नये साल में अपने नये संकल्पों को सिद्ध करके भी दिखायें

new year 2022
ललित गर्ग । Jan 1 2022 5:45PM

नये वर्ष में हम अपने भीतर एक ऐसे नये इंसान को जन्म दें जो स्वयं आगे आकर दायित्व की बागडोर थामे और निर्माण, सुधार तथा विकास का कार्य स्वयं से शुरू करें। चिन्तन की सकारात्मक खिड़कियां खोलते हुए नया नजरिया बनायें कि खुद के लिए क्या बेहतर है।

वर्ष 2022 का प्रारम्भ हो गया है। वर्ष 2021 को अलविदा कहा है। अगवानी एवं अलविदा की इस संधि-बेला ने चिन्तन की दीवारों पर अनेक प्रश्नचिन्ह टांगे हैं। उन प्रश्नों पर आत्म विश्लेषण भी करें कि बीते वर्ष में हमने क्या खोया और क्या पाया है। सोचनीय प्रश्न है कि आखिर हमने प्रतिकूलताओं से लड़ने के लिये ईमानदार प्रयत्न कितने किये? मंजिल तक पहुंचने के लिये संकल्पपूर्वक कितने कदम उठाये? कोरोना महामारी को परास्त करने में कितने सर्तक एवं सजगता से अपने दायित्व का निर्वहन किया? बिता वर्ष बहुत बोझिल भरा वर्ष था, संकट बहुत आये, बेरोजगारी बढ़ी, महंगाई बढ़ी, सीमाओं पर पड़ोसी देशों ने अनेक षड्यंत्र किये, गरीबी भी नये मुकाम पर पहुंची, भ्रष्टाचार के भी नये-नये रूप सामने आये, सत्ता और विपक्ष की खींचतान में राजनीतिक मूल्य ध्वस्त हुए, प्रकृति का कहर बरपा, जलवायु की चिंता ने सताया, किसान आन्दोलन से जन-समस्याएं खड़ी हुईं, परिवार संस्था भी टूटी, दबे, कुचले, वंचित लोगों, वर्गों के संकट बढ़े, स्वास्थ्य बिगड़ा। इन संकटों एवं समस्याओं के बीच बड़े आदर्शों की अपेक्षा एक छोटा-सा सवाल ही अपने आपसे हल करने की कोशिश करें कि नये वर्ष की शुरुआत करते हुए अलविदा किये गये? हम अलविदा उस निषेधात्मक सोच को कहें जिसने हमारे भीतर आत्मविश्वास का दीया बुझा दिया, संकटों एवं बुराइयों के विरुद्ध लड़ने की ताकत को कमजोर कर दिया, पुरुषार्थ के प्रयत्नों को पंगु बना दिया।

नये वर्ष में हम अपने भीतर एक ऐसे नये इंसान को जन्म दें जो स्वयं आगे आकर दायित्व की बागडोर थामे और निर्माण, सुधार तथा विकास का कार्य स्वयं से शुरू करें। चिन्तन की सकारात्मक खिड़कियां खोलते हुए नया नजरिया बनायें कि खुद के लिए क्या बेहतर है और अपनी बेहतरी किसी दूसरे के लिए दुख-दर्द का कारण तो नहीं बन रही है? आज के समय में संसाधनों की कमी से ज्यादा घातक नकारात्मक सोच है। विपदा के समय हमने जो व्यवहार किया था, विपदा के समय हम कैसे किसी के काम आए थे, यह सोचकर हमें नए वर्ष में सुधार की सीढ़ियां चढ़नी चाहिए। नए वर्ष में लोग और देश किसी बुराई नहीं, किसी अच्छाई का अनुकरण करें, तभी हम इंसानियत के पैमाने पर कोई आदर्श सामने रख पाएंगे। आपदा और टीकाकरण के समय हमने देखा है, अमीर देश गरीब देशों को और अमीर लोग अपने जरूरतमंद दोस्तों-रिश्तेदारों को अपने हाल पर छोड़कर एक अलग ही अकेलेपन एवं संकीर्णता की ओर बढ़ते रहे हैं। हम बीते वर्ष के इन तमाम संबंधों, स्मृतियों, स्वार्थों, सन्दर्भों, घटना प्रसंगों को अलविदा कहें जिनके कारण हमारी इंसानियत पर प्रश्न खड़े हुए। जिनके कारण हमारी संवेदनाएं निस्तेज हुईं, विकास में ठहराव आया एवं अनेक बाधाएं खड़ी हुईं।

