पैंतरा बदलने में माहिर हैं मुलायम, बेटे के लिए भाई शिवपाल का साथ छोड़ा

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अजय कुमार । Sep 26 2018 12:26PM

आखिरकार, पुत्र मोह में फंसे मुलायम सिंह ने अपने उस भाई (शिवपाल यादव) को बेगाना बना ही दिया, जिसने एक−दो साल नहीं करीब तीन दशकों की कड़ी मेहनत करके नेताजी को फर्श से अर्श तक पहुंचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी थी।

आखिरकार, पुत्र मोह में फंसे मुलायम सिंह ने अपने उस भाई (शिवपाल यादव) को बेगाना बना ही दिया, जिसने एक−दो साल नहीं करीब तीन दशकों की कड़ी मेहनत करके नेताजी को फर्श से अर्श तक पहुंचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी थी। समाजवादी पार्टी की साइकिल रैली के समापन के बाद दिल्ली के जंतर−मंतर में हुई समाजवादी पार्टी की सभा में जब अखिलेश के साथ मुलायम नजर आये तो लोगों को समझते देर नहीं लगी कि शिवपाल के लिये आगे की राह मुश्किल हो सकती है। वैसे, यह पहला मौका भी नहीं था। जब−जब यादव परिवार में छिड़े घमासान के बीच समाजवादी पार्टी के संरक्षक मुलायम सिंह यादव को किसी एक की चुनने की बारी आई तो वह हर बार बेटे अखिलेश के साथ खड़े नजर आए।

ऐसा लग रहा था कि मुलायम को काफी सोच−समझकर मंचासीन किया गया था। अपने छोटे से भाषण के दौरान मुलायम घर के झगड़े पर तो कुछ नहीं बोले, लेकिन इशारों−इशारों में शिवपाल यादव को जरूर आईना दिखा दिया। उन्होंने कहा कि समाजवादी पार्टी (एसपी) नौजवानों की पार्टी है। यह कभी बूढ़ी नहीं होगी। राजनीति के जानकारों का मानना है कि मुलायम ने यह कहकर स्पष्ट कर दिया है कि अब एसपी में अखिलेश युग ही चलेगा। उन्होंने अखिलेश को आशीर्वाद दिया और भाई शिवपाल के मोर्चे के संरक्षक या राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने के कयासों पर विराम लगा दिया। इसे शिवपाल के लिए करारा झटका माना जा रहा है। 

       

गौरतलब है कि शिवपाल ने बीती 29 अगस्त को समाजवादी पार्टी से नाता तोड़ते हुए सेक्युलर मोर्चे का गठन किया था। शिवपाल लगातार दावा कर रहे थे कि मुलायम का आशीर्वाद उनके साथ है। वह मुलायम को मोर्चे का राष्ट्रीय अध्यक्ष तक बनाने के संकेत दे रहे थे, लेकिन मुलायम चुप थे। ऐसे में सबकी नजरें साइकिल यात्रा के समापन समारोह पर लगी थीं, लोग देखना चाहते थे कि नेताजी आते हैं या नहीं ? मुलायम बेटे का साथ देंगे या भाई का ? ध्यान रखना होगा कि जब से यादव कुनबे में विवाद पैदा हुआ था, तब से अभी तक किसी सार्वजनिक मंच पर पिता−पुत्र साथ−साथ नजर नहीं आए थे, लेकिन यह पहला अवसर था जब पिता−पुत्र एक साथ मंच पर नजर आए। अपने संबोधन के दौरान जैसे ही मुलायम ने समाजवादी पार्टी को युवाओं की पार्टी बताया। शिवपाल को पूरा माजरा समझने में देर नहीं लगी। मुलायम के चंद मिनटों के भाषण ने शिवपाल की सियासी जमीन को हिला कर रख दिया। अभी तक शिवपाल यही कहते फिर रहे थे कि हम नेताजी के सम्मान के लिए आए हैं, हम उनके सम्मान की लड़ाई लड़ेंगे, लेकिन अब सम्मान वाली बात बेईमानी हो चुकी है। मुलायम का अखिलेश के साथ मंच साझा करना कई संकेत दे गया।

