मोहन भागवत ने संघ में अनुशासन बहाल किया, भाजपा को शीर्ष पर पहुँचाया

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मोहन भागवत अपने पूर्ववर्तियों से इस मायने में अलग हैं कि उन्होंने ना सिर्फ आरएसएस बल्कि उसके सभी आनुषांगिक संगठनों में कड़ा अनुशासन बहाल किया बल्कि संघ की राजनीतिक इकाई मानी जानी वाली भारतीय जनता पार्टी को भी सही मार्गदर्शन दिया।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख मोहन राव भागवत का आज जन्मदिन है और संघ परिवार से जुड़े सभी लोगों की ओर से उन्हें बधाइयों का तांता लगा हुआ है। संघ के प्रमुख इससे पहले और भी बहुत से महान व्यक्ति हुए हैं और अपने अपने हिसाब से उन्होंने संघ की विचारधारा और उसके कामकाज को आगे बढ़ाने का काम किया है। लेकिन मोहन भागवत अपने पूर्ववर्तियों से इस मायने में अलग हैं कि उन्होंने ना सिर्फ आरएसएस बल्कि उसके सभी आनुषांगिक संगठनों में कड़ा अनुशासन बहाल किया बल्कि संघ की राजनीतिक इकाई मानी जानी वाली भारतीय जनता पार्टी को भी सही मार्गदर्शन दिया। मोहन भागवत के ही कार्यकाल में आरएसएस के सभी आनुषांगिक संगठनों में बेहतर सामंजस्य भी देखने को मिल रहा है। 

भागवत के आने से पहले भाजपा का था बुरा हाल

जरा याद कीजिये वह वक्त जब मोहन भागवत ने मार्च 2009 में आरएसएस प्रमुख का पद संभाला था। उस समय 2009 के लोकसभा चुनावों में हार के बाद से भारतीय जनता पार्टी जबरदस्त अंतर्द्वंद्व का शिकार थी। हार का ठीकरा एक दूसरे के सिर फोड़ा जा रहा था। मोहन भागवत ने जब संघ प्रमुख के नाते देशव्यापी दौरा शुरू किया तो उनसे स्वयंसेवकों से ज्यादा भाजपा कार्यकर्ता मिलने लगे और भाजपा को बचाने के लिए हस्तक्षेप करने का आग्रह करने लगे थे। आरोप लगाया जा रहा था कि दिल्ली की एक चौकड़ी ने पार्टी पर कब्जा कर लिया है और नये चेहरों को आगे नहीं बढ़ाया जा रहा है। उस समय तक अटल बिहारी वाजपेयी सक्रिय राजनीति से दूर हो चुके थे और लालकृष्ण आडवाणी को 2009 के चुनावों में प्रधानमंत्री उम्मीदवार के रूप में देश की जनता ने नकार दिया था।

भागवत ने वो कर दिखाया जो अन्यों के लिए मुश्किल था

मोहन भागवत के लिए यह आसान नहीं था कि दिल्ली के पुराने धुरंधरों के हाथ से भाजपा को निकाला जाये लेकिन उनके सख्त रवैये के चलते ही लालकृष्ण आडवाणी जैसे वरिष्ठ नेताओं को उम्र का तकाजा देकर साइडलाइन किया गया और युवाओं के लिए आगे की राह आसान की गयी। मोहन भागवत के हस्तक्षेप से ही महाराष्ट्र के नेता नितिन गडकरी को भाजपा का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाया गया। जब गडकरी को राष्ट्रीय अध्यक्ष पद का दायित्व सौंपा गया तो यह सभी के लिए हैरानी भरा था क्योंकि गडकरी इससे पहले तक प्रांतीय राजनीति तक ही सीमित थे। यही नहीं राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाये जाने से पहले तक गडकरी महाराष्ट्र भाजपा अध्यक्ष थे और जनवरी 2010 में जब वह भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष बने उससे एक दो महीने पहले ही उनके नेतृत्व में महाराष्ट्र में भाजपा विधानसभा चुनावों में कोई चमत्कार नहीं कर पाई थी।

