उपद्रव मचा कर हक माँगने वालों इस नुकसान की भरपाई कौन करेगा?
अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम को कथित तौर पर शिथिल किए जाने के विरोध में दलित संगठनों के राष्ट्रव्यापी बंद के दौरान जिस तरह का तांडव देश के विभिन्न हिस्सों में देखने को मिला उससे कई सवाल उठ खड़े होते हैं।
अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम को कथित तौर पर शिथिल किए जाने के विरोध में दलित संगठनों के राष्ट्रव्यापी बंद के दौरान जिस तरह का तांडव देश के विभिन्न हिस्सों में देखने को मिला उससे कई सवाल उठ खड़े होते हैं। सबसे पहला सवाल तो यही है कि अपने अधिकारों की रक्षा की खातिर आवाज उठाने के लिए क्या दूसरों के अधिकारों की बलि चढ़ा देनी चाहिए? जिस तरह से सड़कों पर उपद्रव मचाया गया, सार्वजनिक सम्पत्ति को नुकसान पहुँचाया गया, ट्रेनों और बसों पर पथराव किया गया, पुलिस चौकियां फूंक डाली गयीं, दुकानों में तोड़फोड़ की गयी, 9 लोगों की हिंसा में और दो लोगों की ट्रैफिक जाम में फंसने से मौत हो गयी उसकी जिम्मेदारी किसकी है?
उच्चतम न्यायालय का जो फैसला आया था उस पर पुनर्विचार के लिए केंद्र सरकार ने याचिका दायर की है। उच्चतम न्यायालय ने तीन दिनों में सभी पक्षों से जवाब मांगा है लेकिन फौरन अपना आदेश पलटने से इंकार कर दिया है। अब मामले की सुनवाई 11 अप्रैल को होगी। यानि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के कथित उत्पीड़न के मामलों में स्वत: गिरफ्तारी और मामले दर्ज किए जाने पर रोक अभी बरकरार रहेगी।
नुकसान की भरपाई कौन करेगा?
मान लीजिये कोर्ट अपना ही फैसला पलट कर उक्त वर्ग को राहत दे देता है तो क्या यह वर्ग हिंसा से हुई क्षति की भरपाई करेगा? क्या जिन लोगों की मौत हो गयी है उनकी जिंदगी वापस लाई जा सकती है? क्या 100 ट्रेनों का जो परिचालन प्रभावित हुआ उससे हुई यात्रियों की परेशानी, रेलवे को हुए नुकसान की भरपाई की जा सकती है? करदाताओं के पैसे से खरीदी गयी सरकारी बसों, पुलिस जीपों को फूंक तो बड़ी आसानी से दिया गया लेकिन अब इनकी भरपाई कौन करेगा? पंजाब में सीबीएसई परीक्षाएं स्थगित कर दी गईं जिससे छात्रों को हुई परेशानी को कौन दूर करेगा? देश में कई स्थानों पर कर्फ्यू लागू करने की नौबत आ गयी इससे हुई परेशानी का जिम्मेदार कौन है?
क्या यह बंद सुप्रीम कोर्ट की अवमानना नहीं?
कुछ राजनीतिक सवाल भी इस बंद के दौरान हुई हिंसा को देखते हुए उपजे हैं। मसलन क्यों सिर्फ भाजपा शासित राज्यों- मध्य प्रदेश और राजस्थान में सर्वाधिक हिंसा हुई? इन दोनों राज्यों में इसी वर्ष विधानसभा चुनाव होने हैं तो क्या कोई राजनीतिक साजिश थी? क्यों सिर्फ हमारे नेता उक्त वर्ग के अधिकारों पर बोले लेकिन हिंसा के लिए निंदा तक नहीं की? सवाल यह भी है कि उच्चतम न्यायालय का जो फैसला आया है उसके खिलाफ बंद बुलाना क्या न्यायालय की अवमानना नहीं है? न्यायालय के किसी फैसले का विरोध उसे चुनौती देकर देने की व्यवस्था संविधान में पहले ही है। सरकारें निरंकुश हो सकती हैं, लेकिन अदालतें नहीं। अदालतों की वजह से ही आम आदमी का हर अधिकार सुरक्षित है। यदि सरकार एससी/एसटी संबंधी फैसले के खिलाफ पुनर्विचार याचिका दायर नहीं भी करती तो भी आम लोगों और संगठनों के पास तो अदालत जाने का अधिकार था ही। ऐसे में आखिर क्या जरूरत पड़ गयी भारत बंद आयोजित करने की और सड़कों पर कोहराम मचाने की?
