उप्र में स्थिति मजबूत करने को हर हथकंडा अपना रही कांग्रेस

अजय कुमार । Jul 19 2016 3:20PM

उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों को देखते हुए कांग्रेस प्रदेश में अपनी स्थिति मजबूत करने के लिये हर हथकंडा अपना रही है। कांग्रेस में आजकल रेवड़ियों की तरह पद बांटने का काम चल रहा है।

उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में अब चंद माह का समय बचा है। यह चंद महीने सभी सियासी दलों के लिये बेहद महत्वपूर्ण हैं। समाजवादी पार्टी और बसपा के बीच पिछले कई विधानसभा चुनावों से बारी−बारी सत्ता का बंदरबांट होता रहा है। किन्तु इस बार 2012 के विधानसभा चुनाव में नंबर तीन रही भाजपा और नंबर चार रही कांग्रेस में भी सत्ता के लिये जर्बदस्त सरगर्मी देखने को मिल रही है। भाजपा अगर जीत का दावा करती है तो इसके पीछे की वजह 2014 के लोकसभा चुनाव हैं, जिसमें पार्टी ने सभी विरोधियों को धूल चटा दी थी, मगर यूपी में हाशिये पर पड़ी कांग्रेस की तेजी देखने लायक है।

कांग्रेस यूपी में अपनी स्थिति मजबूत करने के लिये हर हथकंडा अपना रही है। कांग्रेस में आजकल रेवड़ियों की तरह पद बांटने का काम चल रहा है। प्रियंका गांधी कांग्रेस की स्टार प्रचारक और दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित यूपी में कांग्रेस का सीएम चेहरा होंगी। राज बब्बर को प्रदेश अध्यक्ष की कमान सौंपी गई है। गुलाम नबी आजाद चुनाव प्रभारी बनाये गये हैं। कहा यह जा रहा है कि यूपी के बारे में सारे फैसले राहुल गांधी की सहमति से लिये जा रहे हैं। अगर यह बात सच है तो यह मान कर चलना चाहिए कि राहुल ने साफ−सुथरी राजनीति से तौबा कर ली है। अगर ऐसा न होता तो कम से कम दर्जन भर भ्रष्ट, बदजुबान, आपराधिक और विवादित कांग्रेसी नेता 2017 के विधानसभा चुनाव में लीड रोल में नजर नहीं आते। कभी−कभी तो ऐसा लगता है कि भ्रष्टाचार, बदजुबानी और तमाम विवादों में फंसे कांग्रेसी नेता उसके (कांग्रेस) रणनीतिकार प्रशांत किशोर को 'सोने का अंडा देने वाली मुर्गी' नजर आते होंगे। इसी वजह से नेताओं को रेवड़ियां बांटते समय न तो किसी नेता की विवादित छवि पर गौर किया गया, न ही किसी की सियासी हैसियत का अंदाजा लगाया जा रहा है।

'एक साधे सब सधे' की तर्ज पर आगे बढ़ रहे कांग्रेस के रणनीतिकारों ने ऐसा समां बांध रखा है, मानों प्रदेश की 21 करोड़ जनता अगले वर्ष होने वाले विधानसभा चुनाव में सत्ता की चाबी उन्हीं को सौंपने वाली है। सिर्फ जातीय समीकरणों का ध्यान रखकर आगे बढ़ती कांग्रेस में सबके हिस्से में कुछ न कुछ आ रहा है। जिनको अभी तक 'चुका' हुआ मान कर हाशिये पर डाल दिया गया था, उनकी 'रेवड़ी बाजार' में अच्छी कीमत लग गई। वह नेता जिनका यूपी से कभी दूर−दूर तक कोई लेना−देना नहीं था, वह 27 साल से प्रदेश में वनवास काट रही कांग्रेस को नंबर एक पर ले आने के बड़े−बड़े दावे कर रहे हैं। हर उस चेहरे पर दांव लगाया जा रहा है जिनके सहारे कुछ वोटों का जुगाड़ हो सकता है। दिल्ली की सीएम रहीं और 478 करोड़ के टैंकर घोटाले की अरोपी शीला दीक्षित हों या फिर जम्मू कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री गुलाम नबी आजाद अथवा अभिनेता से नेता बने राज बब्बर या फिर मोदी की बोटी−बोटी काट देने का दम भरने वाले विवादित नेता इमरान मसूद। लिस्ट काफी लम्बी है। इसमें संजय सिंह भी शामिल हैं और प्रमोद तिवारी, पूर्व केन्द्रीय मंत्री सलमान खुर्शीद, श्रीप्रकाश जायसवाल का भी नाम शामिल है। ऐसा लगता है कि कांग्रेस के रणनीतिकारों ने तय कर लिया है कि एक ही घाट पर वह सबको 'पानी' पिलायेंगे।

