कश्मीरी पंडितों के लिए सुरक्षित माहौल नहीं बना पाई सरकार

27 साल पहले कश्मीरी पंडितों ने कश्मीर का त्याग अपने आप किया या फिर आतकंवादियों ने उन्हें खदेड़ा था, यह बहस का विषय है लेकिन वर्तमान परिप्रेक्ष्य में सबसे अहम प्रश्न यह है कि दावों के बावजूद कश्मीरी पंडितों की वापसी का माहौल क्यों नहीं बन पा रहा है।

27 सालों से अपने ही देश में निर्वासित जीवन व्यतीत कर रहे लाखों कश्मीरी विस्थापितों का यह दुर्भाग्य है कि उनकी कश्मीर वापसी प्रत्येक सरकार की प्राथमिकता तो रही है लेकिन कोई भी सरकार फिलहाल उनकी वापसी के लिए माहौल तैयार नहीं कर पाई है। वर्तमान सरकार के साथ भी ऐसा ही है जिसका कहना है कि कश्मीर में सुरक्षा हालात फिलहाल ऐसे नहीं हैं कि कश्मीरी विस्थापितों को वापस लौटाया जा सके।

1989 के शुरू में आतंकी हिंसा में तेजी ने कश्मीरी पंडितों को कश्मीर घाटी का त्याग करने पर मजबूर कर दिया। सरकारी आंकड़ों के बकौल, पिछले 27 सालों में 69 हजार परिवारों के तकरीबन 4 लाख सदस्यों ने कश्मीर को छोड़ दिया। हालांकि अभी तक सभी सरकारें यही कहती आई थीं कि कश्मीरी पंडितों ने आतंकवादियों द्वारा खदेड़े जाने पर कश्मीर को छोड़ा था तो वर्तमान सरकार ऐसा नहीं मानती जिसके साझा न्यूनतम कार्यक्रम में कश्मीरी विस्थापितों की वापसी प्राथमिकता पर थी। पर 27 सालों के अरसे के बाद नया शगूफा छोड़ा जा चुका है कि कश्मीरी पंडित अपनी मर्जी से कश्मीर से गए थे और किसी ने उन्हें नहीं निकाला था।

27 साल पहले कश्मीरी पंडितों ने कश्मीर का त्याग अपने आप किया या फिर आतकंवादियों ने उन्हें खदेड़ा था, यह बहस का विषय है लेकिन वर्तमान परिप्रेक्ष्य में सबसे अहम प्रश्न यह है कि दावों के बावजूद कश्मीरी पंडितों की वापसी का माहौल क्यों नहीं बन पा रहा है। तत्कालीन राज्य सरकारों के दावों पर जाएं तो कश्मीर का माहौल बदला है। फिजां में बारूदी गंध की जगह केसर क्यारियों की खुशबू ने ली है। पर बावजूद इसके कश्मीर की कश्मीरियत का अहम हिस्सा समझे जाने वाले कश्मीरी पंडितों की वापसी के लिए माहौल नहीं है। ऐसा राज्य सरकार के दस्तावेज भी कह रहे हैं।

ऐसा माहौल 27 सालों के बाद भी क्यों नहीं बन पाया है कहीं से कोई जवाब नहीं मिलता। प्रशासन के मुताबिक सबसे बड़ा मुद्दा सुरक्षा का है तो राज्य सरकार कहती है कि कश्मीरी विस्थापितों की वापसी तभी संभव हो पाएगी जब उनके जल और टूट-फूट चुके घरों की मरम्मत होगी। सरकार को इसके लिए कम से कम 1000 करोड़ रूपयों की जरूरत है। यह रूपया कहां से आएगा कोई नहीं जानता। यूं तो केंद्र सरकार भी कश्मीरी पंडितों की वापसी के लिए हरसंभव सहायता प्रदान करने को तैयार है पर जब 1000 करोड़ रूपयों की बात आती है तो वह चुप्पी साध लेती है।

