कश्मीर के बारे में गलतबयानी करने की बजाय शांति स्थापना में सहयोग दें नेता

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ललित गर्ग । Sep 19 2019 10:59AM

कश्मीर में शांति बहाली एवं आम-जनजीवन को सामान्य बनाने के लिये भारत सरकार को एक कदम आगे बढ़कर ऐसे सकारात्मक हरसंभव प्रयास करने होंगे कि इस दिशा में कश्मीरी भी अपने दायित्व को समझें।

जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद-370 के प्रावधान हटाने के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में दायर की गई याचिकाएं हों या इस प्रांत में शांति स्थापना के लिये भारत सरकार के प्रयत्न, दोनों ही स्थितियां जीवंत लोकतंत्र का आधार हैं। याचिकाकर्ताओं के अनुसार कश्मीर में हालात बेहद खराब हैं, लोग हाईकोर्ट तक भी नहीं पहुंच पा रहे हैं, मीडिया, इंटरनेट, यातायात व्यवस्था, चिकित्सा सुविधाओं के साथ-साथ आम-जनजीवन बाधित है। यदि ऐसा है तो यह लोकतंत्र पर एक बदनुमा दाग है, शासन की असफलता का द्योतक है, लेकिन ऐसा नहीं है। दूर बैठ कर भी हर भारतीय इस बात को गहराई से महसूस कर रहा है और देख रहा है कि जम्मू-कश्मीर में शांति, सौहार्द एवं सह-जीवन का वातावरण बन रहा है। वहां संविधान के साये में लोकतंत्र प्रशंसनीय रूप में पलता हुआ दिख रहा है। जरूरत है कश्मीर में राजनीतिक एवं साम्प्रदायिक संकीर्णता की तथाकथित आवाजों की बजाय सुलझी हुई सभ्य राजनीतिक आवाजों को सक्रिय होने का मौका दिया जाए, विकास एवं शांति के नये रास्ते उद्घाटित किये जायें।

जम्मू-कश्मीर में सत्ताविहीन असंतुष्टों की तरह आदर्शविहीन असंतुष्टों की भी एक लम्बी पंक्ति है जो दिखाई नहीं देती पर खतरे उतने ही उत्पन्न कर रही है। सब चाहते हैं कि हम आलोचना करें, अच्छाई में भी बुराई खोजें, शांति एवं सौहार्द की स्थितियों को भी अशांत बतायें, पर वे शांति का, सुशासन का, विकास का उदाहरण प्रस्तुत नहीं करते। हम गलतियां निकालें पर दायित्व स्वीकार नहीं करें। ऐसा वर्ग आज जम्मू-कश्मीर के मुद्दों को लेकर सक्रिय है। वे लोग अपनी रचनात्मक शक्ति का उपयोग करने में अक्षम हैं, इसलिये कानून को आधार बनाकर अस्त-व्यस्तता एवं अशांति को बढ़ाने में विश्वास करते हैं।

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कश्मीर में केंद्र सरकार ने अनुच्छेद-370 को हटाकर जिस साहस का परिचय दिया, उससे भी अधिक उसने शांति एवं व्यवस्था बनाये रखने की स्थितियों को निर्मित कर परिपक्वता का परिचय दिया है। लगभग डेढ़ माह बीतने को है, किसी बड़ी अप्रिय, हिंसक एवं अराजक स्थिति का न होना, वहां की जनता का केन्द्र सरकार में विश्वास का परिचायक है। प्रांत में हर कदम सावधानी से उठाना, समय की मांग है, कहीं ऐसा न हो कि घाटी में पाबंदियों में ढील दी जाए और वहां हिंसा एवं आतंक का नया दौर शुरू हो जाये। अदालत ने स्पष्ट किया है कि राष्ट्रीय हित और आंतरिक सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए ही घाटी में सामान्य हालात बहाल करने के प्रयास किए जाएं और ऐसा होना भी चाहिए।

कश्मीर में शांति बहाली एवं आम-जनजीवन को सामान्य बनाने के लिये भारत सरकार को एक कदम आगे बढ़कर ऐसे सकारात्मक हरसंभव प्रयास करने होंगे कि इस दिशा में कश्मीरी भी अपने दायित्व को समझें। किसी को भी अपनी बात रखने के लिए पत्थरों और बंदूकों की कतई जरूरत न पड़े और भारतीय संविधान के तहत ही शांति आए और विकास हो। संभवतः ऐसा ही सुप्रीम कोर्ट चाहता है और ऐसा ही केन्द्र सरकार भी चाहती है।

