सत्ता हरण में कांग्रेस का मुकाबला कोई नहीं कर सकता

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राकेश सैन । May 22 2018 11:38AM

भाजपा को रोकने और अपने राष्ट्रीय अध्यक्ष राहुल गांधी की आंशिक सफलता के लिए तरसती देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी ने सत्ताहरण का रास्ता अपनाया। मतगणना के दौरान ही उसने बिना विधायकों से विमर्श किए जनता दल (ध) को समर्थन दे दिया।

पौराणिक कथा के अनुसार, बंदर की मुखाकृति लेकर देवर्षि नारद राजा शीलनिधी की पुत्री मोहिनी के स्वयंवर में पहुंच गए और तिरस्कर का शिकार हुए। इस बार कर्नाटक विधानसभा चुनाव के रूप में हुए राजनीतिक स्वयंवर में कथा उलट गई दिखी, नारद जी ने मुख किसी सुंदर मित्र का आगे कर दिया व वैभव खुद का और इस तरह सत्तारूपी मोहिनी का वरन के नाम पर मानो हरण करके ले गए। सत्ता स्वयंवर हरण पहली बार हुआ या केवल किसी एक ही दल ने किया हो यह भी अर्धसत्य है परंतु अबकी बार पूरे राजनीतिक प्रकरण पर सर्वोच्च न्यायालय ने जो सक्रिया दिखाई है वह फिर एक बार 'धर्म संस्थापनार्थाय वाली रही।' इससे देश में पैदा की जाने वाली यह भ्रांति भी दूर होती दिखी कि न्यायपालिका दबाव में और भयाक्रांत है।

कर्नाटक विधानसभा चुनाव में वहां की जनता ने जिस तरीके से भाजपा को बहुमत के आसपास 104, कांग्रेस को सत्ताच्युक्त करते हुए 78 और जनता दल (धर्मनिरपेक्ष) को 37 सीटें देकर त्रिशंकु जनादेश दिया उसमें राज्यपाल व न्यायपालिका की भूमिका महत्त्वपूर्ण हो गई। होना तो चाहिए था कि प्रजातांत्रिक शुचिता व जनाकांक्षाओं का सम्मान करते हुए कांग्रेस अपने विरुद्ध मिले इस जनादेश का सम्मान करती और सत्ता की दौड़ से बाहर रहती परंतु येन, क्रेन प्रकारेण भाजपा को रोकने और अपने राष्ट्रीय अध्यक्ष राहुल गांधी की आंशिक सफलता के लिए तरसती देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी ने सत्ताहरण का रास्ता अपनाया। मतगणना के दौरान ही उसने बिना विधायकों से विमर्श किए जनता दल (ध) को समर्थन दे दिया।

संख्या बल का तर्क देने वाले कांग्रेसी भूल गए कि लोकतंत्र केवल अंकगणित की विधा या बनिए का तराजू नहीं बल्कि जनभावना का सम्मान भी है। कांग्रेस ने गोवा, मणिपुर, अरुणाचल में भाजपा द्वारा इन्हीं परिस्थितियों में सरकारें बनाने का तर्क दे कीचड़ से कीचड़ धोने की कोशिश की। सरकारिया आयोग और सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशों के अनुरूप राज्यपाल द्वारा भाजपा विधायक दल के नेता येद्दियुरप्पा को मुख्यमंत्री की शपथ दिलवाई तो कांग्रेस ने आधी रात को अदालत का दरवाजा खटखटाया। चाहे कुछ विधि विशेषज्ञ इसे राज्यपाल के अधिकार क्षेत्र में न्यायालय के हस्तक्षेप का उदाहरण बता सकते हैं परंतु पंच परमेश्वरों ने देश को निराश नहीं किया, पंचों ने नीर-क्षीर विवेक का प्रयोग करते हुए वही किया जो अपेक्षित था अर्थात अदालत 'धर्म संस्थापनार्थाय' के सिद्धांत पर चली। अदालत ने विधानसभा के कार्यकारी अध्यक्ष की नियुक्ति के मामले में हस्तक्षेप नहीं किया और येद्दियुरप्पा के शपथग्रहण को रोकने से इंकार कर दिया तो दूसरी ओर राज्यपाल द्वारा भाजपा को दी बहुमत सिद्ध करने की अवधि 15 दिनों से घटा कर 24 घंटे कर दिया और पूरी प्रक्रिया का सीधा प्रसारण करने के आदेश दे कर स्पष्ट संदेश दिया।

अदालत के इस स्टैंड से साफ संकेत मिला कि वह न तो विपक्ष के दबाव में है और न ही केंद्र में सत्तारूढ़ भाजपा के, जैसा कि आजकल कुछ अपरिपक्व नेता आरोप लगाते नहीं अघाते। दुखद है कि न्यायालय के निर्णयों की भी लाभ-हानि के अनुरूप व्याख्याएं होने लगी हैं। कोई फैसला किसी दल के पक्ष में हो तो उसके लिए न्यायालय निष्पक्ष होता है तो दूसरे के लिए पक्षपाती और फैसला दूसरा हो तो प्रतिक्रियाएं भी बदल जाती हैं। आशा की जानी चाहिए कि लोकतंत्र के तीसरे व मजबूत इस आधार स्तंभ को राजनीति में घसीटने का सिलसिला यहीं रुक जाएगा।