राज्य सरकार के कई मंत्री भी इसे स्वीकारते रहे हैं कि कश्मीरी विस्थापितों की वापसी के लिए पहले जमीनी वास्तविकताओं का सामना करना होगा जिनमें उनके वापस लौटने पर उनके रहने और फिर उनकी सुरक्षा का प्रबंध करना भी कठिन कार्य है। वैसे भी ये मुद्दे कितने उलझे हुए हैं यह इसी से स्पष्ट है कि विस्थापितों की वापसी को आसान समझने वाले अपने सुरक्षा प्रबंध पुख्ता नहीं कर पा रहे हैं तो 4 लाख लोगों को क्या सुरक्षा दे पाएंगे वे कोई उत्तर नहीं देते।

कश्मीरी विस्थापित अपने खंडहर बन चुके घरों में लौटेंगे या नहीं, अगर लौटेंगे तो कब तक लौट पाएंगे इन प्रश्नों के उत्तर तो समय ही दे सकेगा मगर इस समय इन विस्थापितों के समक्ष सबसे बड़ा प्रश्न वापसी और सम्मानजनक वापसी का है। ऐसा भी नहीं है कि वे कश्मीर में वापस लौटने के इच्छुक न हों मगर उन्हें सम्मानजनक वापसी, अस्तित्व की रक्षा और पुनः अपनी मातृभूमि से पलायन करने की नौबत नहीं आएगी जैसे मामलों पर गारंटी और आश्वासन कौन देगा। अगर वे लौटेंगे तो रहेंगे कहां जैसे प्रश्नों से भी वे जूझ रहे हैं।

इतना जरूर है कि समय-समय पर राज्य की सभी सरकारों ने कश्मीरी विस्थापितों की वापसी के प्रयास दिखावे के तौर पर जरूर किए। डॉ. फारूक अब्दुल्ला की सरकार के कार्यकाल के दौरान यह बहुत ज्यादा हुए। पर लोगों को वापस लौटना पड़ा क्योंकि आतंकवादियों ने उन्हें निशाना बनाना आरंभ कर दिया था। मुफ्ती मोहम्मद सईद की कोशिशों पर नाड़ीमर्ग के कश्मीरी पंडितों के नरसंहार का साया पड़ गया था। जैसे ही मुफ्ती मोहम्मद सईद ने कश्मीरी पंडितों को वापस लाने की कवायद तेज की आतंकवादियों ने कश्मीर में रूके पड़े कश्मीरी पंडित परिवारों को निशाना बनाना आरंभ कर दिया। नतीजा यह हुआ कि नाड़ीमर्ग नरसंहार के बाद कश्मीर में रूके पड़े कई कश्मीरी पंडित परिवारों ने भी पलायन का रास्ता अख्तियार कर लिया।

मुफ्ती मोहम्मद सईद के मुख्यमंत्रित्व काल के बाद कश्मीरी विस्थापितों को वापस कश्मीर लाने के प्रयास रूके नहीं लेकिन उनका मुख मोड़ दिया गया। प्रत्यक्ष तौर पर उन्हें कश्मीर वापस लौटने के लिए हमेशा तैयार रहने को कहा जाता रहा। साथ ही कश्मीरी विस्थापितों को इसके लिए तैयार किया गया कि वे कश्मीर के उन धार्मिक स्थलों के दौरे करते रहें जो कश्मीरी पंडितों के पलायन के बाद सूनेपन से जूझ रहे हैं। ऐसा इसलिए किया जाना जरूरी समझा गया ताकि कश्मीरी पंडित कश्मीर वापसी से पहले वहां के माहौल से रूबरू हो जाएं तो दूसरी ओर जम्मू में ही उनके लिए एक व दो कमरे के र्क्वाटर तैयार कर यह तय हो गया था कि कश्मीरी विस्थापितों की वापसी अब संभव नहीं है।

