दलित छात्रों से भेदभाव करने वालों पर कानूनी कार्रवाई हो
मेरा मानना है कि हमें दलित और वंचित छात्रों की समस्याओं पर ध्यान देने की जरूरत है। मेरे दिमाग में एक ही हल आता है कि भेदभाव के खिलाफ कानूनी कारवाई हो।
देश कितना भी लोकतांत्रिक क्यों न हो, जाति का भेदभाव कम नहीं हुआ है। हर दिन देश के किसी न किसी हिस्से में, दलितों को जिंदा जलाने की घटनाएं होती हैं। पिछले दिनों दिल्ली के पास ही एक दलित परिवार को आग में जला देने का नजारा सामने आया।
देश की राजधानी में ही जेएनयू के एक छात्र ने फांसी लगा ली क्योंकि वह भेदभाव के उपहास को बर्दाश्त नहीं कर पाया। 28 साल के एमफिल छात्र ने जेएनयू में पढ़ने का सपना देखा था और सौभाग्य से प्रवेश पाने की अपनी चौथी कोशिश में कामयाब हो गया था। लोगों के मुताबिक, दक्षिण का रहने वाला मुथुकृष्णन एक विनम्र व्यक्तित्व और खुद में ही सिमटा रहने वाला छात्र था।
अचरज है कि समाज या यूं कहें कि भारत में इसका बहुत कम असर हुआ है। यह महज एक घटना थी और इसे भुला दिया गया। होना यह चाहिए था कि यह पूरे देश को झकझोरता। अगर किसी ऊंची जाति के लड़के के साथ यह घटना होती तो संसद में ध्यानाकर्षण प्रस्ताव के लिए कई बयान आ जाते। लेकिन इस मामले में हलकी सी आवाज भी नहीं आई।
मीडिया भी बराबर का दोषी है क्योंकि उसने भी घटना को बड़ी खबरों से अलग कर दिखाया। यह यही दिखाता है कि आमतौर पर ऊंची जाति से आने वाले मीडियाकमिर्यों की वही पुरानी मानसिकता है। नौजवान से प्रगतिशील होने की उम्मीद की जाती है कि लेकिन इस मामले में ऐसा नहीं था।
जाहिर है कि मृत छात्र के पिता और कुछ छात्र भी, मानते हैं कि कुछ धोखाधड़ी हुई है। पुलिस ने सोचा कि यह आत्महत्या का मामला है और इस कारण उसने संबंधित कानूनी धाराओं के तहत एफआईआर दर्ज की। माता−पिता ने सीबीआई जांच की मांग की है। मुझे नहीं पता कि इससे क्या फर्क पड़ेगा क्योंकि सीबीआई भी पुलिस पर निर्भर करेगी जो खुद कटघरे में है।
इसी तरह की स्थिति पैदा हुई थी जब हैदराबाद विश्वविद्यालय के दलित शोध छात्र रोहित वेमुला ने पिछले साल आत्महत्या की थी। लेकिन जेएनयू छात्र की आत्महत्या के मामले के विपरीत, इस पर बड़ा हंगामा हुआ था और छात्र सड़कों पर उतर आए थे और आंदोलन के कारण विश्वविद्यालय के विभागों में बदलाव भी हुए।
संयोगवश, मुथुकृष्णन ने रोहित वेमुला की मौत पर अपने विचार व्यक्त किए थे और दलित शोध छात्र की आत्महत्या को लेकर हैदराबाद यूनिवर्सिटी के रवैए की निंदा की थी। जाहिर है कि जेएनयू के छात्र ने अपने फेसबुक पोस्ट, जिसमें उसने जेएनयू की नर्इ दाखिला नीति की आलोचना की थी, अपने साथ हुए भेदभाव के कई उदाहरणों को याद किया।
विश्वविद्यालयों में ऐसे भेदभाव किस बात की ओर इशारा करते हैं? ऊंची शिक्षा के संस्थानों में दलित छात्र जिन समस्याओें का सामना कर रहे हैं उस पर हमें सोचने की जरूरत है। ज्यादा दिन नहीं बीते हैं कि रोहित की मौत के बाद हैदराबाद यूनिवर्सिटी में छात्रों का निलंबन वापस ले लिया गया। निश्चित तौर पर, रोहित की आत्महत्या ने बहुत सदमा पहुंचाया और लोग हिंसा पर उतर आए, लेकिन इसी तरह की भावना उस समय भी व्यक्त की गई थी जब सलेम के रहने वाले हैदराबाद यूनिवर्सिटी के छात्र सेंथिल कमुार ने 2008 में आत्महत्या कर ली थी। मुथुकृष्णन भी तमिलनाडु के सलेम का ही रहने वाला था।