वैसे, राजनीति के जानकार मुलायम के पैंतरे से अचंभित नहीं हैं। ऐसे लोगों को लगता है कि मुलायम की सियासत पैंतरेबाजी से भरी हुई है। वह पहले भी कई बार इसी तरह से पैंतरा बदल चुके हैं। 2012 के विधानसभा चुनाव को याद कीजिए जब चारों तरफ चर्चा चल रही थी कि मुलायम इस बार स्वयं की जगह अपने भाई शिवपाल को मुख्यमंत्री बना सकते हैं। तब मुलायम ने सोची सोची समझी रणनीति के तहत अखिलेश को आगे करके उन्हें मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठा दिया था।

दरअसल, मुलायम के लिये अखिलेश को मुख्यमंत्री पद सौंपने के बाद अपने जीते जी पार्टी का पूरा स्वामित्व सौंपना एक संकल्प जैसा था। इसकी सबसे बड़ी वजह शिवपाल ही थे। शिवपाल के रहते मुलायम सिंह के लिए ऐसा करना आसान नहीं था। एक समय था जब उन्हें मुस्लिम जनाधार पर कब्जे के लिए विश्वनाथ प्रताप सिंह से प्रतिस्पर्धा करनी पड़ रही थी और इसमें आगे निकलने के लिए उन्होंने अपने बाद आजम खां को अपनी पार्टी के सबसे बड़े हीरो के रूप में पेश कर रखा था, लेकिन राष्ट्रीय राजनीति की खातिर जब उनको प्रदेश विधानमंडल दल का नेता पद खाली करना पड़ा तो उन्होंने आजम खां को दरकिनार कर कुनबापरस्ती के तहत शिवपाल को नेता विधानमंडल दल बनाया।

विधानमंडल दल का नेता प्रतिपक्ष बनाते ही शिवपाल ने यह मुगालता पाल लिया कि बड़े भैया मुलायम तो अब प्रधानमंत्री पद पर पहुंचने की जद्दोजहद में लगेंगे और प्रदेश में अवसर मिलने पर अपनी जगह वे उन्हें आगे करेंगे। लेकिन 2017 में जब समाजवादी पार्टी पहली बार पूर्ण बहुमत में आयी तो मुलायम सिंह ने उनको गच्चा दे दिया और नौसिखिया होने के बावजूद अखिलेश को मुख्यमंत्री के सिंहासन पर विराजमान कर दिया।

2015 में बिहार में हुए विधानसभा चुनाव को कौन भूल सकता है। जब मुलायम ने ऐन वक्त पर समाजवादी पार्टी को महागठबंधन से अलग कर लिया था। मुलायम सिंह यादव को करीब से जानने वाले तो यही कहते हैं कि मुलायम एक ऐसे नेता हैं जो अपनी महत्वकांक्षा के लिए कोई भी पैंतरा चल सकते हैं। उनकी सबसे खास बात यह है कि वे अपनी महत्वाकांक्षा को कभी छुपाते नहीं हैं। यही वजह है कि राजनीतिक दल मुलायम पर विश्वास नहीं करते हैं।

मुलायम सिंह यादव ने राजनीति के दांव−पेंच राम मनोहर लोहिया और चौधरी चरण सिंह से सीखे थे। इन्हीं लोगों के साथ मिलकर मुलायम ने एंटी कांग्रेस नेता के रूप में अपनी छवि को पुख्ता किया था। साल 1967 में मुलायम सिंह यादव पहली बार राम मनोहर लोहिया की संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़ कर विधायक बने थे। लोहिया की मृत्यु के बाद मुलायम पाला बदल कर चौधरी चरण सिंह की भारतीय क्रांति दल में शामिल हो गए। बाद में दोनों पार्टियों को मिलाकर भारतीय लोकदल बनाया गया, लेकिन चौधरी चरण सिंह की मौत के बाद मुलायम ने उनके असली उत्तराधिकारी अजीत सिंह के नेतृत्व से इनकार कर दिया और भारतीय लोकदल को तोड़ दिया।

-अजय कुमार

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