर्क में भी थे। अनशन के छठे दिन जब एक पुलिस अधिकारी ने कथित रूप से टीम अन्ना के एक सदस्य की पिटाई की तो अन्ना हजारे ने किचन कैबिनेट के सुझाव पर उस सदस्य का साथ नहीं दिया और ना ही इस संबंध में पुलिस में कोई शिकायत की गयी। यह बात टीम अन्ना के बाकी लोगों को नहीं पसंद आई।

अनुभव की कमी

इस बार टीम अन्ना में जो भी लोग शामिल थे उनके पास अनुभव की जबरदस्त कमी थी और राष्ट्रीय स्तर पर आंदोलन को संचालित करने का कोई अनुभव नहीं था। भीड़ को कैसे मैनेज करना है, मीडिया से क्या और कब बात करनी है, राज्यों से जो लोग आ रहे हैं उनके लिए क्या प्रबंध करने हैं, सोशल मीडिया पर आंदोलन को कैसे आगे बढ़ाना है, जैसी जरूरी बातों का कोई इंतजाम नहीं था।

अन्ना हजारे खुद को ज्यादा आंक गये

संभवतः पिछली बार के सफल आंदोलन से अन्ना हजारे ने अपना कद अपनी ही नजरों में काफी बढ़ा लिया। जबकि देखा जाये तो पिछली बार आंदोलन को रणनीतिक रूप से आगे बढ़ाने में अरविंद केजरीवाल, मनीष सिसोदिया, कुमार विश्वास, किरण बेदी आदि की प्रमुख भूमिका रही। वहीं कानूनी मोर्चे पर प्रशांत भूषण ने जिम्मेदारी संभाली थी। प्रमुख फिल्मी हस्तियों और योग गुरु रामदेव आदि को आंदोलन से जोड़ने के लिए पूरी टीम मौजूद थी लेकिन इस बार अन्ना हजारे खुद अपने बलबूते सब कुछ करना चाहते थे इसलिए वह विफल रहे। उन्होंने राज्यों खासकर उत्तर भारतीय राज्यों में जाकर लोगों से तो संपर्क किया लेकिन किसी प्रमुख समाजसेवी को आमंत्रित नहीं किया जिससे भीड़ को आकर्षित किया ज सके या जो अपने साथ भीड़ लेकर आ सके।

अन्ना हजारे की सबसे बड़ी गलती

अन्ना हजारे के कई प्रमुख साथी जोकि राजनीतिक जीवन में शुचिता और सामान्य तरीके से रहने की बातें करते थे वह सभी आज बड़े बंगले, बड़ी गाड़ी और अपार सुविधाएँ हासिल कर शानदार जीवन जी रहे हैं। अपने आंदोलन को राजनीति की सीढ़ी दोबारा नहीं बनने देने के लिए इस बार अन्ना ने लोगों से यह एफिडेविट लेना शुरू कर दिया कि कार्यकर्ता चुनाव नहीं लड़ेंगे या राजनीति में नहीं आएंगे, इस कारण बड़ी संख्या में लोग इस आंदोलन के साथ जुड़े ही नहीं।

आंदोलन का समय गलत था

अन्ना हजारे ने 23 मार्च को शहीदी दिवस के दिन अनशन शुरू किया। लेकिन आंदोलन को समर्थन मिलने के लिहाज से यह समय इसलिए ठीक नहीं रहा क्योंकि युवाओं को जुड़ने में इसलिए कठिनाई हुई कि 10वीं और 12वीं की बोर्ड की परीक्षाएँ चल रही थीं और दिल्ली विश्वविद्यालय के कॉलेजों की परीक्षाएँ शुरू होने वाली हैं। इसके अलावा कुछ राज्यों में फसलों की कटाई तो कहीं बुआई का मौसम है जिसके चलते किसान बड़ी संख्या में नहीं जुटे। यही नहीं दिल्ली में इस बार मार्च माह में ही पड़ रही प्रचंड गर्मी ने भी लोगों को घरों में रोके रखा। 

आंदोलन शुरू से ही भटका हुआ था

पिछले अनशन के दौरान एक ही मुद्दा था- जन लोकपाल। हर किसी की जुबान पर यही था- जन लोकपाल, जन लोकपाल, जन लोकपाल। लेकिन इस बार जन लोकपाल के अलावा, किसानों की मांगें और चुनाव सुधार जैसे विषय भी शामिल कर लिये गये। इसके अलावा अपनी अपनी मांगों को लेकर संघर्ष कर रहे विभिन्न गुटों को आमंत्रित कर लिया गया और रामलीला मैदान में विभिन्न मांगों के बैनरों को देखकर भ्रम की स्थिति बनी रही कि अनशन की असल मांग कौन सी है। देखा जाये तो इस बार के अनशन में जन लोकपाल का मुद्दा पूरी तरह दबा रह गया।

