कोई मंदिर नहीं छोड़तीं पार्टियाँ, अब सबरीमाला पर सब कर रहे राजनीति

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समान मुद्दों पर राजनीतिक दल वोट बैंक की खातिर कैसे गुलाटी खाते हैं, सबरीमाला मंदिर विवाद इसका नया उदाहरण है। एक जैसे मुद्दों पर वोटों के समीकरण के हिसाब से पार्टियों के रूख बदलते रहते हैं।

समान मुद्दों पर राजनीतिक दल वोट बैंक की खातिर कैसे गुलाटी खाते हैं, सबरीमाला मंदिर विवाद इसका नया उदाहरण है। एक जैसे मुद्दों पर वोटों के समीकरण के हिसाब से पार्टियों के रूख बदलते रहते हैं। राजनीतिक दलों को लगना चाहिए कि किसी मुद्दे पर वोटों का ध्रुवीकरण किया जा सकता है, फिर कोई भी उसमें पीछे नहीं रहना चाहता। इससे चाहे कानून का उल्लंघन हो या फिर देश की एकता−अखंडता−समानता का नुकसान हो।

ताजा विवाद केरल के सबरीमाला मंदिर में महिलाओं को प्रवेश के लिए दिया गया सुप्रीम कोर्ट का फैसला है। इस फैसले के आने के बाद राजनीतिक दलों की तो मानो मुराद पूरी हो गई। यह मुद्दा हॉट केक बन गया है। देश के विकास से जुड़े बाकी तमाम मुद्दे हाशिये पर चले गए। सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के बाद से ही इस पर विवाद शुरू हो गया था। फैसला आते ही भाजपा समर्थकों और अन्य लोगों ने पहले ही ऐसा माहौल तैयार कर दिया कि अलबत्ता तो महिलाएं मंदिर में आएं ही नहीं, यदि आ भी जाएं तो उन्हें प्रवेश नहीं करने दिया जाए।

विरोध और विवाद की आशंका के मद्देनजर कुछ सक्रिय सामाजिक कार्यकर्ताओं को छोड़कर चुनिंदा महिलाओं ने ही मंदिर में प्रवेश का प्रयास किया। वही हुआ जिसका अंदेशा था, फैसला विरोधी लोगों ने पुलिस की मौजूदगी में उन्हें उल्टे पांव लौटने को मजबूर कर दिया। सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से सबसे ज्यादा दुविधा में रही केरल की मार्क्सवादी सरकार। मार्क्सवाद तो प्रारंभ से ही धर्म को अफीम की संज्ञा देता रहा है, किन्तु भारतीय परिप्रेक्ष्य में पार्टी का यह वैश्विक विचार लागू नहीं हो सका।

मुख्यमंत्री पी. विजयन ने सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने के बाद एक बार भी दृढ़ता नहीं दिखाई कि हर हाल में सुप्रीम कोर्ट का फैसला लागू होगा। माकपा सरकार ने सुप्रीम कोर्ट की अवमानना के भय से सुरक्षा के इंतजाम जरूर किए, किन्तु महिलाओं को मंदिर में सुरक्षित प्रवेश कराने पर दृढ़ता नहीं दिखाई। मुद्दा चूंकि केरल क्षेत्र विशेष का था, इसलिए कांग्रेस और भाजपा जैसे राष्ट्रीय दलों ने इसमें सीधे कूदने के बजाए घुमा−फिराकर बयान दिए। कांग्रेस ने सतही तौर पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले का समर्थन किया। इसे सही मायनों में लागू कराने के लिए धरना प्रदर्शन या मंदिर तक महिला कार्यकर्ताओं की रैली इत्यादि निकालने की बजाए बयानबाजी तक सीमित रही।