कर्नाटक में मिली या झपटी गई सफलता को कांग्रेस सफलता बताती है तो यह उसकी भूल साबित हो सकती है। इस प्रकरण ने विपक्षी दल की एकता के प्रयासों में उससे परिवार के मुखिया की भूमिका को छीन लिया है। देश के बड़े प्रांतों उत्तर प्रदेश, बंगाल, बिहार, झारखण्ड, तमिलनाडू, जम्मू-कश्मीर में वह चौथे पांचवें स्थान पर, महाराष्ट्र और आंध्र प्रदेश के बाद अब कर्नाटक में वह तीसरे स्थान पर खिसक गई है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की भविष्यवाणी के अनुसार कांग्रेस पीपीपी अर्थात पुड्डूचेरी, पंजाब और परिवार की तो नहीं बनी परंतु जनता दल (ध) के रूप में निगली राजनीतिक मक्खी ने उसे साइबर क्रांति की दृष्टि से सबसे अमीर कर्नाटक राज्य में तीसरे स्थान पर धकेल दिया। उसकी राजनीतिक मोल-भाव की कीमत रसातल पर पहुंच गई। अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव में विपक्षी एकता की बात होगी तो संभव है कि मोदी विरोधी दलों की बैठक दस जनपथ की बजाय किसी और नेता के निवास पर हो।

कर्नाटक चुनाव के बाद लोकतंत्र के पक्ष में कांग्रेस की दलीलें आश्चर्यजनक लगीं। कर्नाटक के राज्यपाल ने सरकारिया आयोग व सर्वोच्च न्यायालय के समय-समय पर मिले निर्देशों का पालन करते हुए ही येद्दियुरप्पा को सरकार बनाने का आमंत्रण दिया जो कि चुनाव पूर्व गठबंधन के नेता के बाद सबसे बड़े दल के नेता को दिया जाता है। लेकिन कांग्रेस ने पूरे जोरशोर से केंद्र सरकार पर राज्यपाल के पद के दुरुपयोग के आरोप मढ़े। येद्दियुरप्पा ने बहुमत साबित होते न देख विधानसभा में अग्नि परीक्षा से पहले ही त्यागपत्र दे दिया। इस तरह से अटल बिहारी वाजपेयी भी 13 दिन प्रधानमंत्री रहते हुए त्यागपत्र दे चुके हैं। यह संवैधानिक प्रक्रिया है इसमें लोकतंत्र की हत्या, राजभवन का दुरुपयोग जैसे आरोपों जैसी बात ही नहीं है।

दूसरों पर आरोप लगाते हुए सोनिया-राहुल की जोड़ी भूल गई कि 1952 में मद्रास प्रेसिडेंसी के चुनाव में कांग्रेस हार गई थी परंतु राज्यपाल ने अल्पमत वाले राजगोपालाचार्य को शपथ दिलाई। हरियाणा के राज्यपाल ने 1982 में बहुमत दल के नेता देवीलाल के बजाय भजनलाल को शपथ दिलाई। 6 दिसंबर, 1992 को अयोध्या घटना के दिन बहुमत प्राप्त मुख्यमंत्री कल्याण सिंह ने त्यागपत्र दिया, लेकिन राज्यपाल ने सरकार बर्खास्त की। अयोध्या के बहाने यूपी के अतिरिक्त तीन राज्यों में भाजपा सरकारों का वध कर दिया गया। 1997 में उत्तर प्रदेश के राज्यपाल ने मुख्यमंत्री कल्याण सिंह को हटाया, जगदंबिका पाल को शपथ दिलाई। पंजाब में भी कांग्रेस व अकाली दल के बीच बड़ी कटुता का कारण विगत में इंदिरा सरकारों द्वारा बार-बार राज्य में सत्तारूढ़ अकाली दल की सरकारों की हत्या ही है। देश का लोकतंत्र अब परिपक्वता की ओर बढ़ रहा है। अदालत के निर्णय बताते हैं कि संवैधानिक संस्थाएं भी मजबूत हुई हैं। इन पर अविश्वास पैदा कर या इनके खिलाफ कांग्रेस या कोई भी राजनीतिक दल न तो खुद का भला करता है और न ही लोकतंत्र या देश का। न्यायालय ने तो 'धर्म संस्थापनार्थाय' का दायित्व निभा दिया और अब राजनीतिक दलों का भी दायित्व बनता है कि वे गीता द्वारा निर्दिष्ट 'साधूनां' बनने का प्रयास करें ताकि न्यायाधीशों को उनके 'परित्राण' पर कभी पछतावा न हो।

-राकेश सैन

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