नई दिल्ली जो ऑफर करता है कश्मीरी नेता उससे ज्यादा चाहते हैं

Kashmiri leaders want more than that what New Delhi offers

कश्मीरी नेता उससे ज्यादा चाहते थे जितना नई दिल्ली उन्हें आफर करता था। सहमति का कोई बिंदु नहीं था। वार्ताओं में समस्याओं के सारे पहलुओं को शामिल किया गया था। लेकिन दोनों पक्षों में इतनी दूरी थी कि संवाद ज्यादा आगे नहीं जा सका।

भारत सरकार ने इंटेलिजेंस ब्यूरो के पूर्व प्रमुख दिनेश्वर शर्मा को कश्मीर समस्या का हल निकालने के लिए वार्ताकार नियुक्त किया है। इस तरह की कवायद पहली बार नहीं हो रही है। नई दिल्ली के पास पहले भी वार्ताकार रहे हैं। फिर, अधिकारियों की जगह मंत्रियों की नियुक्ति भी की गई ताकि मामले को महत्व और तवज्जो मिले। लेकिन इन कवायदों से कुछ भी नहीं निकला। 

कश्मीरी नेता उससे ज्यादा चाहते थे जितना नई दिल्ली उन्हें आफर करता था। सहमति का कोई बिंदु नहीं था। वार्ताओं में समस्याओं के सारे पहलुओं को शामिल किया गया था। लेकिन दोनों पक्षों में इतनी दूरी थी कि संवाद ज्यादा आगे नहीं जा सका। कश्मीरी घाटी को स्वतंत्र इस्लामिक गणतंत्र में बदलना चाहते हैं। यह ऐसी चीज है जिसे भारत नहीं दे सकता है क्योंकि वह उसे विवादित क्षेत्र नहीं मानता। वह उसे भारतीय संघ का हिस्सा मानता है। मैंने वार्ताकार के रूप में कई बार कश्मीर की यात्रा की है, लेकिन उनकी इच्छा के करीब पहुंचने वाला कुछ आफर नहीं कर पाया।  

मुझे जिस दिन से निराश किया है वह है बीच के रास्ते का अभाव जो कुछ साल पहले तक दिखाई देता था। विचारों में इतनी कठोरता आई है कि मुसलमानों और हिंदुओं के बीच सामाजिक संपर्क तोड़ दिया गया है। एक व्यक्तिगत उदाहरण लाने के लिए मुझे अफसोस है। अतीत में, यासिन मलिक मुझे रात के खाने पर बुलाते थे और गलियों में अगुवाई कर मुझे अपने घर ले जाते थे। सच है कि वह 'अलगाववादी' हो गए हैं। लेकिन मैंने बेकार में उनके बुलावे का इंतजार किया। मुझे विश्वास नहीं होता कि श्रीनगर में मेरी उपस्थिति का उन्हें पता नहीं था। जम्मू−कश्मीर लिबरेशन फ्रंट, जिसके वह मुखिया हैं, ने यह जानने के लिए हवाई अड्डे पर अपने आदमी तैनात कर रखे हैं कि भारत या दूसरी जगहों से कौन लोग आते हैं। यासिन मलिक को 'अलगाववादियों' की ओर से जानकारी मिलती है।  

मैंने यासिन का आमरण−अनशन इस शर्त पर तुड़वाया था कि कश्मीर में मानवाधिकारों के उल्लघंनों की खुद जांच करूंगा। वह एमनेस्टी इटंरनेशनल की जगह मेरी देखरेख में जांच के लिए तैयार हो गए। हम ने एक रिपोर्ट तैयार की और यासिन के ज्यादातर आरोपों को सही पाया। पाकिस्तान ने इस रिपोर्ट का काफी उल्लेख किया और भारत सरकार को शर्मिंदगी झलेनी पड़ी।

सच है, यासिन कहता है कि वह भारतीय नहीं है। लेकिन हमारे संबंध राष्ट्रीयता पर आधारित नहीं थे। क्या कटुता व्यक्तिगत जुड़ाव को भी तोड़ सकता है? क्या मुझे यह मान लेना चाहिए कि मैंने कुछ चीजें गलत ले ली थीं और कश्मीर की राजनीतिक मजबूरियों के सामने व्यक्तिगत संबंधों का कोई अर्थ नहीं है।  

हम कश्मीर को अपने पीछे छोड़ आए हैं। राजनीतिक उद्देश्यों के लिए व्यक्तिगत संबंधों को किस तरह पीछे धकेल दिया जाता है इसका एक और उदाहरण दूंगा। कश्मीरी नेता शब्बीर शाह आज एक बदले हुए इंसान हैं। वह मेरे चेले की तरह थे। वह उस समय भारत−समर्थक थे। वह एक कट्टर विरोधी में बदल गए हैं। लेकिन मुझे समझ में नहीं आता है कि व्यक्तिगत संबंध क्यों खत्म हो जाए। क्या शब्बीर के विचारों में परिवर्तन के लिए मुझे यह कीमत अदा करनी है? 

