योगी पर सवाल बाद में उठाएं पहले उन्हें काम तो करने दें

जो लोग योगी को मुख्यमंत्री के तौर पर कट्टर हिंदूवादी फैसला मान रहे हैं वो योगी को नहीं मोदी को नहीं समझ पाए। वे पहले उनकी सर्जिकल स्ट्राइक नहीं समझ पाए, फिर नोटबंदी भी नहीं समझ पाए और न ही यूपी की जनता को समझ पाए।

"हमारा अतीत हमारे वर्तमान पर हावी होकर हमारे भविष्य पर प्रश्न चिह्न लगा देता है" , एक कटु सत्य। 'सबका साथ, सबका विकास'। क्या संभव हो पाएगा जब यूपी में होगा योगी का राज? यूपी  चुनावों के चौंकाने वाले नतीजों से देश के कथित सेकुलर नेता और मीडिया उबर भी नहीं पायी थी कि मुख्यमंत्री के नाम की घोषणा से सभी राजनैतिक पंडितों को जोर का झटका उतने ही जोर से लगा। मुख्यमंत्री के रूप में योगी आदित्यनाथ के चयन को लेकर बीजेपी पर लगातार चौतरफे हमले हो रहे हैं।

अगर देश की मीडिया की प्रतिक्रिया की बात करें तो अखबारों की सुर्खियाँ कुछ यूँ हैं- 'जो लोग यह सोचते थे कि मोदी गुजरात छोड़ने के बाद बदल गए हैं, वो गलत थे। योगी आदित्यनाथ की उप्र के मुख्यमंत्री के रूप में ताजपोशी बता रही है कि पुराने मोदी अब भी जिंदा हैं।' 'भारतीय जनता पार्टी ने विशाल बहुमत हासिल करने के बाद भी उप्र का मुख्यमंत्री आदित्यनाथ को बनाया है तो इससे यही जाहिर होता है कि पार्टी की राजनीति में अगर लाग इन ''विकास" है तो पासवर्ड "हिन्दुत्व" है।' योगी को यूपी जैसे राज्य का मुख्यमंत्री बनाने की गूँज देश ही नहीं विदेशों में भी पहुंची। प्रधानमंत्री मोदी के विकास के एजेन्डे के मद्देनजर 'न्यूयॉर्क टाइम्स' ने उनके इस कदम को एक झटका कहा, तो 'द गार्जियन' का कहना है कि योगी की ताकतवर शख्सियत इस ओर इशारा करती है कि अब भारतीय अल्पसंख्यकों की स्थिति बहुसंख्यकों की गुडविल पर निर्भर हैं। जबकि ''द इकोनोमिस्ट" ने मुख्यमंत्री के रूप में योगी के चयन को “एक अनयूस्यल चौइस'' अर्थात एक असामान्य चुनाव कहा है। दरअसल उप्र के विधानसभा चुनावों में बीजेपी की ऐतिहासिक जीत के बाद योगी आदित्यनाथ का नाम मुख्यमंत्री पद के लिए उठाया तो जा रहा था लेकिन यह पार्टी नेताओं के स्तर पर कम और कार्यकर्ताओं के स्तर पर अधिक था।

उप्र की जगह देश की राजनीति में खास केवल आबादी के लिहाज से ही नहीं है, बल्कि इसलिए भी है कि वह लोकसभा में 80 सांसद भेजता है। मोदी जिस गुजरात से आते हैं, वहाँ के तीन गुने से भी ज्यादा। और इन विधानसभा चुनावों में बीजेपी एवं सहयोगी दलों का 325 सीटों पर विजय प्राप्त करना उप्र जैसे राज्य के लिए अपने आप में एक अद्भुत घटना है जहां कोई हिन्दू नहीं है। यहाँ केवल ब्राह्मण, राजपूत, दलित, यादव, पिछड़े और दूसरी जातियाँ हैं अथवा अल्पसंख्यक हैं। लेकिन यह पहली बार है कि यूपी की जनता ने एक ऐसा जनादेश दिया जिसमें जातियों का भेद खत्म हो गया। दरअसल यहाँ के आम आदमी ने मोदी को वोट दिया और उस उम्मीद के पक्ष में वोट दिया जो सालों बाद इस देश का कोई प्रधानमंत्री उनके दिलों में जगा सका कि 'अच्छे दिन आने वाले हैं'।