फिलहाल, किसी को कोई काम नहीं दिया गया है तो वह राहुल गांधी हैं, जो 2009 के लोकसभा, 2012 के विधानसभा, 2014 के लोकसभा चुनाव तक प्रदेश में कांग्रेस को आगे लाने के लिये 'वन मैन आर्मी' की तरह जुझते रहे थे। यह और बात थी कि उन्हें सफलता नहीं मिली। इसीलिये ऐसा प्रतीत होता है कि कांग्रेस का थिंक टैंक राहुल को पीछे छोड़कर आगे बढ़ने को बेताब है। इस बात का अहसास कांग्रेस के होर्डिंग−पोस्टरों में साफ नजर आ रहा है। अचानक से कांग्रेस के होर्डिंग−पोस्टरों में प्रियंका और अन्य नेताओं के मुकाबले राहुल की फोटो का साइज छोटा हो गया है। पोस्टर में लगी फोटो के क्रम में वह इंदिरा गांधी, प्रियंका और सोनिया गांधी के बाद चौथे नंबर पर नजर आ रहे हैं। मगर, यह बात प्रत्यक्ष तौर पर शायद ही कोई स्वीकार करेगा। राहुल को कांग्रेस के शब्दवीरों द्वारा पार्टी का स्टार प्रचारक बताया जायेगा। उनकी ही सरपरस्ती में चुनाव लड़े जाने का दावा किया जायेगा, ऐसा हमेशा से होता रहा है, लेकिन कांग्रेस को बढ़त दिलाने का जिम्मा प्रियंका गांधी, शीला दीक्षित, गुलाम नबी आजाद, राज बब्बर, जैसे नेताओं पर होगी। अगर कांग्रेस के पक्ष में नतीजे आये तो सेहरा गांधी परिवार के बंध जायेगा, नतीजे उलटे आये तो बलि का बकरा बनने के लिये तमाम नेता मौजूद रहेंगे। कौन पार्टी बाजी मारेगी और कौन पिटा मोहरा साबित होगा। यह सब नतीजे आने के बाद पता चलेगा, मगर सियासी गलियारों में चर्चा इस बात की भी हो रही है कि अगर कांग्रेस का चुनाव में रिकार्ड अच्छा रहा तो इसका असर पूरे देश की सियासत पर दिखाई देगा। हो सकता है कांग्रेस में राहुल अध्याय बंद हो जाये और प्रियंका वाड्रा का चेप्टर खुल जाये। निश्चित तौर पर दस जनपथ का ध्यान इस ओर भी होगा। राजनीति संभावनाओं का खेल है, इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है और फिर कांग्रेस का तो इस तरह का इतिहास भी रहा है। राजीव और संजय गांधी के मामले में क्या हुआ किसी से छिपा नहीं है। वैसे भी राहुल गांधी की सियासी समझ पर सवाल उठते रहते हैं। स्वयं कांग्रेसी ही प्रियंका को राहुल से ज्यादा तवज्जो देते हैं। यूपी में नतीजे कांग्रेस के पक्ष में आये तो प्रियंका को बहुत समय तक राष्ट्रीय राजनीति से दूर रखना दस जनपथ के लिये मुश्किल हो जायेगा।

