बुलेट ट्रेन विरोधियों के हर तर्क का उदाहरण सहित जवाब

Answers of every argument of bullet train opponents including examples
विजय कुमार । Oct 6 2017 12:47PM

पिछले दिनों नरेन्द्र मोदी ने जापान के प्रधानमंत्री शिंजो आबे के साथ मिलकर अमदाबाद में ‘बुलेट रेलगाड़ी योजना’ का शिलान्यास किया। कहा गया है कि पांच साल में ये पटरियों पर चलने लगेगी।

पिछले दिनों नरेन्द्र मोदी ने जापान के प्रधानमंत्री शिंजो आबे के साथ मिलकर अमदाबाद में ‘बुलेट रेलगाड़ी योजना’ का शिलान्यास किया। कहा गया है कि पांच साल में ये पटरियों पर चलने लगेगी। अमदाबाद से मुंबई जाने वाले यात्रियों को इससे बहुत सुविधा होगी। इस प्रकल्प में लगने वाला खरबों रुपया जापान बहुत कम ब्याज पर दे रहा है। इसलिए फिलहाल इस योजना पर भारत का खर्च शून्य है। रेलगाड़ी के साथ जापान इसकी तकनीक भी देगा। इसी प्रकार के अनेक तर्क इसके पक्षधर दे रहे हैं।

दूसरी ओर इसके विरोधी भी हैं। उनका कहना है कि इतने सालों बाद भी हमारी रेलगाड़ियां समय से नहीं चलतीं। हर महीने कोई न कोई दुर्घटना भी हो जाती है। पहले इसे ठीक करना चाहिए। इनमें करोड़ों आम लोग यात्रा करते हैं, जबकि बुलेट रेलगाड़ी में तो पैसे वाले ही चलेंगे। इसलिए बुलेट रेलगाड़ी से कुछ लाभ नहीं होगा। हां, इसका कर्ज आगामी सरकार और जनता को लम्बे समय तक चुकाना होगा। इतने धन से देश के हर चार-छह गांवों के बीच एक अच्छा विद्यालय और चिकित्सालय बन सकता है। इससे गांवों से पलायन रुकेगा और शहरों पर दबाव कम होगा।

थोड़ा गंभीरता से सोचें, तो दोनों पक्षों के तर्क कुछ-कुछ ठीक लगते हैं; लेकिन बुलेट रेलगाड़ी के बारे में विचार करते समय कुछ अन्य संदर्भ समझने होंगे। विकास सम्बन्धी हर काम के समय आधारभूत ढांचे के निर्माण में मोटा खर्च होता है। इस आधार पर कई लोग उसका विरोध भी करते हैं; लेकिन योजना पूरी होने पर पता लगता है कि वह प्रारम्भिक खर्च कितना जरूरी था ?

देहरादून में 30 साल पहले शहर से काफी दूर जौलीग्रांट गांव में एक हवाई अड्डा बना। कई साल तक वहां दिन भर में 40 सीट वाला एक छोटा विमान दिल्ली से आकर आधे घंटे बाद लौट जाता था। कई लोगों ने उसका यह कह कर विरोध किया कि केवल 40-50 लोगों की सुविधा के लिए हुआ करोड़ों रु. का यह खर्च अपव्यय है; पर आज उसी हवाई अड्डे पर हर घंटे विमान आते-जाते हैं। अब उसका और विस्तार हो रहा है, जिससे बड़े विमान भी उतर सकें।

इसी क्रम में मुझे अपने नगर में बनी पानी की सरकारी टंकी याद आती है। उन दिनों हर घर और गली में हत्थू नल थे। इसलिए टंकी बनने पर मुश्किल से सौ घरों ने कनैक्शन लिये। कई लोगों ने लाखों रु. के इस खर्च का विरोध किया; पर आज वहां हर मोहल्ले में टंकी है। 