भारत दुनिया में सशक्त लोकतांत्रिक राष्ट्र है, लोकतंत्र में हर व्यक्ति को अपनी बात कहने का अधिकार है, यहां कोई भी व्यक्ति सुप्रीम कोर्ट में गुहार लगा सकता है। लेकिन गुहार लगाने का उद्देश्य राष्ट्रीयता एवं शांति से जुड़ा होना चाहिए। जम्मू-कश्मीर के संबंध में केंद्र सरकार से असहमत लोग सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटा रहे हैं, तो कोई आश्चर्य नहीं। न्यायालय की मंशा स्पष्ट है, वह जम्मू-कश्मीर में जल्द से जल्द सामान्य जिंदगी की बहाली चाहता है। मुख्य न्यायाधीश जस्टिस रंजन गोगोई ने तभी कहा कि जरूरत पड़ी तो वह खुद श्रीनगर जाएंगे। उन्होंने स्थापित व्यवस्थाओं के तहत ही जम्मू-कश्मीर की स्थिति के बारे में सरकार से दो सप्ताह में जवाब मांगा है, तो यह स्वाभाविक है।

सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई के दौरान सरकार ने अपना पक्ष रखते हुए बताया कि घाटी में आम जन-जीवन सामान्य है, अखबार निकल रहे हैं, दूरदर्शन सहित सारे चैनल वहां काम कर रहे हैं। कश्मीर में 88 प्रतिशत थाना क्षेत्रों में पाबंदी नहीं है। अपने जवानों और आम नागरिकों की केंद्र सरकार को चिंता है। इसके अलावा सुप्रीम कोर्ट में केंद्र सरकार ने यह भी याद दिलाया है कि वर्ष 2016 में भी एक कुख्यात आतंकवादी की मौत के बाद जम्मू-कश्मीर में तीन महीने फोन और इंटरनेट बाधित रहा था। याचिकाकर्ता की एक बड़ी शिकायत यह थी कि जम्मू-कश्मीर में उच्च न्यायालय तक पहुँचना आसान नहीं है। इसे प्रधान न्यायाधीश ने काफी गंभीरता से लिया।

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भारत सरकार के सामने कश्मीर में लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था को स्थापित करने की अनेक मजबूरियां एवं चुनौतियां हैं। तभी कहा जाता है कि मजबूरी का नाम गांधी। यानि मजबूर आदर्श या आदर्श की मजबूरी। दोनों ही स्थितियां विडम्बनापूर्ण हैं। पर कुछ लोग किसी कोने में आदर्श की स्थापना होते देखकर अपने बनाए स्वार्थप्रेरित समानान्तर आदर्शों की वकालत करते हैं। यानी स्वस्थ परम्परा का मात्र अभिनय। प्रवंचना का ओछा प्रदर्शन। ऐसे लोग कहीं भी हों, उन्नत जीवन की बड़ी बाधा हैं। कश्मीर में भी ऐसे बाधक लोग लोकतंत्र का दुरुपयोग करते हुए दिखाई दे रहे हैं। कुछ ऐसे व्यक्ति सभी जगह होते हैं जिनसे हम असहमत हो सकते हैं, पर जिन्हें नजरअन्दाज करना मुश्किल होता है। चलते व्यक्ति के साथ कदम मिलाकर नहीं चलने की अपेक्षा उसे अडंगी लगाते हैं। सांप तो काल आने पर काटता है पर दुर्जन तो पग-पग पर काटता है। कश्मीर को शांति एवं सह-जीवन की ओर अग्रसर करते हुए ऐसे दुर्जन लोगों से सावधान रहना होगा। यह निश्चित है कि सार्वजनिक जीवन में सभी एक विचारधारा, एक शैली व एक स्वभाव के व्यक्ति नहीं होते। अतः आवश्यकता है दायित्व के प्रति ईमानदारी के साथ-साथ आपसी तालमेल व एक-दूसरे के प्रति गहरी समझ की। भारत विविधता में एकता का 'मोजायॅक' राष्ट्र है, जहां हर रंग, हर दाना विविधता में एकता का प्रतिक्षण बोध करवाता है। अगर हम हर कश्मीर में आदर्श स्थापित करने के लिए उसकी जुझारू चेतना को विकसित कर सकें तो निश्चय ही आदर्शविहिन असंतुष्टों की पंक्ति को छोटा कर सकेंगे। और ऐसा होना कश्मीर में अशांति एवं आतंक की जड़ों को उखाड़ फेंकने का एवं शांति स्थापना का सार्थक प्रयत्न होगा।

-ललित गर्ग

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