कांग्रेस के रणनीतिकार प्रशांत किशोर भले ही अपनी सियासी चालों से कांग्रेसियों में ऊर्जा भरने की कोशिश कर रहे हों, लेकिन जाने−अनजाने उन्होंने भाजपा को भी हमलावर होने का मौका दे दिया है। भाजपा नेता चुनावी बिसात पर मजबूती के साथ कदम बढ़ाते हुए यूपी में प्रियंका वाड्रा को आगे किये जाने के बहाने राहुल गांधी की योग्यता पर सवाल खड़े कर रहे हैं तो प्रियंका के आगे बढ़ने की खबर आते ही भाजपा ने उनके पति राबर्ट वाड्रा के विवादित जमीन सौदों पर भी अपने सुर तेज कर दिये हैं। शीला दीक्षित के भ्रष्टाचार को उछाला जाने लगा है। दिल्ली का सीएम रहते यूपी वालों को दिल्ली पर बोझ बताने वाले शीला दीक्षित के बयान को सियासी हवा में उछाला जा रहा है तो मोदी के खिलाफ अपशब्द बोलने वाले इमरान मसूद के बहाने हिन्दुओं को कांग्रेस का असली चेहरा दिखाने की भी कोशिश हो रही है। 

भले ही कांग्रेसी कुछ भी कहें लेकिन हकीकत यही है कि कांग्रेस ने हमेशा से वोट बैंक की राजनीति की है, जिसे 2017 के विधानसभा चुनाव में भी वह आगे बढ़ाने जा रही है। अगर शीला दीक्षित को दिल्ली से यूपी लाया गया है तो इसकी वजह प्रदेश के लगभग 14 प्रतिशत ब्राह्मण वोटर हैं। प्रमोद तिवारी को भी इसीलिये तरजीह मिलना शुरू हो गई है। गुलाम नबी आजाद की भी यूपी में इंट्री इसी लिये हुए है क्योंकि कांग्रेस आलाकमान को लगता है कि आजाद और इमरान मसूद जैसे विवादित बोल वाले नेताओं का मुसलमानों में बड़ा प्रभाव है और इनके सहारे वह मुसलमानों के वोट हासिल कर सकती है। मिशन मुस्लिम वोटर को सलमान खुर्शीद, जफर अली नकवी जैसे नेता भी आगे बढ़ायेंगे। नवनियुक्त यूपी कांग्रेस अध्यक्ष राज बब्बर की अभी तक यही पहचान थी कि वह अभिनेता से नेता बने थे, लेकिन अब कांग्रेस के लिये राज बब्बर पिछड़ों को लुभाने वाला एक चेहरा बन गये हैं। संजय सिंह को क्षत्रिय होने के नाते महत्व दिया गया है।

कांग्रेस ने अपने सभी क्षत्रपों को आगे जरूर कर दिया है, परंतु इसका यह मतलब नहीं है कि इससे कांग्रेस की राह आसान हो जायेगी। ब्राह्मण और क्षत्रिय कांग्रेस से दूरी बनाने के बाद भाजपा के करीब आ गया है। मुसलमानों पर समाजवादी पार्टी अपना ठप्पा लगाये रहती है। वैसे, भी मुसलमान का चुनावों में एक ही लक्ष्य होता है, वह उसी प्रत्याशी को जिताने की कोशिश में रहते हैं जो भाजपा को शिकस्त दे सकता है। इस मामले में समाजवादी पार्टी और कुछ हद तक बसपा भी कांग्रेस से ज्यादा बेहतर है। बात पिछड़ों की कि जाये तो यह वर्ग हिस्सों में बटा हुआ है। यादव सपा के साथ खड़े दिखते हैं तो भाजपा इस बार पिछड़ों को लुभाने के लिये शुरू से ही जोर लगाये हुए है। दलित कभी कांग्रेस का मजबूत वोट बैंक हुआ था लेकिन अब परम्परागत रूप से दलितों को बसपा का वोट बैंक माना जाता है। 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा इसमें कुछ हद तक सेंध लगाने में सफल रही थी। इसके बाद से पार्टी लगतार दलितों पर फोकस करके सियासत करती चली आ रही है।

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