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नववर्ष में हमें उम्मीद के नये वातायन उद्घाटित करते हुए भारत की चौतरफा चुनौतियों के जबाव ढूंढ़ने होंगे। हमारे संकल्प और इरादों की मजबूती सामने आये, पड़ोसियों को समझ आए, सीमाओं पर अनुशासन, सभ्यता और शालीनता लौटे। तमाम बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियां भारतीयों को केवल उपभोक्ता न समझें, अपने सामाजिक दायित्व भी वे ढंग से निभाएं। विधि का कोरा कारोबार नहीं, बल्कि न्याय की निष्पक्षता एवं तत्परता हो, तो शासन-प्रशासन का ईमानदार एवं जागरूक स्वरूप सामने आए। वर्ष भर जनता की तकलीफों को बढ़ाने वाले किसान आंदोलन जैसे राजनीतिक पोषित आन्दोलनों की पुनरावृत्ति न हो। किसानों की जरूरतों पर ध्यान दिया जाना चाहिए न कि उनको आधार बनाकर स्वार्थ की राजनीति हो। जरूरतमंद लोगों के बढ़े हुए उत्साह के साथ हम नए वर्ष में आए हैं, क्योंकि सरकारों ने भी अपने स्तर पर राहत देने की पूरी कोशिश की है। नए वर्ष में भी सुनिश्चित करना होगा कि किसी गरीब को अन्न-धन के अभाव का सामना न करना पड़े। यह बेहतर सामाजिक योजनाओं और उनके क्रियान्वयन का वर्ष होना चाहिए। यह बेहतर काम-धंधे और रोजगार का वर्ष होना चाहिए। यह वर्ष महंगाई पर नियंत्रण का वर्ष हो।

हम उन राजनीतिक धारणाओं, मान्यताओं को बदलें जिनके आधार बनाकर कर गलतफहमियों, सन्देहों, आशंकाओं एवं अविश्वासों की दीवारें इतनी ऊंची खड़ी कर दी गयी हैं कि स्पष्टीकरण के साथ उन्हें मिटाकर सच तक पहुंचने के सारे रास्ते ही बन्द हो गये। यह स्थिति लोकतंत्र को कमजोर बनाती है। एक राष्ट्र के रूप में जब हम चिन्तन करते हैं तो पाते हैं कि इस देश की सबसे बड़ी ताकत लोकतन्त्र की संसदीय प्रणाली में ऐसी तन्त्रगत अराजकता व्याप्त होने का खतरा पैदा हो रहा है जिसे तुरन्त नियमित किये जाने की आवश्यकता है। इस सन्दर्भ में बीते वर्ष के दौरान संसद के हुए विभिन्न सत्र उदाहरण हैं जिनमें सत्ता और विपक्ष की खींचतान के चलते देश की इस सबसे बड़ी जनप्रतिनिधि संस्था की प्रतिष्ठा को आघात लगा। भारत का संसदीय लोकतन्त्र इसके लोगों की आस्था का ऐसा प्रतिष्ठान है जिसकी संवैधानिक सर्वोच्चता निर्विवाद है क्योंकि इसके माध्यम से सामान्य नागरिक के हाथ में बदलते समय के अनुसार अपने विकास के स्वस्तिक उकेरने का अधिकार होता है जो चुने हुए प्रतिनिधियों की मार्फत किया जाता है।

