आतंक को आक्सीजन देती उदारवादियों की खामोशी

अजय कुमार । Jul 8 2016 12:38PM

ऐसा नहीं है आतंकवाद को पूरे मुस्लिम जगत की सहमति मिली हुई है, लेकिन ऐसी वारदातों के समय मुस्लिम बुद्धिजीवियों, धर्म गुरुओं, मौलानाओं और मशहूर हस्तियों की चुप्पी से संदेश यही जाता है कि पूरा मुस्लिम जगत आतंकवाद को प्रश्रय देता है।

बेबाक लेखनी के कारण हमेशा विवादों और कट्टरपंथियों के निशाने पर रहने वाली बांग्लादेश की लेखिका और भारत में निर्वासित जीवन जी रहीं तस्लीमा नसरीन ने ढाका में आतंकवादी हमले के बाद चार ट्वीटों के माध्यम से अपनी भड़ास निकाली। जिसमें उन्होंने लिखा, 'बांग्लादेश ग्लोबल टेरर में कॉन्ट्रीब्यूट करता रहा है। उनका दूसरा ट्वीट आया, 'हमले के सभी आतंकी अमीर फैमिली से थे। वे काफी पढ़े−लिखे थे। कृपया यह न कहें कि गरीबी और कम पढ़ा−लिखा होना लोगों को इस्लामिक टेररिस्ट बनाता है। फिर उन्होंने लिखा, 'इंसानियत के लिए ये न कहें कि इस्लाम अमन का मजहब है। इस्लामिक टेररिस्ट बनने के लिए आपको गरीबी, लिटरेसी, अमेरिकी पॉलिसी, इजरायल या साजिश की जरूरत नहीं है। आपको इस्लाम की जरूरत है।' तस्लीमा ही नहीं उनके साथ फिल्म स्टार इरफान खान, सलमान के पिता और पटकथा लेखक सलीम खान जैसी हस्तियों ने भी इस हादसे को शर्मनाक बताते हुए अफसोस जताया। तस्लीमा का कहना था कि इस्लाम को शांति का धर्म कहना बंद किया जाये तो फिल्म स्टार इरफान खान इस बात से नाराज दिखे कि ऐसी वारदातों के समय मुसलमान चुप क्यों रहता है, जबकि कुरान में साफ−साफ कहा गया है कि जुल्म और नरसंहार इस्लाम नहीं है।

ऐसा नहीं है आतंकवाद को पूरे मुस्लिम जगत की सहमति मिली हुई है, लेकिन ऐसी वारदातों के समय मुस्लिम बुद्धिजीवियों, धर्म गुरुओं, मौलानाओं और समाज की मशहूर हस्तियों की चुप्पी से मैसेज यही जाता है कि पूरा मुस्लिम जगत आतंकवाद को प्रश्रय देता है। हम कभी जातिवाद के नाम पर, कभी नक्सलवाद के नाम पर, कभी क्षेत्रवाद के नाम पर तो कभी सीमाओं के नाम पर लड़ते हैं। ताज्जुब तो तब होता है जब हम उस धर्म की आड़ में भी खून−खराबा करने से नहीं चूकते हैं जो हमें मानवता का पाठ पढ़ाता है। प्यार का संदेश देता है। ऐसे धर्म की आड़ में किन्हीं बेगुनाहों को मौत के घाट उतार दिया जाए तो यह मानवता के लिये तो कलंक है ही, इसके साथ ही उंगली उन पर भी उठना स्वभाविक है जो तमाम मंचों पर उदारवादी होने का दिखावा तो करते हैं, लेकिन ऐसी घटनाओं पर मुंह तभी खोलते हैं, जब उनके मुंह में उंगली डाल कर बुलवाया जाता है। सच को सच और झूठ को झूठ, सही को सही और गलत को गलत कहने की ताकत नहीं रखने वाले यह कथित उदारवादी चेहरे पूरी दुनिया में दिखाई पड़ जाते हैं। पूरी दुनिया के साथ−साथ एशियाई देशों और खासकर हिन्दुस्तान में तो ऐसे चेहरों की संख्या लाखों−करोड़ों में है जो अपनी सहूलियत के हिसाब से मुंह खोलते और बंद रखते हैं, जिसके परिणाम स्वरूप दुनिया भर में आतंकवाद दिन पर दिन मजबूत होता जा रहा है। जब पढ़ी लिखी युवा पीढ़ी के लिये भी आतंकवाद आकर्षण का केन्द्र हो जाये तो हालात कितने बदतर होते जा रहे हैं, इसका अंदाजा सहज लगाया जा सकता है। समय आ गया है कि मुस्लिम बुद्धिजीवी युवाओं को यह बतायें कि उनके आर्दश आतंकवादी संगठन आईएस, लश्कर, बगदादी, लादेन, मुल्ला उमर जैसे हत्यारे नहीं हो सकते हैं। उन्हें मोहम्मद साहब के बताये और दिखाये रास्ते पर ही चलना होगा। उन लोंगो से बचकर रहना होगा जो अपने हित साधने के लिये कुरान की गलत व्याख्या करके आतंकवाद को सही ठहराने की साजिश रचते हैं।
 