बेशक, कश्मीर पर ध्यान देने की जरूरत है, खासकर उन लोगों के लिए जिन्हें सेकुलर और लोकतांत्रिक भारत में विश्वास है। किसी भी तरह का विरोध उन्हें अपनी अपनी प्रतिबद्धता से नहीं डिगा सकता है। अगर वे बदलते हैं तो इसका मतलब है कि उनका पहले का विचार एक दिखावा था।

यह पूरे भारत पर लागू होता है। हम लोग ऐसे दौर में हैं जब महात्मा गांधी तथा जवाहरलाल नेहरू, जिन्होंने हमें आजादी दिलाई, के विचारों को चुनौती दी जा जा रही है। मुझे इससे तकलीफ होती है कि नाथूराम गोडसे, जिसने महात्मा गांधी की हत्या की, की सराहना में भी कुछ स्वर उठने लगे हैं। अगर भारत अपने मूल्यों पर सवाल उठाएगा तो मुस्लिम−बहुल कश्मीर असुरक्षित महसूस करेगा। एक कश्मीरी मुसलिम इंजीनियर जिसने मुझे हवाई अड्डे तक छोड़ा था, ने बताया कि किस तरह बंगलोर जैसी उदार जगह में भी उसे शक से देखा गया और पुलिस ने प्रताड़ित किया।  

पार्टियों ने राजनीति को जाति तथा धर्म के आधार पर पहचान के स्तर पर ला दिया है। लोगों को उदारवादी संगठनों या नेताओं के जरिए अपनी आवाज रखनी चाहिए और इसे पक्का करना चाहिए कि जाति तथा धर्म का जहर नहीं फैले। अगर राष्ट्र विफल होता है तो कश्मीर और भारत के बहुत सारे हिस्से धर्म के कीचड़ भरे पानी में तड़पेंगे। यह कश्मीरियों के हित में है कि उन्हें जब तक कुछ बेहतर नहीं मिल सकता, वे यथास्थिति में बदलाव नहीं करें। यह तभी संभव है कि तीनों पक्ष, भारत, पाकिस्तान तथा कश्मीरी जनता संवाद के लिए साथ आएं। नई दिल्ली इसके लिए तैयार नहीं है क्योंकि इस्लामबाद अपने इस वायदे से पीछे हट गया है कि वह आतंकवादियों को अपनी भूमि का इस्तेमाल करने नहीं देगा। 

इस पर उस समय भी सहमति हुई थी कि जब पाकिस्तान जनरल मुशर्रफ के शासन में था। वह आगरा गए थे और अटल बिहारी वाजपेयी के साथ समझौते पर दस्तखत करीब−करीब कर चुके थे। उसी समय खबर लीक हो गई और सूचना मंत्री सुषमा स्वराज ने समझौते के मसविदा में परिवर्तन कर दिया और कश्मीर का उल्लेख मसविदे से निकाल दिया गया। उस समय से, दोनों देश एक−दूसरे से दूर खड़े हैं। कारगिल में मुशर्रफ की दुर्गति ने मामले को और भी बिगाड़ दिया।  

अटल बिहारी वाजपेयी को इसका श्रेय मिलना चाहिए कि वह बस लेकर लाहौर गए। मैं उनके पीछे बैठा था जब उन्होंने मुझे वह टेलीग्राम दिखाया जिसमें कहा गया था कि जम्मू के नजदीक कई हिंदुओं की हत्या कर दी गई है। उन्होंने कहा कि उन्हें नहीं मालूम कि देश लाहौर की उनकी यात्रा को किस तरह लेगा, लेकिन उन्होंने संकल्प कर लिया है कि वह नवाज शरीफ के साथ छूट गए सूत्र को पकड़ेंगे। बाकी इतिहास है।  

सिंधु जल समझौते की जगह दूसरा समझौता ले सकता है लेकिन इसके लिए पाकिस्तान की सहमति आवश्यक है। जब वह नदी के धारा से बिजली निकालने देने को तैयार नहीं हैं तो इसकी कल्पना करना कठिन है कि वह सिंधु नदी प्रणाली की नदियों का उपयोग इसके बावजूद करने देगा कि इसका पानी सिंचाई या पनबिजली परियोजनाओं में इस्तेमाल हुए बगैर अरब सागर में जा रहा है।

पाकिस्तान में हर चीज को कश्मीर, जो एक जटिल समस्या है, के साथ जोड़ने की प्रवृत्ति है और इसके हल होने में कई साल लगेगा। सिंधु जल समझौते पर अलग से चर्चा होनी चाहिए। इसमें एक ही बिंदु को ध्यान में रखना चाहिए कि दोनों देश आपस की दूरी को कैसे पाटें।

- कुलदीप नायर

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