दलितों का रोष बड़ी चेतावनी, भारत की राजनीति का रंग बदल जाएगा

dalit agitation will be a major warning
तरुण विजय । Apr 7 2018 1:58PM

क्या हिंदू समाज टूटना स्वीकार कर लेगा लेकिन देश और समाज की एकता बचाने के लिए अपने जातिगत अहंकार को नहीं छोड़ेगा? आप देश भर में किसी भी शहर में चले जाइए सबसे ज्यादा उपेक्षित सडांध भरी गंदी बस्तियां दलितों की ही मिलेंगी।

पिछले सप्ताह देश भर में अनायास और बिना व्यवस्थित नेतृत्व के दलित रोष का प्रकटीकरण देश के लिए बहुत बड़ी चेतावनी है। इसे केवल सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अनुसूचित जाति आत्याचार निरोधक अधिनियम पर दिए फैसले के खिलाफ नहीं समझना चाहिए बल्कि यह बहुत समय से विभिन्न कारणों से उबल रहे दलित आक्रोश का विस्फोट था। इसे शुरुआत मानना चाहिए। आने वाले समय में दलित आक्रोश की इससे भयंकर और व्यापक प्रभाव वाली अभिव्यक्तियाँ होंगी तथा यह दलित उबाल भारत की राजनीति का रंग और कलेवर बदल देगा।

दलितों का सीधा सा प्रश्न है कि अनुसूचित जाति अत्याचार निरोधक अधिनियम का दुरूपयोग होता होगा पर दुरुपयोग देश निरोधक कानून एवं स्त्रियों की सुरक्षा संबंधी कानूनों सहित दर्जनों अन्य कानूनों के भी होते हैं। कानूनों में सुधार लाना है तो उसके लिए हम दलित ही मिले थे? वैसे भी इस कानून के अंतर्गत आज तक कितने फैसले हुए हैं और कितने को सजा मिली है, यह पता लगाया जाए तो कहा जा सकता है कि यह कानून मरे हुए दिल से लागू किया जाता है और बेदिल से उस पर कार्यवाही को घसीटा जाता है। 

दलितों पर दमन और अत्याचार हर दिन की आम घटना का हिस्सा बन गये हैं। स्कूलों में अनुसूचित जाति के बच्चों के साथ भेदभाव अब समाचार बनता ही नहीं। जो लोग अहंकारपूर्वक अपनी जाति को बड़ी जाति का कहते हैं, उनकें बच्चे अगर किसी दलित लड़के-लड़की से शादी कर लें तो गला घोंट देते हैं, जान ले लेते हैं। दलितों के पंडित अलग कर देते हैं, कई स्थानों पर उनके शमशान घाट भी अलग हैं। यानि हिंदुओं में इन तथाकथित बड़ी जाति वालों के यमराज अलग और दलितों के यमराज अलग?

उत्तर प्रदेश के जिले कासगंज में एक दलित युवक को घोड़े पर चढ़कर अपनी बारात ले जाने के लिए ठाकुरों ने मना कर दिया। क्यों? किसकी इज्जत ख़राब होती थी? अगर उनके इलाके से मुस्लिम जुलूस निकलता तो क्या ये ठाकुर ऐसी ही दबंगई दिखा सकते थे और डीएम कासगंज मुसलमानों का रास्ता बदलवाते? अच्छा तो यह होता कि दलित की शादी में ठाकुर, ब्राह्मण, वैश्य सब मिल कर शामिल होते, दावत में एक साथ खाते और वर-वधू का आशीर्वाद देते। ऐसा होता तो हिंदू धर्म और समाज मजबूत होता।

