हम सभ्य होने का दावा तो करते हैं लेकिन मन के अंदर पशु बैठा रखा है

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ललित गर्ग । Aug 24 2018 12:11PM

आज का मनुष्य भूलभूलैया में फंसा हुआ है। यदि देखा जाये तो संसार का विस्तार यानी सुविधावादी और भौतिकवादी जीवनशैली एक प्रकार की भूलभूलैया ही है। भोग के रास्ते चारों ओर खुले हुए हैं।

आज का मनुष्य भूलभूलैया में फंसा हुआ है। यदि देखा जाये तो संसार का विस्तार यानी सुविधावादी और भौतिकवादी जीवनशैली एक प्रकार की भूलभूलैया ही है। भोग के रास्ते चारों ओर खुले हुए हैं। धन, सत्ता, यश और भोग- इन सबका जाल बिछा है और यह जाल इतना मजबूत है कि एक बार आदमी उसमें फंसा कि निकल नहीं पाता। जिस प्रकार दलदल में फंसा मनुष्य उसमें से निकलने के लिये जितना प्रयत्न करता है, उतना ही और फंसता जाता है, यही स्थिति वर्तमान युग में मनुष्य के साथ है। भोग-विलास, सांसारिक माया-जाल आदि की रचना मनुष्य स्वयं करता है और स्वयं ही उसमें फंसता जाता है। उसकी अपनी बनाई हथकड़ी-बेड़ी उसी के हाथ-पैरों में पड़ जाती है। जब विवेक नष्ट हो जाता है तो ऐसा ही होता है। रॉबर्ट ब्राउनिंग- ‘‘जो स्थिति आपके दिमाग की है, वही आपकी खोज की है- आप जिस चीज की इच्छा करेंगे, वह पा लेंगे।’’

पिछले दिनों दिल्ली के बुराड़ी में एक ही परिवार के ग्यारह लोगों की मौत ने सबको दहला दिया था, जहां सार्थक जीवन जीने की और सोच की मौलिक दिशाएं उद्घाटित नहीं होतीं वहां इंसान में जड़ता और नैराश्य छा जाता है। वह दुनिया की अच्छी-बुरी धारणाओं के आधार पर अपने जीवन की दिशाएं तय करता है, अपने दिल की आवाज- भीतर की ध्वनि और स्वतंत्र सोच का इस्तेमाल नहीं करता। ऐसे व्यक्ति असन्तुष्ट कामनाओं एवं दमित आकांक्षाओं के कारण मानसिक रोग से ग्रस्त हो जाते हैं। उनका आत्मविश्वास एवं मनोबल कमजोर पड़ जाता है।

आज हमारे देश का ही नहीं, बल्कि सारी दुनिया का आदमी दिग्भ्रमित हो गया है। कभी-कभी तो ऐसा लगता है कि कुएं में भांग पड़ गयी है, पर ऐसा नहीं है। सभी देशों में विवेकवान लोग भी हैं, लेकिन उनकी संख्या सीमित है। ज्यादातर लोग तो अपनी संकीर्ण स्वार्थ को देखते हैं और उसी की पूर्ति में जीवन व्यतीत कर देते हैं। वे सभ्य होने का दावा करते हैं, लेकिन उनके भीतर बैठा पशु आज भी जीवित और जागृत है। वही मनुष्य को ऐसे कर्म करने को प्रेरित करता है, जो मानवोचित नहीं है।

यहां मुझे गणि राजेन्द्र विजय के एक प्रवचन का स्मरण हो आया है, जिसमें उन्होंने कहा था कि हम लोग जो बाहर खोजते हैं, वह हमारे अंतर में विद्यमान है, लेकिन हम उसे देख नहीं पाते। उन्होंने बड़े पते की बात कही है। दुनियादारी का नशा शराब या मादक द्रव्यों के नशे की भांति होता है। वह नशा तब छूट सकता है, जबकि हम पर उससे भी कोई तेज नशा चढ़े। वह तेज नशा ‘अध्यात्म’ का है। अध्यात्म ही वह आधार है जो मनुष्य को स्वयं से स्वयं का साक्षात्कार करवाता है। मनुष्य के भीतर जो अमृत-घट विद्यमान है, उस पर पड़े आवरण को हटाता है, क्योंकि वही तो वास्तविक आनन्द का स्रोत है।

