अब देखना होगा राजनीतिक दल कितने अपराधियों को टिकट देते हैं

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हिन्दी साहित्य के लब्धप्रतिष्ठित व्यंग्यकार शरद जोशी ने करीब पच्चीस वर्ष पूर्व एक व्यंग्य लिखा ''जिसके हम मामा हैं'', इसका सार यह है कि एक ठग बनारस आए एक बुजुर्ग व्यक्ति का भानजा बनकर उनका माल−असबाब लेकर चंपत हो जाता है।

हिन्दी साहित्य के लब्धप्रतिष्ठित व्यंग्यकार शरद जोशी ने करीब पच्चीस वर्ष पूर्व एक व्यंग्य लिखा 'जिसके हम मामा हैं', इसका सार यह है कि एक ठग बनारस आए एक बुजुर्ग व्यक्ति का भानजा बनकर उनका माल−असबाब लेकर चंपत हो जाता है। मामाजी गंगा के घाट पर तौलिया लपेटे उसे ढूंढते रहते हैं। इस व्यंग्य के माध्यम से जोशी ने मौजूदा राजनीतिक और चुनावी व्यवस्था पर कटाक्ष किया है। जिस तरह वह ठग भानजा बनकर बुजुर्ग के लत्ते तक ले गया, उसी तरह आश्वासनों का झुन्झुना थमा कर नेता हर बार पांच साल के लिए चंपत हो जाते हैं और मतदाता ठगे से रह जाते हैं।

इस चुनावी ठग विद्या से मतदाताओं को सचेत करने के लिए जोशी ने इस व्यंग्य की रचना की। अब एक बार फिर यही व्यंग्य मतदाताओं के लिए कसौटी है। चुनाव आयोग ने पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव की दुदुन्भी बजा दी है। हालांकि राजनीतिक दल काफी पहले से ही यात्राओं और सभाओं के जरिए मतदाताओं को लुभाने में लगे हुए हैं। राजनीतिक दल लगभग वही होंगे। उम्मीदवारों में कुछ परिवर्तन जरूर हो सकता है। देखना यही है कि मतदाता मामाजी की तरह झांसों के जाल में नहीं फंसें। हालांकि विधानसभा चुनाव परिणामों को देश का पूरा रूझान नहीं माना जा सकता किन्तु ये काफी हद तक लोकसभा के चुनावों को प्रभावित करने वाले साबित होंगे।

इन चुनाव परिणामों के बाद केंद्र की नरेन्द्र मोदी सरकार को नए सिरे से लोकसभा की रणनीति तय करनी पड़ेगी। इसकी तैयारी के पूर्व संकेत के तौर पर पेट्रोल−डीजल के दामों में कमी सामने आ चुकी है। यदि चुनाव परिणाम भाजपा के पक्ष में रहे तो केंद्र सरकार से ज्यादा रियायत मिलने की उम्मीद नहीं होगी। ऐसे में यही माना जाएगा कि मतदाता केंद्र सरकार के कामकाज से संतुष्ट हैं। केंद्र सरकार भी आय से अधिक भारी घाटा खाकर अधिक लोकलुभावन योजनाओं की घोषणा करने से बचेगी। यदि परिणाम भाजपा के खिलाफ आए तो निश्चित तौर पर केंद्र सरकार को ज्यादा जनोन्मुखी होने पर विवश होना पड़ेगा। जैसा कि विधानसभा चुनाव आसन्न देख कर हजारों करोड़ का घाटा सह कर भी पेट्रोल−डीजल की दरों में कटौती की है।

इससे पहले केंद्र और राज्य तरह−तरह की दलीलें देते हुए, इस कटौती से बचते रहे। चुनावों की घोषणा से पूर्व ही राजनीतिक दलों ने ऐसे वादों की पोटली खोल दी, जिन्हें खासकर सत्तारूढ़ दलों ने पांच साल रह कर भी पूरा नहीं किया। वादों की रही−सही कसर चुनावी घोषणा पत्रों में सामने आ जाएगी। मतदाताओं के सामने यक्ष प्रश्न यही है कि कैसा और किस दल का उम्मीदवार चुनें। सुप्रीम कोर्ट ने उम्मीदवारों की असलियत उजागर करने की दिशा में एक लोकतांत्रिक हथियार मतदाताओं को जरूर थमा दिया है।