इसी तरह केरल में गिने−चुने समर्थकों के विरोध प्रदर्शन को छोड़ कर भाजपा भी तेल और और उसकी धार को नापती रही। महिलाओं के मंदिर प्रवेश के विरोध करने वालों की गिरफ्तारी पर केरल हाईकोर्ट की नाराजगी के बाद मानो भाजपा की मानो मनचाही मुराद पूरी हो गई। जिससे पहले भाजपा बचती आ रही थी। भाजपा खुलकर सामने आ गई। पार्टी अध्यक्ष अमित शाह ने हिदायत देते हुए कहा कि अदालत और सरकार को ऐसे मुद्दों पर निर्णय नहीं देना चाहिए, जिनसे लोगों की भावनाएं आहत होती हों। शाह ने इस मुद्दे पर पार्टी का रूख भी स्पष्ट करते हुए कहा कि पार्टी भक्तों के साथ चट्टान की तरह खड़ी है। राजनीतिक दल कैसे अपनी सुविधा के हिसाब से मुद्दों की परिभाषा गढ़ते हैं, सबरीमाला मंदिर विवाद इसका एक ओर उदाहरण है। भाजपा को अंदाजा है कि अयप्पा भक्तों का समर्थन करने से कम्युनिस्ट शासन वाले केरल में वोटों का ध्रुवीकरण किया जा सकता है। जहां भाजपा अपनी राजनीतिक जड़ें मजबूत कर रही है। उत्तर भारत में राममंदिर मुद्दे पर ऐसा करके भाजपा जबरदस्त कामयाबी हासिल कर चुकी है। आश्चर्य की बात तो यह है कि जब तीन तलाक के मुद्दे को मुस्लिम संगठनों ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले का विरोध किया, तब भाजपा उस फैसले के समर्थन में खड़ी रही।

मुस्लिम संगठनों ने इसे धार्मिक और अल्पसंख्यकों का परंपरागत मसला करार देते हुए इस निर्णय पर सुप्रीम कोर्ट और भाजपा का विरोध किया था। इसके विरोध में मुस्लिम महिलाओं ने भी देशभर में रैलियां निकाल कर प्रदर्शन किया था। सबरीमाला की तरह कांग्रेस इस मुद्दे पर खुल कर सामने आने से कतराती रही। कांग्रेस को इसमें वोट बैंक खिसकने का खतरा नजर आया। इसके विपरीत भाजपा को तीन तलाक के मुद्दे पर अंदाजा था कि पार्टी यदि गंगा जी भी नहा आए, तब भी अल्पसंख्यक उसे संदेह की दृष्टि से देखते रहेंगे। ऐसे में तीन तलाक का विरोध करने से कम से कम पार्टी की महिलावादी प्रगतिशील छवि सशक्त होगी।

वोटों का गणित लगाकर सबरीमाला मंदिर मामले में भाजपा ने इसके विपरीत निर्णय किया। पार्टी भक्तों के साथ खुल कर खड़ी हो गई। सवाल यही है कि यदि ऐसे धार्मिक और आस्था वाले मुद्दों पर भाजपा को भक्तों की ज्यादा चिंता है, तो राममंदिर मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले का इंतजार क्यों किया जा रहा है। यदि इस मुद्दे पर पार्टी के अनुकूल फैसला नहीं आया तो क्या भाजपा तब भी राममंदिर निर्माण करके ही मानेगी। जबकि इस मुद्दे पर पार्टी अदालत का सम्मान करने की बात कई बार दोहरा चुकी है। एक ही धर्म के धार्मिक मुद्दे पर देश की शीर्ष अदालत को आंखें दिखाने और दूसरे विचाराधीन मुद्दे पर अदालत के फैसले का सम्मान करने की बात करना भाजपा की राजनीति का रंग दिखाता है।

कांग्रेस भी ऐसे मुद्दों को भुनाने में पीछे नहीं रही है। शाह बानो के तीन तलाक के मामले में कांग्रेस ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलट दिया था। कांग्रेस को अल्पसंख्यकों के वोट बैंक के छिटकने का डर था। देश में इस तरह के मुद्दों पर क्षेत्रीय दल भी अपनी ढपली अपना राग सुनाते रहते हैं। सबके अपने−अपने राजनीतिक समीकरणों के हिसाब से वोट बैंक बने हुए हैं। ऐसे में वोटों की बहती गंगा में डुबकी लगाने से कोई भी नहीं चूकना चाहता। राममंदिर मुद्दे पर क्षेत्रीय दलों के दबे हुए सुर निकलते रहे हैं। अभी तक ज्यादातर दल अदालत के अपेक्षित फैसले के समर्थन में रहे हैं। क्षेत्रीय दल भी भाजपा और कांग्रेस की तरह गोता कब लगाएंगे, इसका पता तो राममंदिर पर सुप्रीम कोर्ट का निर्णय आने के बाद ही चलेगा। इतना जरूर है कि जब तक देश के मतदाता राजनीतिक दलों के मुखौटों की असलियत को बेनकाब नहीं करेंगे, गैर जरूरी मुद्दों पर राजनीतिक दलों के इसी तरह गुमराह किए जाने के प्रयास जारी रहेंगे।

-योगेन्द्र योगी

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