आपातकाल के लिए केंद्र की ओर से माफी मांगें मोदी
आपातकाल के दौरान पहले की सरकार की ओर से की गई ज्यादतियों के लिए प्रधानमंत्री मोदी को केंद्र की ओर से माफी मांगनी चाहिए। साथ ही सुप्रीम कोर्ट को भी अपने पूर्ववर्तियों के फैसलों की निंदा करने के लिए प्रस्ताव पारित चाहिए।
यह आश्चर्य की बात है कि भारत का अगला राष्ट्रपति चुनने की प्रक्रिया में हमारा राष्ट्र आपातकाल को भूल गया जिसे 42 साल पहले लगाया गया था। एक लाख से ज्यादा लोग बिना सुनवाई के हिरासत में ले लिए गए थे। मीडिया जो उस समय मौजूद हालत की जानकारी दे सकता था, की आवाज बदं कर दी गई थी। सरकारी अधिकारी संविधान से बाहर की सत्ता रखने वाले संजय गांधी, जो अपनी मां इंदिरा गांधी के नाम पर देश पर शासन कर रहे थे, की ओर से आ रहे आदेशों को एक आज्ञाकारी की तरह जारी कर रहे थे। न्यायपालिका ने आत्मसमर्पण कर दिया था और इसे वैधानिक करार दे दिया था कि संसद संविधान से मिले मौलिक अधिकारों को स्थगित कर सकती है। यहां तक कि आपातकाल को भी उचित बता दिया गया था। एक ही जज जस्टिस एचआर खन्ना ने विरोध में फैसला दिया। उनके जूनियर को उनसे ऊपर कर दिया गया। यह एक अलग बात है कि देश ने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को चुनावों में सत्ता से पूरी तरह बाहर कर खदेड़ दिया। यही हाल उनके पुत्र संजय गांधी का हुआ।
मुझे इस बात से निराशा होती है कि सुप्रीम कोर्ट ने उस फैसले की निंदा करने के लिए कभी कोई प्रस्ताव पारित नहीं किया जिसके फैसले की वजह से न्यायपालिका बदनाम हुई। अभी भी ज्यादा देर नहीं हुई है। सुप्रीम कोर्ट की खंडपीठ में कई उदार जज हैं। वे इसकी भरपाई एक प्रस्ताव के जरिए कर सकते हैं कि उनके पूर्ववती जजों ने आपातकाल का समर्थन कर गलती की।
इसके साथ ही, आपातकाल के दौरान पहले की सरकार की ओर से की गई ज्यादतियों के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को केंद्र की ओर से माफी मांग लेनी चाहिए। उस समय के एटार्नी जनरल निरेन डे ने यहां तक दलील दी थी आपाकाल के दौरान जीने का मौलिक अधिकार भी छीन लिया गया था। दिल्ली के वकीलों में इतना भय था कि बंदी प्रत्यक्षीकरण की मेरी पत्नी की याचिका पर मुंबई के पक्ष में सोली सोराब जी तथा दिल्ली के वीएम तारकुंडे ने अदालत में बहस की। फिर भी मुझे तीन महीने जेल में बिताना पड़ा।
दो जजों, जस्टिस रंगराजन और जस्टिस आरएन अग्रवाल को इस मामले पर फैसा देने के लिए सजा भुगतनी पड़ी। पहले का गुवाहाटी तबादला कर दिया गया जहां आज भी लोग उनकी निष्पक्षता के लिए उन्हें याद करते हैं। दूसरे का ओहदा घटा दिया गया और सत्र न्यायालय में भेज दिया गया। लेकिन उन्होंने पूरी आजादी से अपना काम जारी रखा।
शायद हाल के दिनों में एक सजग मीडिया की वजह से जजों पर दबाव कम हो गया है। लेकिन खंडपीठों में जजों की नियुक्तियों में बहुत बुरा हो रहा है। ये नियुक्तियां शासकों की सनक और मर्जी के अनुसार हो रही हैं। यह कांग्रेस सरकार के साथ शुरू हुआ और भारतीय जनता पार्टी के शासन में भी जारी है।
मुझे याद है कि यह प्रकिया उस समय शुरू हुई जब इंदिरा गांधी ने जस्टिस जेएम शेलट, केएस हेगडे तथा एएन ग्रोवर को लांघ कर जस्टिस एएन रे को मुख्य न्यायाधीश बना दिया था। श्रीमति गांधी की लोकसभा सदस्यता खत्म कर दी गई थी और चुनाव में गलत तरीके अपनाने के लिए उन्हें छह सालों के लिए चुनाव में हिस्सा लेने के अयोग्य घोषित कर दिया गया। फैसले को शालीनता से स्वीकार करने के बदले उन्होंने आपातकाल लगा दिया और चुनाव कानूनों में ही संशोधन कर दिया।