कुछ अरसा पहले ही राज्य सरकार के राजस्व विभाग ने नगरोटा में कश्मीरी विस्थापितों के लिए तैयार किए जाने वाले इन आवासों के कारण के पीछे यह तर्क लिखित तौर पर दे दिया था कि कश्मीर का माहौल शायद ही कभी उनके अनुकूल हो पाए। इसलिए उनकी वापसी के चांस पूरी तरह से शून्य होने के कारण जम्मू के आसपास ही उन्हें बसाने की तैयारी की जा रही है।

देखा जाए तो राजस्व विभाग की टिप्पणी काफी हद तक सच भी है। कश्मीरी पंडितों की कश्मीर वापसी शायद ही हो पाए क्योंकि आतंकवादी अगर उन्हें ऐसा करने से मना करते रहे हैं तो जो अलगाववादी नेता उनकी वापसी का स्वागत करने के लिए तैयार हैं वे साथ में यह शर्त रख देते हैं कि उन्हें उनके संघर्ष में साथ देना होगा। हालांकि सुरक्षा की गारंटी कोई भी अलगाववादी नेता देने को इसलिए तैयार नहीं है क्योंकि उनका कहना था कि कश्मीर में जंग का माहौल है और ऐसे में किसी की जान-माल की सुरक्षा की गारंटी देना उसके साथ मखौल के समान होगा।

नतीजतन कश्मीरी विस्थापितों के लिए फैसला ले पाना बड़ा कठिन है। यह सच है कि वे अभी भी कश्मीर वापसी का सपना संजोए हुए हैं। यह सपना कश्मीर में वितस्ता अर्थात दरिया जेहलम के किनारे अलग से बनाए जाने वाले होमलैंड के रूप में है। कश्मीरी पंडितों के कई संगठन इस होमलैंड की मांग को पूरा करवाने के लिए जी तोड़ मेहनत में जुटे हैं पर जिस प्रकार कश्मीरी विस्थापितों की वापसी संभव नहीं है उसी प्रकार कश्मीरियों के लिए अलग होमलैंड का सपना कभी पूरा हो पाएगा ऐसी उम्मीद किसी को नहीं है।

ऐसे में अपने घरों से बेघर हो पिछले 27 सालों से अपने ही देश मे शरणार्थी बन जीवन यापन करने वाले कश्मीरी विस्थापित आज अपने आप को दोराहे पर महसूस कर रहे हैं। उनके लिए दुविधा यह है कि वे किस रास्ते को अपनाएं। एक रास्ते पर उनका भविष्य है तो दूसरे मार्ग पर अतीत की वे यादें जुड़ी हैं जो उनके पुरखों की निशानी से भरी हैं। लेकिन वे भी इतना समझते हैं कि अतीत की यादों पर फिलहाल बंदूकों का साया है और सुरक्षा व सम्मान की कोई गारंटी उससे जुड़ी नहीं है। कश्मीरी विस्थापितों की वापसी होगी या नहीं प्रश्न का उत्तर इतना आसान नहीं है जितना महसूसा जा रहा है लेकिन इतना अवश्य है कि उनकी वापसी के रास्ते में जितनी कठिनाइयां हैं अगर उन्हें अभी से दूर करने का प्रयास आरंभ किया जाए तो सही मायनों में उनकी वापसी की शुरूआत होने में अभी कई वर्ष लगेंगे।

मजेदार बात यह है कि इन विस्थापितों की वापसी की चर्चा के साथ ही जहां अपने आपको कश्मीरी विस्थापितों का सच्चा प्रतिनिधि बताने वाले कई संगठनों का उदय भी हुआ और कई संगठनों ने इस वापसी का विरोध भी करना आरंभ कर दिया था। इन विस्थापितों के उभरे नए संगठनों के कारण राज्य सरकार को इस परेशानी का भी सामना करना पड़ा था कि वह किस संगठन से बात करे क्योंकि कश्मीरी विस्थापित जहां किसी भी संगठन पर विश्वास करने को तैयार नहीं हैं तो दूसरी ओर प्रत्येक संगठन अपने आप को इन विस्थापितों का सच्चा प्रतिनिधि कहता फिरता है।

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