इस आनन्द के स्रोत से रूबरू होने के लिये जरूरी है व्यवहार और संबंधों का परिष्कार। व्यवहार और संबंधों के प्रति एक सकारात्मक दृष्टिकोण का निर्माण अपेक्षित है। जैन दर्शन का बहुत प्रसिद्ध शब्द है सम्यक् दर्शन, सम्यक् दृष्टिकोण। जब सम्यक् दृष्टिकोण होता है तो सब कुछ ठीक लगता है, जिसके फलस्वरूप जीवन दुःख से मुक्त होकर सुख से ओतप्रोत होता है। जहां दृष्टिकोण भ्रामक हो गया, अच्छी चीज भी बुरी लगने लग जाती है। उस समय वह अच्छाई को देख नहीं सकता। सम्यक् दृष्टि वाला व्यक्ति बुराई में भी अच्छाई देखता है, दुःख में भी सुख का अनुभव करता है। इसलिए हमें सम्यक् दृष्टिकोण पर ध्यान देना है।

हमारा व्यवहार अच्छा हो, व्यवहार मधुर हो, व्यवहार कटु न हो, व्यवहार सुखद हो, दुःखद न हो आदि-आदि प्रश्नों पर विचार करें तो उसकी पृष्ठभूमि में सबसे पहले सम्यक् दृष्टिकोण और मिथ्या दृष्टिकोण पर विचार करना चाहिए। सम्यक् दृष्टिकोण यानी सकारात्मक सोच है तो सब अच्छा होता है और मिथ्या दृष्टिकोण यानी नकारात्मक सोच है तो फिर सब अच्छा नहीं होता।

डिजरायली ने एक बार कहा था- ‘‘जीवन बहुत छोटा है और हमें संतोषी नहीं होना चाहिए।’’ हमें आनन्द के स्रोत की खोज करते रहना चाहिए। आनन्द के व्यवहार की चर्चा करते समय ईर्ष्या, कलह, निंदा, चुगली, अपवाद आदि-आदि जो समस्याएं हैं, जो धार्मिक दृष्टि से ही नहीं बल्कि मानवीय दृष्टि से भी पाप हैं मानसिक रोग पैदा करने वाली हैं और संबंधों को बिगाड़ने वाली हैं इनके बारे में कुछ सोचना है। इन पर सही चिंतन तब होगा जब सबसे पहले हमारा दृष्टिकोण सम्यक् होगा। दृष्टिकोण सम्यक् होगा और इन स्थितियों का विश्लेषण करेंगे तो ईर्ष्या में नहीं आएंगे। अन्यथा ईर्ष्या स्वाभाविक है। जब यह धारणा है कि सबको समान काम देना चाहिए, सबके साथ समान व्यवहार होना चाहिए, तब ईर्ष्या होना स्वाभाविक है। मेरे साथ ऐसा व्यवहार नहीं किया, उसके साथ व्यवहार किया। मन में अप्रियता पैदा हो गई, एक विद्वेष पैदा हो गया। किंतु जब यह स्पष्टता है कि समानता एक अलग बात है, व्यवहार बिल्कुल अलग बात है तब यह समस्या नहीं होती।