उम्मीदवारों को अपने अपराधिक रिकॉर्ड का ब्यौरा मीडिया में विज्ञापनों के माध्यमों से सार्वजनिक करना होगा, जिसे राजनीतिक दल अक्सर छिपा जाते हैं। मतदाताओं के सामने अब यह स्थिति नहीं होगी कि अपराधी किस्म के उम्मीदवारों की जानकारी न हो सके और उन्हें धोखे से चुन लिया जाए। अपराधियों का टिकट काटने की बजाए राजनीतिक दल दूसरे दलों में भी ऐसा होने की दुहाई देते हैं। सुप्रीम कोर्ट की मंशा की असली अग्नि परीक्षा तो राजनीतिक दलों की देनी होगी। देखना यही है कि राजनीतिक दल कितने आपराधिक किस्म के नेताओं को चुनाव मैदान में उतारते हैं।

अभी तक सारे ही प्रमुख क्षेत्रीय और राष्ट्रीय दल एकमात्र आधार चुनाव जीतना ही मानते आए हैं, इसके लिए बेशक कितने ही माफिया और अपराधियों को टिकट क्यों न देना पड़े। मतदाताओं के सामने उम्मीदवारों की साफ−सुथरी छवि के अलावा यह प्रश्न भी होगा कि किसने विधानसभा क्षेत्र में कितना विकास कराया है। यदि विकास और प्रत्याशी की उपलब्धता सहज होगी तो निश्चित तौर पर यह मतदाताओं पर असर डालेगा। राजनीतिक दलों की छवि और प्रादेशिक तथा राष्ट्रीय मुद्दों का नम्बर इसके बाद आएगा।

देश में राजनीतिक दलों के अलावा ऐसे निर्दलीय प्रत्याशी भी रहे हैं, जिन्होंने पार्टी का सफाया होने के बाद भी चुनावी जीत का झंडा गाढ़े रखा। पार्टियों के टिकट पर और निर्दलीय के तौर पर कई बार जीत दर्ज की। इससे जाहिर है कि मतदाताओं को दूसरे मुद्दों से बहुत ज्यादा सरोकार नहीं है, यदि मुद्दे बेहद संवेदनशील नहीं रहे हों। मतदाताओं के सामने चुनौती सिर्फ अपराधी छवि के उम्मीदवारों की ही नहीं है, बल्कि ऐसों की भी है, जो चुनाव जीतने के लिए जाति, धर्म, सम्प्रदाय, क्षेत्र और परिवारवाद का सहारा लेते हैं।

इसके साथ ही बाहुबल और धनबल की ताकत को भी मतदाताओं को आईना दिखाना है। यह सर्वविदित है कि चुनाव आयोग के चुनावी खर्च की सीमा तय करने से कई गुना अधिक धन खर्च किया जाता है। आयोग इस मामले में अभी तक असहाय ही नजर आया है। मतदाताओं को चोरी−छिपे कई तरह के प्रलोभन दिए जाते हैं। विशेषकर गरीब तबके के मतदाताओं के लिए ऐसे प्रलोभनों से बचना आसान नहीं है। ऐसे मामले चुनाव आयोग की पकड़ में भी आसानी से नहीं आते हैं। ऐसा भी नहीं है कि मतदाता सिर्फ प्रलोभनों और अन्य प्रभावित करने वाले मुद्दों के आधार पर वोट देते रहे हैं। यदि ऐसा होता तो राज्यों और केंद्र में सरकारों में बदलाव नहीं होता। इससे जाहिर है कि मतदाताओं ने पारखी दृष्टि से निर्णय दिए हैं। यही परख इन विधानसभा चुनावों में होनी है। राजनीतिक दल और प्रत्याशी आंखों में धूल नहीं झोंक सकें, इसी का पुख्ता इंतजाम मतदाताओं को करना है, ताकि आगामी लोकसभा चुनाव में कोई भी राजनीतिक दल मतदाताओं को 'घर की मुर्गी दाल बराबर' समझने की भूल नहीं कर सके।

-योगेन्द्र योगी

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