गडकरी जब भाजपा का राष्ट्रीय अध्यक्ष पद संभाल रहे थे उस दौरान लालकृष्ण आडवाणी, राजनाथ सिंह और भाजपा के अन्य नेताओं के चेहरे देखने लायक थे। यह वही नेता थे जिनके बिना भाजपा में पत्ता नहीं हिलता था और वह भागवत की ओर से अध्यक्ष पद पर बिठाये जा रहे गडकरी को सिर्फ देखते जा रहे थे। नितिन गडकरी का भाजपा अध्यक्ष पद पर कार्यकाल हालांकि विवादों से घिरा रहा और उनको इस्तीफा तक देना पड़ गया, इसका कारण भाजपा के उन वरिष्ठ नेताओं को ही माना गया जोकि नागपुर को एक 'संदेश' देना चाहते थे। लेकिन भागवत के सख्त रवैये के आगे किसी की नहीं चली। जब 2014 के लोकसभा चुनावों से पहले विश्व धर्म संसद का आयोजन हुआ और उसमें प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार की बात आई तो मोहन भागवत ने साफ कर दिया था कि जो जनता की पसंद है उसे ही आगे किया जायेगा। गौरतलब है कि उस समय भाजपा कार्यकर्ताओं की मांग थी कि गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाया जाये।

यही नहीं हरियाणा में मनोहर लाल खट्टर और उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ को जब मुख्यमंत्री बनाया गया तो यही माना गया कि यह आरएसएस मुख्यालय से मिले संदेश के मुताबिक किया गया। हरियाणा और उत्तर प्रदेश में भाजपा जिस तरह गुटबाजी में बंटी हुई थी और सहयोगियों की बैसाखी पर निर्भर थी उससे भाजपा को निजात दिलायी गयी।

आडवाणी की एक नहीं चलने दी

नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाये जाने से रोकने के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी ने काफी प्रयास किये लेकिन कोई प्रयास काम नहीं आया। वह पार्टी में अकेले पड़ गये। मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाया गया और भाजपा ने उनके नेतृत्व में पहली बार स्पष्ट बहुमत के साथ केंद्र में सरकार बनाई। भले भाजपा की सफलता के कई कारण हों लेकिन इससे कोई इंकार नहीं कर सकता कि मोहन भागवत के ही कार्यकाल में भाजपा को वह समय देखने को मिला जबकि देश के राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, प्रधानमंत्री जैसे महत्वपूर्ण पदों पर संघ से जुड़े स्वयंसेवक आसीन हुए हों। यही नहीं आरएसएस ने जिस तरह ग्रामीण क्षेत्रों में दिन-रात कार्य किया उससे भाजपा के लिए मजबूत जमीन तैयार हुई और आज 19 राज्यों में भाजपा की बहुमत वाली सरकारें हैं। त्रिपुरा में भाजपा की जीत को तो पूरी तरह से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की मेहनत करार दिया जा सकता है। यहां आरएसएस ने आदिवासी क्षेत्रों में काफी काम किया और उनका दिल जीता।

संघ का अनुशासन सबके लिए अनुकरणीय

आरएसएस की विपक्ष भले ही कितनी आलोचना करता हो लेकिन यह भी एक तथ्य है कि कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी खुद अपनी पार्टी को आरएसएस से अनुशासन सीखने और कड़ी मेहनत करने का उदाहरण दे चुके हैं। यही नहीं देश के पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी भी आरएसएस के वार्षिक कार्यक्रम में शामिल होकर संगठन का अनुशासन देख चुके हैं। कांग्रेस सेवा दल के एक कार्यक्रम में भी कथित रूप से कहा गया था कि आरएसएस के फौजी अनुशासन से सीख लेने की जरूरत है।

