राहुल ने आरएसएस के बारे में वही कहा जो वह सुनते आये
राहुल गांधी ने जो कहा है वही समझ आज भी पूरे देश या विदेश में फैली हुई है। उस समय आरएसएस बचाव की मुद्रा में थी और आमतौर पर उसने खामोश रहना ही पसंद किया।
महसूस होने और सबूत रहने में बहुत फर्क होता है। राहुल गांधी जब कहते हैं कि महात्मा गांधी की हत्या के लिए आरएसएस जिम्मेदार है तो वह वही कह रहे होते हैं जो आम लोग सोचते हैं। वास्तव में तत्कालीन गृह मंत्री सरदार पटेल ने आरएसएस पर पाबंदी लगा दी थी जिसे उन्होंने तभी वापस लिया जब संगठन ने लिख कर दिया कि वह एक सांस्कृतिक संगठन है। लेकिन आरएसएस के बारे में वही समझ बनी रही।
भाजपा, जिसे आरएसएस की राजनीतिक शाखा माना जाता है, ने इस आरोप का सदैव खंडन किया। लेकिन न तो भाजपा वालों के पास कोई पक्का सबूत है और न ही इसका विरोध करने वालों के पास। कांग्रेस, जो यह कहने वालों में सबसे आगे है कि महात्मा की हत्या की गई है, ने भी लोगों के सामने यह नहीं रखा कि यह किसी साजिश का शिकार नहीं थी।
जब कांग्रेस सत्ता में थी (उन्होंने 50 साल से ज्यादा शासन किया) तो वह खुफिया रिपोर्टों या कुछ दस्तावेजों को रख सकती थी जो बताते कि हत्या आरएसएस का काम था। भाजपा भी जब सत्ता में थी तो वह भी इस आरोप को सदा के लिए खत्म करने के लिए कुछ भी बाहर नहीं लायी।
राहुल गांधी ने जो कहा है वही समझ आज भी पूरे देश या विदेश में फैली हुई है। उस समय आरएसएस बचाव की मुद्रा में थी और आमतौर पर उसने खामोश रहना ही पसंद किया। इसने इस समझ की ही पुष्टि की कि एक धर्मांध हिंदु, नाथूराम गोडसे ने ही महात्मा की हत्या की।
मैं उन दिनों उर्दू अखबार अंजाम में काम करता था। हम सब आफिस में बैठे थे तभी पीटीआई के टेलीप्रिंटर की घंटी यह संकेत देने के लिए बजी कि कोई खबर है। हम लोग मशीन की ओर लपके तो इसमें संदेश था- गांधी पर गोली चलाई गई। मैंने जरा भी समय नहीं गंवाया और अपने स्कूटर पर सीधा बिड़ला हाउस गया। हमारा कार्यालय जामा मसजिद के पास था और मैं दरियागंज होकर गुजरा। इलाका शांत था और इतनी बड़ी दुखद घटना से बेखबर था।
बिड़ला गेट पर एक लकड़ी का गेट था और आने वालों को रोकने के लिए कोई सुरक्षा गार्ड नहीं था। मैं उस चबूतरे के पास पहुंचा जिस पर सफेद खादी में लिपटा गांधी जी का पार्थिव शरीर रखा था। अंतिम ब्रिटिश वायसराय माउंटबेटन मेरे मौके पर पहुंचने के बाद आए। उन्होंने गांधी के पार्थिव शरीर को सलाम किया। प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और गृह मंत्री पटेल जो माउंटबेटन के पीछे लाइन में खड़े थे, सबके सामने रो रहे थे। तब तक तक भीड़ बढ़ने लगी थी।
हत्यारा गोडसे, जो भागा नहीं, तब तक वहीं था और अचरज की बात थी कि उसे कोई पछतावा नहीं था। उनका पार्थिव शरीर राजपथ से होकर उस स्थान तक लाया गया जिसे राजघाट कहा जाता है। वाहन में उनके पार्थिव शरीर के एक ओर नेहरू और दूसरी ओर पटेल बैठे थे। विडंबना की बात यह है कि दुनिया में अहिंसा की नया दर्शन फैलाने वाले गांधी को अंतिम संस्कार के लिए सैनिक वाहन में ले जाया गया जिसे गांधी जी कभी पसंद नहीं करते।