दिल्ली और केंद्र सरकार की बेरुखी

केंद्र की मोदी सरकार ने अन्ना हजारे के अनशन को कोई भाव नहीं दिया। अनशन शुरू होने से पहले जरूर कृषि मंत्री हजारे को मनाने गये थे लेकिन वह नहीं माने तो केंद्र ने भी मुँह फेर लिया और मामला सुलझाने की जिम्मेदारी महाराष्ट्र सरकार पर डाल दी। महाराष्ट्र सरकार ने अन्ना हजारे के क्षेत्र से आने वाले विधायक और मंत्री गिरीश महाजन को मध्यस्थ बनाकर भेजा जिन्होंने बड़ी जल्दी ही अन्ना को मना लिया और मुख्यमंत्री को दिल्ली बुलाकर अन्ना का अनशन तुड़वाया गया। दूसरी तरफ दिल्ली सरकार ने भी आंदोलन को जरा भी तवज्जो नहीं दी और अन्ना के शिष्य रहे दिल्ली के मुख्यमंत्री, उनके सभी मंत्री या विधायकों में से किसी ने रामलीला मैदान जाकर अन्ना का हाल जानने की जरूरत नहीं समझी। अन्ना बदले समय की हकीकत को भाँप चुके थे इसलिए उनके सामने अनशन तोड़ने के अलावा विकल्प नहीं बचा था।

व्यापारियों का सहयोग नहीं मिला

पिछली बार के आंदोलन में दिल्ली के व्यापारियों ने टीम अन्ना का साथ दिया था और अनाज के भंडार आंदोलन में आने वाले लोगों के लिए खोल दिये थे लेकिन इस बार दिल्ली के व्यापारी खुद सीलिंग से परेशान हैं इसलिए वह किसी तरह की मदद नहीं दे पाये।

कॉरपोरेट जगत की बेरुखी

भ्रष्टाचार विरोधी संगठन को कॉरपोरेट वर्ल्ड का भी काफी साथ मिला था क्योंकि अन्ना क्रांति से लोगों को बड़ी उम्मीद जगी थी लेकिन जब यह देखा गया कि लोगों ने अन्ना के मंच को राजनीति का लान्चिंग पैड बना दिया है तो कॉरपोरेट वर्ल्ड ने भी किनारा कर लिया।

मीडिया की दूरी

टीम अन्ना का आरोप था कि सरकार के इशारे पर मीडिया अन्ना हजारे के अनशन से जुड़ी खबरें नहीं दिखा रहा है जिससे देश भर के लोगों को इसके बारे में पता नहीं चल रहा है। इस आरोप में कितनी सच्चाई है यह तो सरकार ही जाने लेकिन मीडिया को भीड़ और टीम अन्ना के सदस्यों को देखकर पहले ही दिन लग गया था कि यहाँ टीआरपी मिलने जैसा इस बार कुछ नहीं है। 

बहरहाल, कुल मिला कर देखा जाये तो अन्ना हजारे ने इस बार के अनशन के दौरान खुद अपने प्रति विश्वास भी कम कर दिया है क्योंकि पहले वह कहते रहे कि मैं अडिग हूँ और भले प्राण चले जाएं लेकिन ठोस कदम उठाये जाने तक अनशन नहीं तोडूंगा लेकिन उन्होंने सरकार से मात्र आश्वासन मिलने पर ही अनशन तोड़ दिया। इसका सबसे बड़ा नुकसान यह हुआ कि निकट भविष्य में कोई जनांदोलन नहीं खड़ा हो पायेगा क्योंकि उसे लोगों का समर्थन मिलना मुश्किल हो जायेगा। अन्ना हजारे ने पिछली बार लोगों का जो विश्वास जीता था उसे इस बार वह खुद कम कर गये हैं। फिलहाल तो सरकार को उन्होंने छह महीने का समय दिया है नहीं तो वह फिर अनशन पर बैठेंगे। यानि अन्ना हजारे पार्ट-3 भी होगा।

-नीरज कुमार दुबे

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