हाल ही में कानपुर में एक सुगन्ध व्यापारी के घर उत्तर प्रदेश चुनाव से पहले जिस तरह बेहिसाब से नकद धनराशि मिली है उससे यह अन्दाजा तो लगाया ही जा सकता है कि देश में राजनीतिक पोषित भ्रष्टाचार कितना गहरा है। अन्दाजा तो यह भी लगाया जा सकता है कि इस बेहिसाब भ्रष्ट धनराशि का उपयोग कोई राजनीतिक दल चुनावों में खर्च कर सकता था। इससे पहले भी हम देख चुके हैं कि विभिन्न राज्यों में जब चुनाव होते हैं तो सरकारी एजेंसियां कितना रोकड़ा जब्त करती रही हैं। हर रोज ऐसी बहुत-सी खबरें आती हैं, ज्यादातर खबरें डराने वाली होती हैं, कभी ओमीक्रोन की आती हैं, तो कभी भ्रष्टाचार या काले धन की आती हैं, ये खबरें इसलिये डराती हैं कि कहीं न कहीं ये अमानवीयकरण एवं भ्रष्ट व्यवस्था को पनपाने की प्रक्रिया है। सोचना चाहिए कि उसके समांतर हम क्या कर सकते हैं? कहीं हम खुद भी अपनी मानवीयता एवं ईमानदारी तो नहीं खो रहे हैं? क्या हम खुद भी किसी ब्रांड या राजनीतिक दल के विज्ञापनकर्ता बन गए हैं? सबसे जरूरी है, हम मनुष्य बनें, एक जिम्मेदार नागरिक का धर्म निभायें।

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लोकतंत्र को बचाना सबसे जरूरी है और लोकतंत्र केवल संविधान को बचाने से नहीं बचेगा। कानून के आधार पर या संविधान के नारे लगाकर लोकतंत्र नहीं बचेगा। लोकतंत्र एक भावना है और वह अन्यों के प्रति उदारता या सहिष्णुता ही नहीं, बंधुत्व और सहकार की भावना भी है। यह अपने संविधान के मूलभूत संदेश समता, स्वतंत्रता, बंधुत्व और भाईचारे की ओर वापसी का समय है। उम्मीद है, नया साल 2022 हमें इन मूलभूत अच्छाइयों के निकट ले जाएगा। बेशक, तालियां खूब बजायी, दीये खूब जलाए गए हैं, लेकिन अंधेरा कायम है और खतरे बरकरार। फिर भी प्रतिकूल परिस्थितियों में घबराकर भागने की मनोवृत्ति को भी अलविदा कहें, क्योंकि संघर्ष की बुनियाद पर ही सफलता का महल खड़ा होता है। हममें अकेले लड़ने का साहस जागे, क्योंकि सत्य के लिये अकेले ही लड़ना होता है। हम वैक्सीन लेते हैं कि खुद में रोग प्रतिरोध की क्षमता विकसित कर सकें। प्रतिरोध का मतलब केवल चीखना, चिल्लाना, नारे लगाना, हिंसा करना, क्रांतिकारी होना नहीं है। प्रतिरोध प्रार्थना में भी होता है। गांधीजी से बड़ा प्रतिरोध करने वाला कौन रहा होगा? उन्होंने भी खूब प्रार्थनाएं की हैं, सबको सन्मति दे भगवान। नरेन्द्र मोदी ने भी खूब प्रार्थनाएं की हैं, खूब लोगों को जगाया है, उनकी उम्मीदों को नये पंख दिये हैं, उनका असर भी हुआ, समूचा राष्ट्र उनके आह्वान पर एकजुट हुआ।

नये वर्ष में वही एकजुटता दिखानी होगी। आज लोग बहुत कर्फ्यू, अंकुश, आदेश, निर्देश के बावजूद मास्क नहीं लगा रहे हैं, सामाजिक दूरी का पालन नहीं कर रहे हैं, कोरोना की नयी लहर के प्रति उदासीन बने हैं। यह कैसी लापरवाही है? क्या लोगों को अपनी मृत्यु की भी परवाह नहीं है? हम ऐसे कैसे हो गए? गहराई से सोचना होगा। आज हम मनुष्यता बचा सकें, हवा में ऑक्सीजन बचा सकें, नदियों में पानी बचा सकें, पर्यावरण को सुरक्षा दे सकें, जीवन के लिए जरूरी चीजें बचा सकें, परिवार बचा सकें, तभी देश बचा पाएंगे और तभी हम नए साल में उम्मीद के साथ आगे बढ़ सकेंगे। हर घटना स्वयं एक प्रेरणा है। अपेक्षा है जागती आंखों से उसे देखने की और जीवन को नया बदलाव देने की।

-ललित गर्ग

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