यही हाल रहा राहुल का तो महागठबंधन मोदी के सामने टिक ही नहीं पायेगा

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कमलेश पांडे । Aug 10 2018 11:21AM

राज्यसभा के उपसभापति चुनाव में एनडीए की जीत के राजनैतिक मायने बेहद अहम हैं क्योंकि एक ओर जहां बीजेपी रणनीतिकारों ने अपने एनडीए गठबंधन साथी जदयू को आगे करके राजग के पुराने सहयोगियों को पटा लिया।

राज्यसभा के उपसभापति चुनाव में एनडीए की जीत के राजनैतिक मायने बेहद अहम हैं क्योंकि एक ओर जहां बीजेपी रणनीतिकारों ने अपने एनडीए गठबंधन साथी जदयू को आगे करके राजग के पुराने सहयोगियों को पटा लिया, और अन्य गठबंधन सहयोगियों के बीच पनपे मतभेदों को दूर करके एक तरह से हारी बाजी भी आसानी पूर्वक जीत ली। जबकि, दूसरी ओर कांग्रेसी रणनीतिकारों ने कुछेक महागठबंधन साथियों के साथ उपेक्षा पूर्ण व्यवहार करके और कुछ अन्य दलों के साथ रणनीतिक लापरवाही प्रदर्शित करके जीती हुई बाजी भी हार गई।

इस बात में कोई दो राय नहीं कि शुरुआत में इस चुनाव का सियासी समीकरण कांग्रेस के पक्ष में जाता दिखाई दे रहा था, क्योंकि धर्मनिरपेक्षता के चलते बीजेपी विरोधी क्षेत्रीय दलों का रुझान एक हद तक कांग्रेस की ओर बढ़ रहा था। लेकिन, एनडीए की राजनीति के चाणक्य बन्धु अमित शाह और नीतीश कुमार ने अंत समय में ऐसी निर्णायक सियासी चौपड़ चली कि महागठबंधन साथियों में पारस्परिक अविश्वास बढ़ता चला गया, जिसका भरपूर फायदा एनडीए ने उठा लिया। आलम यह रहा कि महागठबंधन के कुछ दलों ने एनडीए को वोट देकर तो कुछ ने सदन से अनुपस्थित रहकर खुलेआम मदद की।

आंकड़े गवाह हैं कि 244 सदस्यों वाली राज्यसभा में न तो सबसे बड़ी पार्टी बीजेपी को स्पष्ट बहुमत प्राप्त है और न ही दूसरी बड़ी पार्टी कांग्रेस को, क्योंकि क्षेत्रीय दलों की यहां पर भी बहुतायत है। ऐसे में जिधर अधिकांश क्षेत्रीय दलों का झुकाव होता है, उसी पार्टी या गठबंधन को राज्यसभा में बढ़त मिलती है। बता दें कि बीजेपी के पास मात्र 73 सीटें हैं। जबकि उसके सहयोगी दलों जदयू के पास 6, शिवसेना के पास 3, अकाली दल के पास 3 और अन्य दलों के पास 11 सीटें हैं। इस प्रकार एनडीए के पास कुल 96 सीटें हैं। इस बार अन्नाद्रमुक के 11 और टीआरएस के 6 सदस्यों का साथ भी एनडीए को मिला है। कुछ अन्य दलों खासकर बीजेडी ने भी इस बार एनडीए का साथ दिया है जिससे उसका वोट आंकड़ा 125 तक पहुंच गया। बताया जा रहा है कि बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल से खुद ही बात की थी, जबकि समाजवादियों के साथ हरिवंश सिंह के पुराने सम्बन्ध काम आए। यदि इन रिश्तों की सही परवरिश की गई तो मिशन 2019 के मद्देनजर भी अहम गुल खिलाने में काम आएंगे।