संकुचित दृष्टिकोण अपने अहं की प्रबलता के कारण बनता है। इतना अहं प्रबल है कि अपना ही स्थान है, उस जगह दूसरे का कोई स्थान नहीं है। दृष्टिकोण सीमित हो जाता है, संकरा हो जाता है। उदार दृष्टि वाले व्यक्ति में सौहार्द की भावना होती है। व्यवहार का बड़ा सूत्र है सौहार्द भावना। अगर हम व्यवहार कौशल की खोज करें, उनके सूत्र खोजें और सौहार्द भावना के मर्म को समझ लें तो हमारा व्यवहार काफी अच्छा हो सकता है। सौहार्द भावना बहुत पर्याप्त है व्यवहार परिष्कार के लिए। जबकि ऐसा नहीं होता, क्योंकि हर आदमी अपनी सोच को सही मानता है। कहीं कोई अपने आग्रह को ढीला नहीं छोड़ता। औरों की बात को आदर नहीं देता। यही वजह है कि औरों के सुझाव, सीख, आज्ञा, प्रेरणा, उपदेश सभी अच्छे होते हुए भी हमारे लिये उनका कोई मूल्य नहीं। न तो अपने अस्तित्व की सीमा को छोटा कर सकते हैं और न औरों के अहसानमन्द होकर जी सकते हैं। यही बड़प्पन की मनोवृत्ति अहं को झुकाती नहीं। जबकि सौहार्द भावना हमें झुकना सिखाती है। इसी से नये आइडिया आ सकते हैं। जैसा कि प्रो. ब्रोसनन ने एक बार कहा था-‘ ‘किसी को भी कोई आइडिया आ सकता है। और बेहतरीन आइडियाज आपके आस-पास ही होते हैं।’’

सौहार्द भावना का तात्पर्य है- दूसरे की विशेषता देखकर प्रसन्नता जाहिर करना, दूसरे की विशेषता को प्रोत्साहन देना और दूसरे की विशेषता को पवन बनकर जनता तक पहुंचाना। जैसे हवा फूलों की सुगंध को दूर तक पहुंचाती है वैसे दूर तक पहुंचाना, यह एक उदार दृष्टिकोण का कार्य है और यही मानवता की ज्योतिर्मय ऊर्जा है। मानवता का दीप बुझ जाता है तो अन्धकार का राज्य हो जाता है। तब मनुष्य को भले-बुरे, कर्तव्य- अकर्तव्य, सार-असार, पवित्रता-अपवित्रता का ज्ञात नहीं रहता। आज दुनिया त्रस्त है, परेशान है क्योंकि वह इसी स्थिति से गुजर रही है।

सच यह है कि संसार में सुख भी है और दुःख भी। दोनों की अनुभूति एक-दूसरे के अस्तित्व के कारण ही होती है। दिन का महत्व इसलिये है कि रात आती है और रात का महत्व इसलिये है कि रात के बाद दिन आता है। लेकिन सच्चाई यह है कि सुख सब चाहते हैं, दुःख कोई नहीं चाहता। यही कारण है कि व्यक्ति दुःख-निवारण का मार्ग खोजता है, ताकि वह सुख-चैन से रह सके। लेकिन उसकी खोज की दिशाएं गलत हैं, वह स्वयं को बदलना नहीं चाहता। उसकी चाह सदैव दूसरों को ही बदलते हुए देखने की रहती है। जबकि स्वयं में आए बदलाव या भीतर से आया बदलाव ही हमें समस्याओं से स्थायी समाधान दे सकता है। अपने जीवन में खुशियों और संपूर्णता के अवतरण के लिये जीवन के प्रति एक नये नजरिये को अपनाना होगा और वह है दूसरों को बदलने के बजाय स्वयं को बदलें। जैसा कि टेनीसन ने कहा था- ‘‘मेरे मित्रों! आओ, एक नई दुनिया बसाने के लिए कभी देर नहीं होती।’’ इसलिए चलिए, कुछ बड़ा सोचें और एक ऐसी दुनिया बसाएं, जिसके बारे में हमसे पहले किसी ने सपना भी न देखा हो। 

-ललित गर्ग

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