राहुल ने उस समय तो जन्म भी नहीं लिया था। लेकिन उसे उस परिवार का वारिस होने का सौभाग्य मिला है जिसने राष्ट्रीय संघर्ष के लिए सब कुछ समर्पित कर दिया। उसे आरएसएस की गलती ढूंढ़ने का पूरा हक है और वह साहस और बलिदान की इस पूरी कहानी में तीसरा पक्ष नहीं है। महात्मा की हत्या करने की पूरी साजिश लोगों के सामने रखी जा चुकी है, हालांकि टुकड़ों−टुकड़ों में। इसमें कोई संदेह नहीं है इसके पीछे आरएसएस तत्व थे।
अंबाला में कैद गोडसे ने जेलर अर्जुन दास को लिखे गए पत्र में अपना अपराध कबूल किया था और यह दलील दी थी कि कांग्रेस के नेता देश को कमजोर कर रहे हैं, जिससे पाकिस्तान कभी भी इसे निगल सकता है। यह एक सतही तर्क था जिसे लोगों ने पसंद नहीं किया जब इस पत्र को आखिरकार जारी किया गया।
समय ने कई पद−चिन्हों को धूल से ढंक दिया है और अब यह पता लगाना एकदम कठिन है कि नागपुर के आरएसएस मुख्यालय में और कौन थे जिन्होंने इस अपराध को अपना आशीर्वाद दिया था। विचारधारा के नाम पर किया गया शायद यह पहला अपराध था। हालांकि चीजें अब बदल गई हैं क्योंकि माहौल का राजनीतिकरण हो गया है और बहुत कम स्वर ऐसे रह गए हैं जिनकी विश्वसनीयता बिना किसी दाग की है। अभी भी आरएसएस अपने को बेहतर बताने का नाटक कर रहा है और इस बहस में शामिल होने से इंकार कर रहा है।
मामला संभालने की जिम्मेदारी एक प्रवक्ता को दी गई है, इससे यही लगता है कि कांग्रेस अपनी दलील हलका करने की तैयारी कर रही है। अगर वह ऐसा करती है तो पार्टी की प्रतिष्ठा चली जाएगी, इससे भी ज्यादा राहुल गांधी की, जिन्हें अगले लोकसभा चुनाव में पार्टी का नेतृत्व करने के लिए आगे बढ़ाया जा रहा है। सुप्रीम कोर्ट के सामने यह बहुत कठिन मुकदमा है क्योंकि उसे कोसा जाएगा चाहे फैसला कांग्रेस के पक्ष में जाता है या आरएसएस के।
दुख की बात है कि भरत की पहचान, लोकतांत्रिक और गैर−सांप्रदायिक, के सामने खड़ी सबसे बड़ी चुनौती का सामना करने के लिए सेकुलर ताकतें अपनी शक्ति एक दिशा में नहीं लगा रही हैं। आजादी की लड़ाई विविधता और समता के विचारों के लिए थी। एक समय था जब गांधी अहिंसक साम्यवादी कहे जाते थे और उन्होंने कभी इस पर आपत्ति नहीं की थी, हालांकि कम्युनिस्ट उन्हें साम्राज्यवाद का दौड़ता हुआ कुत्ता कहते थे। कम्यूनिस्टों को अपनी भूल सुधारनी चाहिए और कोलकाता में अपने मुख्यालय में गांधी जी की तस्वीर लगानी चाहिए।
आरएसएस और भाजपा को भी मेरी यही सलाह है। गांधी जी किनारे पड़े और पीछे छूट गए लोगों के लिए फरिश्ता थे। वह राष्ट्रीय आंदोलन और अंग्रेजों से भारत की मुक्ति के प्रतिनिधि थे। यही एक बिंदु है जिस पर सभी पार्टियां एकराय हैं और उन्हें सामूहिक रूप से यह मानने में कोई हिचकिचाहट नहीं होनी चाहिए की गांधी ने 150 साल के विदेशी शासन को समाप्त किया।
जहां तक, राहुल गांधी के आरोप का सवाल है, सुप्रीम कोर्ट ने इसका संज्ञान लिया है। अदालत की सुनवाई के दौरान कई छिपे रहस्य बाहर आ सकते हैं। अब जबकि कांग्रेस के उपाध्यक्ष ने माफी मांगने से इंकार कर दिया है, यही उम्मीद की जाती है कि वह अपने बयान पर कायम रहेंगे। आग में तेल डाल दिया गया है और लोग अदालत में ही एक वैचारिक युद्ध देख सकेंगे। राहुल गांधी बन जाएंगे या बिगड़ेंगे़।
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