कश्मीर की नियति बन गई है हिंसा और प्रतिहिंसा
कश्मीरी जनता यदि हिंसा पर उतारू होगी तो उसे प्रतिहिंसा के लिए तैयार रहना होगा। पिछले सप्ताह कश्मीर में यही हुआ है। हिंसा और प्रतिहिंसा, यह कश्मीर की नियति बन गई है।
जैसा हमेशा होता आया है, वैसा ही अब भी हो रहा है। बुरहान वानी की मौत के बाद हिंसा भड़की। लगभग 40 लोग मारे गए, 1400 घायल हो गए। कर्फ्यू लग गया। हालात काबू में आ गए। बयानबाजी बंद हो गई। अखबारों के मुखपृष्ठों से खिसककर कश्मीर अंदर के पन्नों पर चला गया। टीवी चैनलों के लिए कई ताज़े मुद्दे उभर आए। बात आई गई हो गई। कश्मीर में चलने वाली दोतरफा हिंसा इतनी लंबी और उबाऊ हो गई है कि लोग अब उसकी खास परवाह भी नहीं करते। वे यह मानने लगे हैं कि मुठभेड़ें और खून-खच्चर अब कश्मीर में रोजमर्रा का शगल बन गया है। न सरकार को कोई रास्ता सूझ रहा है और न ही कश्मीर के अलगाववादियों को! दोनों ही एक अंधी और अनंत सुरंग में प्रवेश कर गए हैं।
मुफ्ती साहब और महबूबा मुफ्ती ने जब भाजपा के साथ मिलकर जम्मू-कश्मीर में सरकार कायम की तो आशा जगी थी कि हिंसा घटेगी और कश्मीर पर कोई राह निकलेगी। महबूबा ने विधानसभा में जो बयान दिए, उनसे यह आशा बलवती हुई थी लेकिन दो साल खाली निकल गए, केंद्र सरकार ने क्या किया? उसने करोड़ों-अरबों रु. देने की घोषणा की। विकास के कई नए आयाम खोले लेकिन यह ऐसा ही है कि जैसे किसी का पांव टूट जाए तो उसकी हड्डी जुड़वाने की बजाय उसे आप काजू-किशमिश खिलाने लगें। असली सवाल यह है कि कश्मीर के भारत-विरोधी रवैए से निपटने के लिए आपने क्या किया?
पुलिस और फौज कश्मीर की हिंसा को कब तक दबाती रहेगी? वह थोड़े दिन दबेगी। फिर मौका पाते ही भड़क उठेगी। फौज जितनी मुश्किलों में कश्मीर में डटी रहती है, उसकी कल्पना करना भी कठिन है। फौजियों के पास वाहन हैं, हथियार हैं। उनसे ज्यादती भी हो सकती है लेकिन पुलिस तो कश्मीरी ही है। कश्मीर के 83 हजार जवान चप्पे-चप्पे में तैनात हैं। आखिर ये कश्मीरी पुलिस वाले भी अपने कश्मीरी भाई-बहनों पर गोलियां क्यों चलाते हैं? यह सरकारी हिंसी इसीलिए होती है कि यह जवाबी हिंसा है। यदि बेकाबू भीड़ थाना लूटती है, हथियार छीनती है, पत्थर बरसाती है, बम फोड़ती है, आगजनी करती है, पुलिसवालों को नदी में धकेल देती है तो आप फिर पुलिस और फौज से क्या उम्मीद करते हैं? यह ठीक है कि बुरहान वानी की मौत हो या अफजल गुरु को फांसी हो तो कश्मीरी जनता को गुस्सा आएगा और उसे वह प्रकट करेगी लेकिन उसे यह तय करना चाहिए कि वह उसे कैसे प्रकट करेगी? यदि वह हिंसा पर उतारू होगी तो उसे प्रतिहिंसा के लिए तैयार रहना होगा। पिछले सप्ताह कश्मीर में यही हुआ है। हिंसा और प्रतिहिंसा, यह कश्मीर की नियति बन गई है।
लेकिन क्या यही कश्मीर की समस्या का समाधान है? नहीं, बिल्कुल नहीं। यदि कश्मीर के अलगाववादी यह सोचते हैं कि वे आतंक और हिंसा के जरिए कश्मीर को भारत से अलग कर सकते हैं तो मैं कहूंगा कि वे बहुत बड़ी गलतफहमी में जी रहे हैं। क्या उन्हें पता नहीं है कि उनके पास हिंसा की जितनी ताकत है, उससे हजार गुना ताकत भारत के पास है। वे उसका मुकाबला कैसे कर पाएंगे? अगर उन्हें पाकिस्तान की मदद का भरोसा है तो उन्हें क्या मैं यह याद दिलाऊं कि पाकिस्तान सारे पैंतरे आजमा चुका है। वह घुसपैठिया मुठभेड़ कर चुका है, सीधा युद्ध कर चुका है, महाशक्तियों के तलवे चाट चुका है, आतंकी