उस हताशा के खिलाफ वोट दिया जो मुलायम, अखिलेश, मायावती सरीखे नेताओं की वोट बैंक की गंदी राजनीति और छद्म सेक्यूलरवाद से उपजी। यह वोट केवल हिन्दू वोट भी नहीं था, पूर्वांचल, तराई, बुन्देलखण्ड और अवध क्षेत्र के मुसलमानों ने भी खासी तादाद में भाजपा को वोट दिया है। सबसे बड़ी बात तो यह है कि उप्र की जनता जानती थी कि भाजपा जीत भी जाए तब भी मोदी मुख्यमंत्री नहीं होंगे और वे यह भी नहीं जानते थे कि भाजपा किसे मुख्यमंत्री बनाएगी उसके बावजूद प्रदेश की जनता का यह जनादेश अपने प्रधानमंत्री पर उसके भरोसे का प्रतिनिधित्व करता है। इस भरोसे से उपजी जिम्मेदारी का एहसास माननीय मोदी जी को नहीं हो ऐसा सोचना सबसे बड़ी मूर्खता होगी।

इसलिए जो लोग योगी आदित्यनाथ को मुख्यमंत्री के तौर पर एक कट्टर हिंदूवादी फैसला मान रहे हैं वो योगी को नहीं मोदी को नहीं समझ पाए। वे पहले उनकी सर्जिकल स्ट्राइक नहीं समझ पाए, फिर नोटबंदी भी नहीं समझ पाए और न ही यूपी की जनता को समझ पाए। यही वजह थी कि अखिलेश को नतीजों के बाद कहना पड़ा कि मेरी जनसभाओं में लोग तो बहुत आए लेकिन चुनावों में वोट नहीं आए। जो लोग यह कह रहे हैं कि जिस व्यक्ति के पास कोई प्रशासनिक अनुभव नहीं है उसे इतने बड़े प्रदेश की बागडोर सौंप देना कहाँ तक उचित है वे भूल रहे हैं कि उप्र के पिछले मुख्यमंत्री के पास  किसी प्रकार के प्रशासनिक अनुभव तो क्या कोई राजनैतिक अनुभव भी नहीं था लेकिन योगी द्वारा किए गए संसदीय कार्यों की समीक्षा करने मात्र से ही उनको अपने प्रश्न का उत्तर मिल जाएगा।

1998 से लगातार गोरखपुर से सांसद रहे योगी आदित्यनाथ के व्यापक जनाधार और एक प्रखर वक्ता की छवि को भी शायद यह लोग अनदेखा करने की भूल कर रहे हैं। जब परिवादवाद की देन एक अनुभव हीन मुख्यमंत्री को प्रदेश की बागडोर संभाल सकता है तो योगी को तो 26 वर्ष की उम्र में सबसे कम उम्र के सांसद बनने का गौरव प्राप्त है। मोदी स्वयं इस बात को स्वीकार कर चुके हैं कि चुनाव की राजनीति और सरकार चलाने की नीति दोनों अलग अलग बातें हैं। एक नेता के रूप में उनके चुनावी भाषण और एक प्रधानमंत्री के रूप में उनके वक्तव्य एवं कार्यशैली दोनों ही विभिन्न विषय हैं इस बात को पूरे देश ने महसूस किया है।

इसलिए योगी के व्यक्तित्व को उनके द्वारा दिए गए अभी तक के भाषणों और उनके भगवा वस्त्रों की सीमा में बाँधकर परखना केवल संकीर्ण मानसिकता और असुरक्षा की भावना का द्योतक है। 21 वर्ष की अल्पायु में घर परिवार त्याग कर एक योगी बनने का निर्णय उनकी दृढ़ इच्छा शक्ति दर्शाता है। ऐसे समय में जब देश की राजनीति वंशवाद और परिवारवाद के साये में अपना अस्तित्व तलाश रही है, एक संन्यासी को सत्ता के शीर्ष पर बैठाना एक नई सुबह के साथ अनेकों उम्मीद की किरणों का उजाला फैला रहा है।

आदित्यनाथ को एक योगी के रूप में देखने वाले उनके भीतर के संन्यासी की अनदेखी कैसे कर सकते हैं। उनके व्यक्तित्व को उनके वस्त्रों के रंग में सीमित करने वाले यह कैसे भूल सकते हैं कि जिस दिन एक आदमी सांसारिक विषयों का त्याग करके इन वस्त्रों को धारण करता है वो जात पात से ऊपर उठ जाता है और एक ही धर्म का पालन करता है, 'मानवता'। एक मुख्यमंत्री के रूप में उनके कार्यों को देखे बिना पूर्वाग्रहों के आधार पर उनका आकलन करना न सिर्फ उनके साथ बल्कि लोकतंत्र के साथ बहुत बड़ा अन्याय होगा। और अन्त में प्रधानमंत्री का यह कथन तो देश भूला नहीं है कि ''हममें अनुभव की कमी हो सकती है, हम गलती कर सकते हैं लेकिन हमारे इरादे गलत नहीं हैं"। और जब इरादे नेक हों तो नतीजे गलत हो ही नहीं सकते।

- डॉ. नीलम महेंद्र

We're now on WhatsApp. Click to join.
All the updates here:

अन्य न्यूज़