विद्यार्थियों के लिए विषय चुनने की स्वतन्त्रता प्राइमरी कक्षाओं से होनी चाहिए

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विद्यार्थियों के लिए विषय चुनने की स्वतन्त्रता प्राइमरी कक्षाओं से होनी चाहिए। बच्चों की नैसर्गिक प्रतिभा को विकसित करने के लिए छुट्टियों में या नियमित होम वर्क की जगह ऐसे प्रोजेक्ट देने चाहिए जो बच्चे खुद अपने बूते पर कर सकें।

कई बरस पहले की बात है मेरा स्थानांतरण गाँव से शहर में हुआ। हम बच्चों को, देश की प्रतिष्ठित संस्था जिसके स्कूल और कालेजों की लंबी श्रृंखला है, में दाखिले हेतु ले गए। एक ही संस्था के स्कूलों की वजह से सरकारी कर्मचारियों को तबादले के बाद बच्चों की शिक्षा की चिंता थोड़ी कम हो जाती है। दाखिले की कार्रवाई के बाद प्रिंसिपल ने मेरी पत्नी से कहा मैडम आप स्कूल जॉइन कर लीजिए। मुझे हैरानी हुई बिना ज़्यादा बातचीत किए यह जाने कि मेरी पत्नी की शैक्षिक योग्यता क्या है। लेकिन मेरी पत्नी ने देर नहीं की यह सोच कर कि बच्चों का ध्यान रखा जाएगा और घर से निकलूँगी तो व्यक्तित्व विकास हो जाएगा। नर्सरी क्लास दी गई जिसके बच्चों को वास्तव में उन्होंने बहुत स्नेह से रखा, बच्चे उन्हें प्यार से ‘उत्सुक’ मैडम की जगह ‘दुखसुख’ मैडम कहते थे। बाद में मेरा स्थानांतरण एक शहर में हुआ, पत्नी को वहाँ भी जॉब मिल सकती थी लेकिन उन्होंने नौकरी नहीं परिवार को प्राथमिकता दी। जितनी आमदनी रही उसी में संयम से गुज़ारा किया।

अब शिक्षा क्षेत्र में नौकरी भी अन्य क्षेत्रों की तरह ही की जाती है। शिक्षा क्षेत्र एक राष्ट्रीय फैक्ट्री है जहां पैसा लेकर विद्यार्थी को प्रमाण पत्र मिलता है ताकि उसे आधार बनाकर नौकरी मिल सके। घर, गली, गाँव शहर में इस फैक्ट्री के यूनिट्स लगे हुए हैं। समझदार व्यवसायियों द्वारा खोले अच्छे कोचिंग संस्थानों ने बहुत सहयोग किया है। आज होशियार माता-पिता बच्चों को निजी स्कूलों में डमी प्रवेश दिलाते हैं जिन्हें कोचिंग सेंटर में घोड़ा बना दिया जाता है जिनका उद्देश्य कैट, जेईई, नीट जैसी प्रतियोगिता जीतना होता है। वास्तविक स्थिति का सही आकलन किया जाए तो देश के निजी संस्थानों में शिक्षा के स्तर की वास्तविक दौड़ है। सम्पन्न अभिभावकों के बच्चे इन प्रांगणों के सपने बचपन से लेने लगते हैं जो उनके कैरियर के लिए लांच पैड बनते हैं।

कुछ सरकारी स्कूल व कालेजों ने अच्छा नाम कमाया है। यहां कुछ अध्यापक अपनी निजी प्रवृति, व्यवसायिक ईमानदारी व प्रतिबद्धता के कारण स्कूलों को शिक्षा का मंदिर बनाए रहते हैं। उनकी प्रेरणा से कुछ बच्चे जिनके खून में मेहनत के कीटाणु हैं सफल होते हैं। अधिकांश सरकारी स्कूल काम चलाऊ हैं जहां सरकारी अध्यापक अपने गृहक्षेत्र में आरामदायक पोस्टिंग में नौकरी बिताते हैं। सरकारी शिक्षा क्षेत्र में, स्थानांतरण का सिफ़ारिश व आर्थिक रूप से विकसित स्थायी तंत्र है जिसमें सम्बद्ध स्टाफ, नेता व मंत्री उलझे रहते हैं। हर सरकार अपने कार्यकाल में सरकारी स्कूलों का क्षैक्षिक स्तर सुधारने के लिए अव्यवहारिक योजनाएँ लाती है मगर कुछ खास होता नहीं। जिन शिक्षकों पर यह ज़िम्मेदारी है उन्हें ज़्यादा चिंता नहीं रहती क्यूंकि उनके अपने बच्चे तो वहां पढ़ ही नहीं रहे होते। यह अचरज नहीं राष्ट्रीय त्रासदी है कि सरकारी स्कूलों के अध्यापकों के अधिकांश बच्चे प्राइवेट स्कूलों में ही पढ़ते हैं।