हैदराबाद के विभिन्न संस्थानों में 2007 से 2013 के बीच छात्रों, जिनमें ज्यादातर दलित हैं, की आत्महत्या की दर्जन भर घटनाएं हुई हैं। इसके अलावा आल इंडिया इंस्टीच्यूट आफ मेडिकल साइंसेज, दिल्ली में दलित छात्र की आत्महत्या के दो और 2007 से 2011 के बीच दलित छात्रों की आत्महत्या के 14 अन्य मामले भी सामने आए।
करीब−करीब ऐसा हो गया है मानो लगातार हो रही आत्महत्या, खासकर दलित छात्रों द्वारा, की घटनाओं का हम पर कोर्इ असर नहीं हो रहा है। ऊंची शिक्षा के परिसरों में अलग−अलग तरह के छात्र आ रहे हैं। 2008 के आंकड़ों के अनुसार, ऊंची शिक्षा पाने वाले छात्रों में अनुसूचित जाति के छात्रों का अनुपात चार प्रतिशत, अनुसूचित जनजाति का 13.5 प्रतिशत, मुसलमानों का आठ प्रतिशत और ईसाइयों का 3 प्रतिशत है। और, फिर भी आत्महत्या करने वाले 25 छात्रों में से 23 छात्र दलित थे।
कर्इ शोध यही संकेत देते हैं कि भेदभाव, अलगाव और अपमान के अनुभव ही इनके मुख्य कारण हैं। आत्महत्या के कुछ मामलों के विश्लेषण के बाद यही नतीजा निकलता है कि इसके पर्याप्त सबूत मालूम होते हैं कि जातिगत भेदभाव ने इन असाधारण व्यक्तियों को आत्महत्या के लिए प्रेरित किया, और यह भी कि ऊंचे व्यावसायिक संस्थान ऐसे स्थान हैं जहां जाति पूर्वाग्रह की जड़ें इतनी गहरी हैं कि यह सामान्य बात हो गई है।
2010 में, प्रोफसेर मेरी थोनर्टन और अन्य ने भारत और इंग्लैंड के पांच उच्च शिक्षण संस्थाओं के अध्ययन में पाया कि ''उच्च शिक्षण संस्थाओं के परिसरों में समूहों का अलग−अलग रहने का उदाहरण हर जगह है। कुछ मामलों में समूहों में रहना एक दूसरे की मदद के लिए है, लेकिन कई दूसरे मामलों में यह नस्ल, क्षेत्र, राष्ट्रीयता, जाति, वर्ग, मजहब या लिंग के आधार पर स्पष्ट भेदभाव के कारण है।''
2013 में, सैमसन ओविचगेन ने भारत के एक नामी विश्वविद्यालय में दलितों के अनुभवों पर अध्ययन किया तो पाया कि ''विश्वविद्यालय एक और क्षेत्र है जहां जातिगत विभाजन पर अमल करना जारी है। विश्वविद्यालय का माहौल दलित और गैर−दलित के विभाजन को मजबूत करता है। दलित छात्र निश्चित तौर, जाति के आधार पर खुला या अप्रत्यक्ष भेदभाव का अनुभव इस अग्रणी विश्वविद्यालय में करते हैं।''
उच्च शिक्षण संस्थानों में जाति के भेदभाव और इसके कलंक की बीमारी के जारी रहने की बात हम जितना स्वीकार करते हैं, घटना−विशेष से जुड़ी परिस्थितियों को कारण बताकर इससे उतना ही इंकार किया जाता है जो व्यापक सामाजिक परिवेश से अलगाव के संबंधों की अनदेखी है। ठीक है, घटना− विशेष से जुड़े कारण होंगे, लेकिन यह एक महज संयोग नहीं हो सकता कि आत्महत्या के 25 मामलों में से 23 दलितों के थे। इसलिए सबसे पहले नीति बनाने वालों को इंकार वाले रवैए से बाहर आने की जरूरत है।
बेशक, स्थिति सुधरी होगी। लेकिन जाति व्यवस्था का शर्म किसी न किसी रूप में जारी है। दलित छात्रों के दूसरे छात्रों, और शिक्षकों के साथ संबंध पर सवाल उठाए जाते हैं। मेरी राय में हमें दलित और वंचित छात्रों की समस्याओं पर ध्यान देने की जरूरत है। मेरे दिमाग में एक ही हल आता है कि भेदभाव के खिलाफ कानूनी कारवाई हो, छात्रों को नागरिक के रूप में बर्ताव करने की शिक्षा दी जाए, जिन छा़त्रों को जरूरत है उन्हें शिक्षण में मदद दी जाए और विश्वविद्यालय और कालेज में हर निर्णय करने वाली कमेटी में दलितों को भागीदारी दी जाए।
- कुलदीप नैय्यर
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