अर्थात किसी भी आधारभूत निर्माण पर हुए खर्च की उपयोगिता बाद में ही ठीक से पता लगती है। रेल और बस स्टेशन से लेकर स्कूल और कॉलिज तक यह सच है। आज जितने बड़े-बड़े विश्वविद्यालय हैं, उनमें से अधिकांश पाठशालाओं के रूप में ही शुरू हुए थे। देहरादून में महादेवी कन्या पाठशाला को सौ साल से अधिक हो गये। आज वहां पी-एच.डी. तक की पढ़ाई होती है; पर नाम उसका पाठशाला ही है। 

अंतरिक्ष योजनाओं से जहां एक ओर हमारी सुरक्षा मजबूत हुई है, वहां दूसरे देशों के उपग्रह प्रक्षेपित कर हम पैसे भी कमा रहे हैं। 30-40 साल पहले राकेट विज्ञानी डॉ. सतीश धवन या डॉ. कलाम के अलावा इतनी दूर की कौन सोचता था ? तब तो लोग इसे बेकार का खर्च कहते थे। चंद्रमा पर पहला कदम रखने के बाद अमरीकी अंतरिक्ष यात्री नील आर्मस्ट्रांग ने उस छोटे कदम को मानव जाति और विज्ञान के इतिहास में बड़ी छलांग कहा था। उनका यह कथन सनातन सत्य है।

कई बार ऐसी योजनाओं से जो तकनीक मिलती है, उसका अन्य क्षेत्रों में भी उपयोग होता है। द्वितीय विश्व युद्ध में अणु बम ने बहुत विध्वंस किया; पर उस शक्ति से आज दुनिया के अरबों घर जगमगा रहे हैं। इंटरनेट का उपयोग आज मोबाइल फोन से लेकर घर, दुकान, विद्यालय और चिकित्सा तक में हो रहा है। जब भारत में कम्प्यूटर आये, तो यह कहकर उसका विरोध हुआ कि यह करोड़ों नौकरियां खा जाएगा; पर आज कोई कार्यालय इसके बिना नहीं चलता। विज्ञान जगत में ऐसे हजारों उदाहरण हैं। 

अर्थात कोई भी तकनीक बुरी नहीं है; पर उसका उपयोग कहां और किसलिए हो रहा है, यह महत्वपूर्ण है। जिस बारूद से बम बनते हैं, वह पहाड़ में सड़क और पुल निर्माण में भी काम आता है। इसीलिए भारतीय प्राचीन परम्परा में विभिन्न घातक अस्त्र देने से पहले गुरु शिष्य की शारीरिक ही नहीं, मानसिक परीक्षा भी लेते थे। क्योंकि इनकी कोई काट नहीं थी। अतः महाविनाश निश्चित था। ब्रह्मास्त्र, पाशुपतास्त्र आदि ऐसे ही अस्त्र थे।

इसलिए बुलेट रेलगाड़ी का विरोध तो उचित नहीं है; पर इस तकनीक का उपयोग हम अपनी घरेलू रेल व्यवस्था को सुधारने में कैसे कर सकते हैं, इस पर अभी से विचार जरूरी है। क्योंकि भारत का आम आदमी तो अपने गांव और नगर से गुजरने वाली छुक-छुक गाड़ी में ही यात्रा करता है। 

40 साल के बाद प्रायः लोग चश्मा लगाने लगते हैं। कई लोगों के चश्मे ‘बाइफोकल’ होते हैं। अर्थात उनमें पास और दूर वाले दो लैंस होते हैं। व्यक्ति दोनों का ही प्रयोग करता है। इसी तरह देश की योजनाओं में पास और दूर, अर्थात आज और कल, दोनों का सम्यक चिंतन होना चाहिए। बुलेट रेलगाड़ी की योजना ठीक है; पर उसके कारण आम आदमी की रेलगाड़ी न छूट जाए। भविष्य के चक्कर में वर्तमान न बिगड़े, यह देखना भी जरूरी है।

- विजय कुमार

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