बांग्लादेश की राजधानी ढाका में हुए आतंकवादी हमले में हमलावर पढ़े−लिखे नौजवान और अमीर घरों के थे। इस बात का पता चलने के बाद भले ही कुछ लोग आश्चर्य व्यक्त कर रहे हों, लेकिन ऐसा पहली बार नहीं हुआ है। आतंकवाद बढ़ने की जितनी बड़़ी वजह अज्ञानता है, उससे अधिक आतंकवाद को बढ़ावा शिक्षित और सभ्य कहलाये जाने वाला समाज देता है। ढाका हमले में मारे गए 6 आतंकी बड़े स्कूलों से पास आउट और अमीर घरों के थे। इनमें से रोहन इब्ने इम्तियाज बांग्लादेश की रूलिंग पार्टी के नेता का बेटा बताया गया। यह बात ज्यादा मायने नहीं रखती है। इससे गंभीर मुद्दा यह है कि क्या एक धर्म विशेष को मानने वालों को ही इस दुनिया में रहने का अधिकार है। पूरी कायनात में इस्लाम का ही झंडा फहराया जाना अगर किसी कौम के कुछ लोगों का (प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तौर पर) मकसद बन जाये तो स्थिति की गंभीरता पता चलती है। सोशल मीडिया पर कुछ लोग हैरानी जता रहे हैं कि पढ़े−लिखे लड़के ऐसा कैसे कर सकते हैं। बता दें कि पहली जून को ढाका के डिप्लोमैटिक एरिया में एक रेस्टोरेंट पर हुए आतंकी हमले में 20 विदेशी मारे गए थे। इस हमले में आतंकवादियों ने उन सभी को मौत के घाट उतार दिया था जो कुरान की आयत नहीं सुना सके थे। आतंकियों ने बंधकों से कुरान की आयतें सुनाने को कहा। जिन्होंने सुना दीं, उन लोगों से अच्छा व्यवहार किया गया। उनको बढ़िया खाना खिलाकर छोड़ दिया गया, जो नहीं सुना पाये उन्हें गैर इस्लामी मानकर मौत के घाट उतारा गया।
 