आनुषांगिक संगठनों में बनाया बेहतर सामंजस्य

विश्व हिन्दू परिषद को प्रवीण तोगडिया के कब्जे से छुड़ाने का श्रेय भी मोहन भागवत को ही है क्योंकि उनकी गतिविधियां संगठन के लिए मुश्किलें पैदा कर रही थीं। यही नहीं अगर आज बजरंग दल, स्वदेशी जागरण मंच, भारतीय मजदूर संगठन जैसे संघ के संगठन सरकार के लिए मुश्किलें पैदा नहीं कर रहे हैं तो यह संघ के सरकार के साथ बेहतर सामंजस्य का ही परिणाम है। संघ और भाजपा में समन्वय के लिए बनाई गयी समिति की अकसर बैठकें होती हैं जिनमें सरकार को लोगों की अपेक्षाओं से अवगत कराया जाता है और सरकार को उन कमजोरियों के बारे में बताया जाता है जोकि संघ को निचले स्तर से मिले फीडबैक पर आधारित होती हैं। यह वह दौर है जब संघ और भाजपा के संबंध सबसे बेहतर स्थिति में हैं। जरा याद कीजिये स्वर्गीय अटल बिहारी वाजपेयी जी का कार्यकाल जब आरएसएस और भाजपा के बीच संबंध बहुत कटु को गये थे। और तत्कालीन आरएसएस प्रमुख सार्वजनिक रूप से भाजपा सरकार की आलोचना किया करते थे।

सबको मिलाने का काम करते हैं भागवत

मोहन भागवत अपने पूवर्वतियों से एक और मायने में आगे निकल गये हैं और वह यह है कि उन्होंने समाज को संघ से जोड़ने के साथ ही विचारधारा के आधार पर विरोधी समझे जाने वाले लोगों को भी संघ के करीब लाने का प्रयास किया। प्रणब मुखर्जी को संघ के वार्षिक कार्यक्रम में निमंत्रित करना इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। यही नहीं जब जम्मू-कश्मीर में भाजपा का एकदम विरोधी विचारधारा वाली पार्टी पीडीपी के साथ गठबंधन हुआ तो इसे संघ की स्वीकृति थी। इसके अलावा सितम्बर में ही दिल्ली में जो व्याख्यान माला आयोजित की जा रही है उसमें वामपंथी दलों के नेताओं सहित कांग्रेस तथा अन्य विपक्षी नेताओं को आमंत्रित किया जा रहा है ताकि वह करीब आकर संघ को समझें और उसके बारे में अपनी राय यदि संभव हो तो बदलें। गौरतलब है कि कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी इस समय संघ की मानहानि के मामले का अदालत में सामना कर रहे हैं। उन्होंने महात्मा गांधी की हत्या में संघ का हाथ होने का कथित रूप से आरोप लगाया था।

बहरहाल, मोहन मधुकर भागवत भले ही हिन्दूवादी संगठन के प्रमुख हैं लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं कि उन्होंने जाति और धर्म के आधार पर भेदभाव को दूर करने के हर संभव प्रयास किये हैं। पेशे से पशु चिकित्सक भागवत एक व्यावहारिक नेता हैं और संगठन के लिए जो सही हो वही करने के लिए जाने जाते हैं फिर चाहे वह किसी को पसंद आये या नहीं। राष्ट्रवाद और भारतीय संस्कृति को बचाये रखने का अलख जगाने वाले इस नेता को अकसर कई मौकों पर उनके बयानों को लेकर विवादित बनाया गया लेकिन हमारे यहां चुनावी राजनीति में यह सब अब परम्परा-सी हो गयी है। समाज से अस्पृश्यता और भेदभाव समाप्त करने के अपने मिशन में भागवत कामयाब होंगे, ऐसी उम्मीद की जा सकती है।

-नीरज कुमार दुबे

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