यह कितनी विडंबना की बात है कि जिस डीएम को दलित बारात का शान से स्वागत करना चाहिए था, वही दलित दूल्हे से रास्ता बदलने का अनुरोध करने लगा। समाज में बड़े अच्छे लोग भी होंगे, संत स्वभाव के प्रवचनकार भी होंगे, हिंदू धर्म के पुरोधा और रक्षक भी होंगे, वे सब इस अवसर पर क्यों शांत हो गये? कण-कण में राम का दर्शन करेंगे, पत्थर, पहाड़, नदियाँ, पेड़- सबको पूजनीय मानेंगे, सांप को दूध और चींटियों को आटा खिलाएंगे लेकिन मनुष्य तनधारी रामभक्त दलित के साथ छुआछूत और भेदभाव का व्यवहार करेंगे क्योंकि उस दलित में उनको राम के दर्शन नहीं होते।

दलित अब उस जमाने के नहीं हैं जो संकोच करें या लड़ने से डरें। उन्होंने हिन्दू समाज की रक्षा की है। वे प्रथम पंक्ति के धर्मरक्षक हैं। अब वे इस बात से संतुष्ट नहीं होने वाले कि तमाम धर्मशास्त्रों को उद्धृत करते हुए कहा जाये कि हमारे शास्त्रों में तो इस अस्पृश्यता का तो कोई विधान ही नहीं है। ठीक है लिखा होगा। लेकिन जमीन पर जो व्यव्हार दिखता है वह उस लिखे हुए के विपरीत ही है। तो फिर कहा से संतोष किया जाये।

दलितों के इस आक्रोश का भारत को तोड़ने तथा समाज को खंडित करने में लगे हुए इस्लामिक, ईसाई, तथा कम्युनिस्ट तत्व उपयोग करते हैं। वे दलितों से कहते हैं कि तुम पर अन्याय और अत्याचार तभी तक होते हैं जब तक आप स्वयं को हिन्दू कहते हो। क्या बड़ी जाति वाले हिन्दू अन्य धर्मावलंबियों के साथ ऐसा व्यवहार कर सकते हैं? जेएनयू और आईआईटी चेन्नई में दलित छात्रों के साथ बीफ पार्टियों का आयोजन इन्हीं जेहादी और कम्युनिस्ट तत्वों ने किया था। क्या हिंदू समाज टूटना स्वीकार कर लेगा लेकिन देश और समाज की एकता बचाने के लिए अपने जातिगत अहंकार को नहीं छोड़ेगा?

आप देश भर में किसी भी शहर में चले जाइए सबसे ज्यादा उपेक्षित सडांध भरी गंदी बस्तियां दलितों की ही मिलेंगी। क्यों? वहां पानी, बिजली, सड़क, सफाई की व्यवस्था न के बराबर होती है। देहरादून में भी नाले के पास वाल्मीकि बस्ती है तो मदुरई में हवाई अड्डे के पास जो नाला है वहां पर हजारों दलित रहते हैं। सामान्य मनुष्य के नाते भी उन्हें जीवन की सुविधाएं नहीं दी जातीं।

हम भूल गए हैं कि हिंदुओं के इसी व्यवहार के कारण बाबा साहेब अंबेडकर ने हिंदू धर्म की तिलांजलि देकर बौद्ध मत स्वीकार किया था। पंजाब में गिन्नी माही एक युवा दलित गायिका है, उम्र होगी 21-22 साल। उसका गीत डेंजर चमार बहुत लोकप्रिय हुआ। मैं चमार हूं और मैं हिंदू हूं और इसका मुझे गर्व है, यह बात दलित युवाओं में स्वाभिमान के साथ कही जाती है। जो अपने हिंदू होने में इतना गौरव रखते हैं उनके प्रति शेष हिंदू समाज का व्यवहार बदलना ही होगा। वरना खतरनाक परिणाम होंगे। वर्तमान दलित उभार राष्ट्रीय राजनीति को जाति के पाखंड एवं बड़ी जाति का अहंकार रखने वाले लोगों के शिकंजे को तोड़ एक नई रोशनी लाएगा, इसमें कोई संदेह नहीं है।

-तरुण विजय

We're now on WhatsApp. Click to join.
All the updates here:

अन्य न्यूज़