उधर, राज्यसभा की मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस के पास भी मात्र 50 सीटें हैं। उसके महागठबंधन सहयोगियों, यथा- टीएमसी के पास 13, सपा के पास 13, राजद के पास 5, बीएसपी के पास 4 और अन्य दलों के पास 28 सीटें हैं। इस प्रकार कांग्रेस महागठबंधन के पास 113 सीटें हैं, जो बीजेपी गठबंधन से कहीं अधिक है। ख़ास बात यह कि आप के पास 3, पीडीपी के पास 3, वाईएसआर के पास 2 और अन्य 9 सीटों को भी कांग्रेस रणनीतिकार मैनेज कर सकते थे। लेकिन इस चुनाव में कांग्रेस महागठबंधन प्रत्याशी को मात्र 105 वोट मिले हैं, जिससे साफ है कि कहीं न कहीं उनसे बड़ी रणनीतिक चूक हुई है। क्या और कैसे हुई, ये तो वही बता सकते हैं। लगता है कि अति आत्मविश्वास से ये लोग अंत समय में गच्चा खा गए। ये भी हो सकता है कि कांग्रेस क्षेत्रीय दलों की मनमानी के चलते एक सीमा से अधिक उनके सामने नहीं झुकना चाहती हो। 

खैर, कांग्रेस की रणनीतिक भूल की वजह चाहे जो कुछ भी हो, लेकिन इससे बीजेपी के नेतृत्व वाले एनडीए को मिशन 2019 के मद्देनजर रणनीतिक मजबूती तो मिल ही चुकी है। जबकि कांग्रेस के नेतृत्व वाला विपक्षी महागठबंधन एक बार फिर चारों खाने चित्त हो गया है। खासकर आम आदमी पार्टी ने जिस तरह से कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी की सियासी क्षमता पर निशाना साधा है, उससे एक बात साफ होती जा रही है कि मोदी विरोधी विपक्षी एकता की सफलता पर सवालिया निशान हमेशा लगा रहेगा? वाईएसआर और पीडीपी को अपने खेमे में नहीं खींच पाना भी कांग्रेस रणनीतिकारों की विफलता समझी जा सकती है।

गौरतलब है कि राजनीति के इस सुपरहिट मुकाबले में बीजेपी के नेतृत्व वाले एनडीए के सहयोगी दल जदयू के राज्यसभा सदस्य हरिवंश सिंह ने कांग्रेस के नेतृत्व वाले यूपीए (महागठबंधन) समर्थित कांग्रेस उम्मीदवार बीके हरिप्रसाद को 20 वोटों से पराजित कर दिया। इस चुनाव में हरिवंश नारायण सिंह को 125 वोट मिले, जबकि बीके हरिप्रसाद को मात्र 105 वोट। स्पष्ट है कि एनडीए के लिए यह चुनाव जीतना अहम मायने रखता है, क्योंकि राज्यसभा में सबसे बड़ी पार्टी होने के बावजूद बीजेपी और उसके नेतृत्व वाले एनडीए को स्पष्ट बहुमत प्राप्त नहीं है। जबकि राज्यसभा में कांग्रेस दूसरी सबसे बड़ी पार्टी है और मिशन 2019 के लिए विपक्षी दलों में महागठबंधन के नाम पर जिस तरह की मोदी विरोधी एका दिखाई दे रही थी, उसके मद्देनजर कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने यदि क्षेत्रीय दलों को अपने पाले में करने की दूरदर्शिता और बड़प्पन दिखाया होता, तो बीजेपी नीत एनडीए के लिए यह जीत उतनी आसान नहीं रह जाती, जितनी कि अंत समय में दिखाई पड़ी। 

सच कहा जाए तो प्रत्याशी के चयन से लेकर वोटिंग रणनीति तय करने तक जिस प्रकार से कांग्रेस और उसके महागठबन्धन साथी बिखरे नजर आए, वह आश्चर्यजनक है। यही नहीं, इस पूरी स्थिति के लिए कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी की अपरिपक्व राजनीति और अकुशल प्रबंधन पर जिस तरह से उनके ही कुछेक सहयोगी दलों ने सवाल उठाए और बिखराव का सारा ठीकरा उनके सिर पर फोड़ा, वह पूर्वनियोजित नहीं तो अप्रत्याशित जरूर है। यदि यही स्थिति रही तो मिशन 2019 में कांग्रेस महागठबंधन टीम मोदी के मुकाबले कहीं भी नहीं टिक पायेगा। इसलिए वक्त का तकाजा है कि राहुल गांधी अब भी सम्भलें और सूझबूझ भरी राजनीति करें, या फिर दूसरों के लिए सियासी मैदान खाली करें।

-कमलेश पांडे

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