बच्चे बड़े होकर कुछ बन जाएँ तभी तो माता पिता दोनों नौकरी कर रहे होते हैं। अब नौकरी से कोई भावनात्मक स्तर पर नहीं जुड़ता, नौकरी अब सिर्फ आय बढ़ाने के लिए है। सम्पन्न व पढ़े लिखे अभिभावकों द्वारा अपनी संतान को किसी भी कीमत पर सफल करने की प्रवृति पूरी तरह से पनप चुकी है। जो बच्चे सफल होते हैं उनमें माता पिता की प्लानिंग व बच्चे की मेहनत शामिल होती है। ऐसे बच्चे भी आगे चलकर स्वार्थ के आधार पर दुनिया रचाते हैं सामाजिकता या सामूहिकता के आधार पर नहीं वह चाहे आईएएस हो, डॉक्टर या इंजीनियर। इस बात के पड़ोस में यह विश्वास टूट जाता है कि शिक्षक न सिर्फ विद्यार्थियों के भविष्य का बल्कि भविष्य के समाज का निर्माण करता है।

शिक्षा पद्धति में बदलाव की बात की जाए तो बच्चे सिर्फ शिक्षित हो रहे हैं। इस शिक्षा पद्धति से बच्चों के जीवन से संवेदनशीलता, सामाजिक चेतना, सदव्यवहार, दया व सहयोग जैसे संस्कार खत्म हो चुके हैं। क्या यह मानव जीवन अच्छे से जीने के लिए ज़रूरी हैं ? आत्मिक विकास व मूल्य आधारित शिक्षा ज़रूरी है। मार्क्स की जानलेवा होड खत्म होनी चाहिए। विद्यार्थियों के लिए विषय चुनने की स्वतन्त्रता प्राइमरी कक्षाओं से होनी चाहिए। अधिकांश बच्चों के लिए मैथ्स, फिजिक्स या इतिहास की क्या प्रासंगिकता है। बच्चों की नैसर्गिक प्रतिभा को विकसित करने के लिए छुट्टियों में या नियमित होम वर्क की जगह ऐसे प्रोजेक्ट देने चाहिए जो बच्चे खुद अपने बूते पर कर सकें। उनके पसंद के क्षेत्र और चीजों का विश्लेषण करने की काबलियत विकसित होनी ज़रूरी है। अच्छे शिक्षाविद कहते हैं कि तथ्य और ज्ञान आधारित पाठ्यक्रम किताबों से हटाना चाहिए। यह काम विद्यार्थियों को स्वयं करने के लिए प्रेरित करना चाहिए। नियमित किसी गतिविधि या टास्क से जुड़ें तो बच्चों में सृजन का गुण विकसित होगा। इंटेग्रेटिड कोचिंग बंद होनी चाहिए। दिलचस्पी खोजकर शुरू से वैसी शिक्षा दी जानी चाहिए। ऐसे गैजेट्स व अन्य तकनीकी साधनों का उपयोग बंद होना चाहिए जो बच्चों को दिमागी व शारीरिक स्तर पर कुप्रभावित कर रहे हैं।

हैरानी है कि नर्सरी के बच्चों को भी उनके माता-पिता होमवर्क करवाने के बहाने टयूशन लेने भेजते हैं, अभ्यस्त बच्चे बड़े होकर दिन में चार चार ट्यूशन खाते हैं। अध्यापक क्या सिखा रहे हैं क्या उन्हें सही व अपटूडेट जानकारी है। अनेक संस्थानों में अध्यापकों की तनख़्वाह भी सम्मानजनक नहीं है। बस्तों का बोझ कम होना भी लाज़मी है। शिक्षा नौकरी के लिए दी जा रही है और नौकरियां हैं नहीं तभी तो चपरासी के लिए एमबीए जाते हैं। शिक्षक के बच्चे शिक्षक नहीं बनना चाहते हैं। सभी कार्य महत्वपूर्ण और ज़रूरी हैं, कोई कार्य छोटा नहीं यह सोच शिक्षा के माध्यम से विकसित की जानी चाहिए। हर बार की तरह यह शिक्षक दिवस भी मना लिया जाएगा जैसे हम हिन्दी दिवस मनाते हैं। असली मुद्दे गौण ही रह जाएंगे, क्योंकि बाज़ार से पंगा लेने की हिम्मत किसी में नहीं। 

-संतोष उत्सुक

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