भले ही बांग्लादेश सरकार आतंकी हमले के पीछे पाकिस्तान का हाथ होने की संभावना व्यक्त कर रही हो लेकिन ऐसे लोगों की संख्या भी कम नहीं है जो मानते हैं कि इस आतंकवादी हमले के लिये इस्लाम को मानने वाला हर वह शख्स जिम्मेदार है जो ऐसे मौकों पर चुप्पी साधे रखता है। खासकर, हिन्दुस्तान के मुसलमान जिनके बारे में आम धारणा यही है कि वह लोकतांत्रिक मूल्यों के पक्षधर हैं, उन्हें ऐसे मौकों पर आगे आना चाहिए, लेकिन ऐसा होता दिखा कभी नहीं, जो मुसलमान यह मानते हैं कि आतंकवाद सिर्फ इस्लाम को न मानने वालों के लिये खतरा हैं तो उनके लिये इराक की राजधानी बगदाद में हुई घटना को भी याद रखना होगा जहां आतंकवादी संगठन आईएस ने 03 जुलाई 2016 को विस्फोट करके 120 मुसलामनों को मौत के घाट उतार दिया। यह कोई पहली घटना नहीं थी। कभी−कभी तो ऐसा लगता है कि मुसलमान की पहचान आतंकवाद से जुड़ती जा रही है। थोड़े समय के लिये यह कहकर दिल को बहलाया जा सकता है कि आतंकवाद का कोई धर्म नहीं होता है, परंतु हकीकत यही है जब तक मुसलमानों के भीतर से ही आतंकवाद के खिलाफ आवाज नहीं उठेगी तब तक दुनिया का भला होने वाला नहीं है। यह सच है कि आतंकवाद को रोकने के लिये उसकी जड़ों को तलाशना होगा, परंतु यह काम सिर्फ दूसरों पर आरोप लगाकर पूरा नहीं किया जा सकता है।

यहां यह बताना भी जरूरी है कि बांग्लादेश में पिछले 18 महीने के दौरान अल्पसंख्यकों (खासकर हिन्दुओं) पर कई हमले हुए, लेकिन जांच एजेंसियों और सरकार ने हर हमले के बाद इसकी जिम्मेदारी स्थानीय ग्रुपों पर डाल कर अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर ली। इसी के परिणाम स्वरूप आतंकवादियों के हौसले बढ़े, उनको संरक्षण देने वालों की भी लिस्ट लम्बी होती गई। सबसे दुखद स्थिति तब आती है कि जब कोई सच्चा मुसलमान हिम्मत करके ऐसे कृत्यों की मुखालफत करता है तो उसे अपनी कौम का साथ मिलने की बजाये अलग−थलग कर दिया जाता है। रमजान के पवित्र महीने में भी इस तरह की वारदातें होना तो यही बताता है कि कुछ लोग इस्लाम से ऊपर हो गये हैं। यह लोग अपने हिसाब से इस्लाम की परिभाषा तय करना चाहते हैं। पूरी दुनिया पर नजर दौड़ाई जाये तो अफगानिस्तान, पाकिस्तान, बांग्लादेश, इराक, तुर्की, सीरिया आदि तमाम इस्लामी देशों में आतंकवाद सबसे गंभीर समस्या बना हुआ है।

विश्व में 52 इस्लामी देश हैं, लेकिन कोई भी इस्लाम की शिक्षा को नहीं मानता है। जब एक ही मजहब के लोगों का धर्म के नाम पर खून बहाया जायेगा। अच्छे आतंकवाद और बुरे आतंकवाद के नाम पर इसे कहीं गलत तो कहीं सही ठहराया जायेगा तो आतंकवाद किसी एक कौम या मुल्क के लिये नहीं बल्कि मानवता के लिये बड़ा खतरा बन सकता है। नहीं भूलना चाहिए की पूरी दुनिया एटम बम के बटन तक सीमित रह गई है। नहीं भूलना चाहिए कि आतंकवादियों से अधिक बड़े गुनहागार वह लोग और देश हैं जो पर्दे के पीछे से आतंकवादियों को संरक्षण देते हैं या फिर ऐसे मामलों में यह सोच कर चुप्पी साधे रहते हैं कि कहीं उनका विरोध न शुरू हो जाये। आतंकवाद के प्रति उदारवादियों की चुप्पी, विश्व की समस्या बनती जा रही है। उदारवादियों की खामोशी आतंकवादियों को आक्सीजन उपलब्ध कराने का काम करा रही है।

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