आपातकाल में जो ज्यादतियां इंदिरा गांधी तथा संजय गांधी ने कीं वे शायद मेरे लिए अतीत की बात हों, लेकिन इसे सिर्फ वे लोग याद नहीं करते जिन्होंने यातना सही बल्कि वे भी याद करते हैं जो लोकतंत्र के समर्थक हैं। इंदिरा गांधी के बाद सत्ता में आई जनता पार्टी ने आपातकाल लगाना असंभव करने के लिए संविधान में संशोधन कर दिए। जस्टिस खन्ना का यह फैसला कि संविधान का बुनियादी ढांचा बदला नहीं जा सकता है मानदंड बन चुका है। इसने शासन की संसदीय व्यवस्था सुनिश्चित कर दी है और उस समय से हर एक शासन को न्यायपालिका के साथ खिलवाड़ करने से रोक रखा है।
आखिरकार, न्यायपालिका की आजादी न्यायाधीशों के स्तर पर निर्भर करती है। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र अमेरिका में सुप्रीम कोर्ट रिपब्लिकन तथा डेमोक्रेट जजों में विभाजित है। जजों का पद आजीवन होता है इसलिए किसी पार्टी की ओर से नियुक्त जज भी अपनी पुरानी वफादारी से ऊपर उठकर स्वतंत्र और निष्पक्ष हो गए हैं।
भारत में हमें उस समय सबसे अच्छे न्यायाधीश मिले जब सरकार ने नियुक्ति की थी। लेकिन अब दलीय राजनीति घुस आई है। कम से कम, हाई कोर्ट में यही देखा गया है कि सत्ताधारी पार्टी ने सबसे अच्छे वकीलों को जज नहीं बनाया है बल्कि उन्हें बनाया है जो किसी खास राजनीतिक दल से जुड़े रहे हैं। यहां तक कि सुप्रीम कोर्ट में भी कुछ नियुक्तियां संदेह के साए में आई हैं।
पहले के कुछ उदाहरण तारीफ के काबिल हैं। पूर्व सालिसीटर जनरल गोपाल सुब्रमणियम का ही मामला लीजिए। सुब्रमणियम की सुप्रीम कोर्ट में नियुक्ति में नरेंद्र मोदी सरकार ने अड़ंगा लगाया। सरकार पर अड़ंगा डालने का आरोप लगाते हुए सुब्रमणियम ने कहा, 'मेरी एक वकील के रूप में स्वतंत्रता से अंदेशा हो रहा है कि मैं सरकार की लाइन का अनुसरण नहीं करूंगा। मेरी नियुक्ति से सरकार की ओर से इंकार में यह कारण निर्णायक है।' उन्होंने अपने को दौड़ से बाहर कर लिया।
वास्तव में, उनके कहने से गुजरात पुलिस को सोहराबुद्दीन फर्जी मुठभेड़ मामले में हत्या का मामला दर्ज करना पड़ा। जब मुख्य गवाह तुलसीराम प्रजापति को संदेहास्पद परिस्थितियों में मार दिया गया तो, सुब्रमणियम ने मामले को सीबीआई को स्थानांतारित करने की सिफारिश की थी। खास बात यह है कि उन्होंने यह भी स्वीकार किया कि सुप्रीम कोर्ट ने उनकी सलाह पर ही अभी के भाजपा अध्यक्ष अमित शाह को जमानत देते समय उनके गुजरात प्रवेश पर पाबंदी लगा दी थी।
सबसे खराब भूमिका मीडिया की थी। मुझे याद आता है कि जब आपातकाल लागू किया गया तो गुस्सा था और मेरी कोशिश से सौ से अधिक पत्रकार आपातकाल की निंदा के लिए प्रेस क्लब में जमा हुए थे। लेकिन अपनी हिरासत से लौटने के बाद जब मैंने सत्रू को फिर से पकड़ने की कोशिश की तो शायद ही कोई मेरे समर्थन के लिए मौजूद था। श्रीमती गांधी ने पत्रकारों के मन में इतना ज्यादा डर पैदा कर दिया था कि प्रेस की आजादी, जिसे वह बहुत प्यार करते थे, से ज्यादा वे अपनी नौकरियों के बारे में चिंतित थे।
कुलदीप नायर
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