भेज चुका है, संयुक्त राष्ट्र संघ में छाती कूट चुका है। अब उसके पास कोरी बयानबाजी के अलावा कोई रास्ता नहीं बचा है। वह कश्मीर को ढोते-ढोते थक चुका है। उसके बलूच, उसके सिंधियों, उसके पठानों और उसके अपने आतंकवादियों ने उसकी नाक में दम कर रखा है। जिस कश्मीर पर उसने कब्जा कर रखा है, उसके कश्मीरी भी उसके साथ नहीं रहना चाहते हैं। इसीलिए उस कश्मीर को वह ‘आजाद कश्मीर’ कहता है। उसके मुख्यमंत्री को वह ‘प्रधानमंत्री’ कहता है। इन ‘प्रधानमंत्रियों’ में से कई ने मुझे कहा है कि उनकी हैसियत नगरपालिका-अध्यक्ष की भी नहीं है। ऐसे पाकिस्तान के दम पर हमारे कश्मीर के अलगाववादी कब तक मासूमों का खून बहवाते रहेंगे? वे हजार साल तक लड़ते रहेंगे तो भी वे सफल नहीं हो सकते। क्या वे नगालैंड, मिजोरम और खालिस्तानी आंदोलनों से कोई सबक लेना चाहेंगे? इन सब हिंसक आंदोलनों को चीन और पाकिस्तान की सक्रिय मदद मिलती रही लेकिन वे ठप्प हो गए या नहीं? पाकिस्तान के फौजी रणनीतिकार यह समझे बैठे हैं कि जैसे बांग्लादेश उनसे अलग हो गया, वैसे ही कश्मीर को भी भारत से अलग किया जा सकता है। रावलपिंडी की कई बैठकों में मैंने उन्हें समझाया कि एक तो भारत पाकिस्तान नहीं है और दूसरा कश्मीर पूर्वी पाकिस्तान नहीं है। यह तुलना ही गलत है। जहां तक जनमत-संग्रह का सवाल है, उसे संयुक्त राष्ट्र ने ही झटक दिया है लेकिन आप उसी पर जोर देते हैं तो आप पहले अपना कश्मीर खाली करें और वहां जनमत-संग्रह करवाएं।
न पाकिस्तान जनमत-संग्रह करवाएगा और न ही भारत! न कश्मीरी भीड़ कभी अहिंसक होगी और न ही भारतीय फौज! तो क्या किया जाए? इस बंद गली में से जो रास्ता मुझे सूझता है, वह यह है। यदि दोनों कश्मीरों के लोग सच्ची आजादी और शांति चाहते हैं तो सबसे पहले वे हिंसा और आतंक का रास्ता छोड़ें। दूसरा, वे आजादी जरूर मांगें लेकिन अलगाव की बात बंद करें। दोनों कश्मीरों के नागरिक वैसे ही आजाद रहें, जैसे दिल्ली और लाहौर के नागरिक हैं। प्र.मं. नरसिंहराव ने लाल किले से कहा था कि स्वायत्तता (आजादी) आकाश तक असीम है। तीसरा, दोनों कश्मीरों को एक करें। भारत और पाक के बीच वे खाई नहीं, पुल बनें। क्या महबूबा मुफ्ती, उमर अब्दुल्ला या हुर्रियत के नेता ऐसी कोई पहल कर सकते हैं?
हमारी सरकार से भी मुझे कुछ कहना है। वह सिर्फ गोली के सहारे न रहे। बोली का सहारा भी ले। वह हुर्रियतवालों, पाकिस्तानपरस्तों, गुस्साए कश्मीरियों और आतंकियों से भी सीधी बात करे। पाकिस्तान की फौज और सरकार से भी कश्मीर पर डटकर संवाद करे। वह आगे होकर कश्मीर का मुद्दा उठाए। कतराए नहीं। कश्मीर के मुद्दे पर भारत पीड़ित पक्ष है। यदि भारत इस मुद्दे पर पहल नहीं करेंगा तो कौन करेगा? क्या यह कम आश्चर्य की बात नहीं है कि कश्मीर का मुद्दा हमेशा पाकिस्तान आगे होकर उठाता है और भारत बगले झांकता है? कश्मीर के सवाल पर भारत का पक्ष बेहद मजबूत है लेकिन भारत की लगभग सभी सरकारें दब्बूपन का परिचय देती रही हैं। यदि दोनों कश्मीरों, भारत और पाकिस्तान में सीधी बात हो तो हल जल्दी निकलेगा। यदि बात ज्यादा चलेगी तो लात कम चलेगी। यह सिद्ध हुआ मनमोहन-सरकार के जमाने में। यदि जनरल मुशर्रफ साल-दो साल और टिके रहते तो शायद 4 सूत्री समझौते में से कश्मीर का हल निकल आता। हल तो नहीं निकला लेकिन हिंसा घटी जरूर।
(लेखक, भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष हैं)
अन्य न्यूज़