प्रदर्शन राजनीतिक साजिश तो नहीं?
केंद्र सरकार ने अदालत का फैसला आने के मात्र छह दिन के अंदर ही पुनर्विचार याचिका दायर कर दी और इससे पहले ही लोक जनशक्ति पार्टी तथा अन्य कई संगठन अदालत की शरण में पहुँच चुके थे ऐसे में इंतजार किया जाना चाहिए था अदालत के फैसले का। लेकिन मात्र अफवाहों के आधार पर ही लोगों को गोलबंद कर दिया गया। यह बात फैलाई गई कि यह सब आरक्षण खत्म करने की तैयारी है। यही नहीं जो प्रदर्शनकारी सड़कों पर उतर रहे थे उन्हें भी अधूरा ज्ञान था और वह यही कहते दिखे कि हमारा यह प्रदर्शन आरक्षण खत्म करने के खिलाफ है। साफ है कि लोगों को बरगलाया गया और आंदोलन के लिए इकट्ठा किया गया। इस काम में सोशल मीडिया का खूब सहारा लिया गया। कुछ विचारकों ने सवाल भी उठाया है कि कहीं 2019 के चुनावों से पहले यह देश को गृहयुद्ध में झोंकने की तैयारी तो नहीं है?
प्रशासन से चूक कहाँ हुई?
इस मामले में प्रशासन की भी बड़ी चूकी रही। पहली बात तो हमारी सरकारें और उनका गुप्तचर विभाग इस बात का ही पता नहीं लगा पाये कि आंदोलन के लिए क्या-क्या रणनीति बनाई जा रही हैं। पुलिस को चकमा देने के लिए प्रदर्शनकारियों ने कई सारे छोटे-छोटे गुट बनाये और हिंसा को अंजाम दिया। ऐसे में पुलिस के लिए सभी जगह हालात संभालना मुश्किल हो गया। अराजक तत्त्व ऐसे मौकों की ताक में रहते ही हैं सो उन्होंने भी हिंसा में अपना योगदान दिया।
राजनीति पर क्या असर पड़ेगा?
पिछले लोकसभा चुनावों में दलित वर्ग भाजपा के साथ जुड़ा क्योंकि कई बड़े दलित नेता रामविलास पासवान, रामदास अठावले और उदित राज राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के साथ आ गये थे। यही नहीं उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में भी दलित वर्ग ने भाजपा का साथ दिया। इस साथ को और मजबूत करने के लिए भाजपा ने दलित समाज से आने वाले श्री रामनाथ कोविंद को देश का राष्ट्रपति बनवा दिया। जाहिर है दलितों का भाजपा को समर्थन विपक्ष को रास नहीं आ रहा और पिछले साल भर में ऐसे कई वाकये हुए हैं जिनसे साफ लगता है कि दलितों को भाजपा से छिटकाने का प्रयास किया जा रहा है। सहारनपुर हिंसा का मामला हो या गुजरात में दलितों के उत्पीड़न की घटना हो या फिर अब अदालती फैसले के विरोध में हुई हिंसा। यह बात फैलायी गयी कि आरएसएस और भाजपा आरक्षण खत्म कराने की साजिश कर रहे हैं और इस दिशा में यह पहला कदम है। भाजपा ने इसका प्रतिवाद किया लेकिन विपक्ष के शोर में उसकी आवाज दबकर रह गयी। हालांकि सरकार ने अदालत से अपने फैसले पर पुनर्विचार की अपील की है लेकिन दलितों के मन में भाजपा के प्रति शंका बैठाने की रणनीति काफी हद तक सफल होती दिख रही है। यही कारण है कि बंद के दिन संघ को भी प्रेस विज्ञप्ति जारी कर एक बार फिर यह साफ करना पड़ा कि वह आरक्षण के खिलाफ नहीं है।
कांग्रेस ने इस मुद्दे पर जिस तरह अपने तीखे तेवर दिखाये हैं उससे साफ है कि वह इस मुद्दे पर फौरी लाभ कर्नाटक विधानसभा चुनावों में लेना चाहती है। बसपा का इस मुद्दे पर विरोध समझ में आता है लेकिन कांग्रेस को समझना चाहिए कि वह राष्ट्रीय दल है जिस पर आज नहीं तो कल फिर से सत्ता संभालने की जिम्मेदारी आनी ही है। आज वह जिस मुद्दे पर सरकार को घेर कर आनंद ले रही है वह कल को उसके गले की भी फांस बन सकता है।
-नीरज कुमार दुबे
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