जिन्ना की ही क्यों अंग्रेज और मुस्लिम शासकों की भी तसवीरें हटाइये

remove all muslim rulers photo including jinnah

विश्वविद्यालय में दशकों से यह तस्वीर लगी हुई है, अचानक इस पर इतना बवाल क्यों मचाया जा रहा है। यदि इस तस्वीर पर आपत्ति है तो देश में ऐसे सैंकड़ों स्मारक, मूर्तियां और तस्वीरें मौजूद हैं। इनमें से ज्यादातर मुस्लिम और अंग्रेज शासकों की हैं।

इतिहास के गढ़े मुर्दों को उखाड़ कर विवाद का विषय बनाने से राजनीतिक दृष्टि से बेशक फायदा हो सकता है किन्तु इससे देश का कीमती वक्त और ऊर्जा ही बर्बाद होती है। अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में मोहम्मद अली जिन्ना की तस्वीर को लेकर इसी तरह का विवाद चल रहा है। यह विवाद अचानक सामने आया है। विवाद यह है कि जिन्ना ने इस देश का बंटवारा किया है। ऐसे में विश्वविद्यालय में उनकी तस्वीर क्यों लगाई जाए। जिन्ना एएमयू के संस्थापक थे। सवाल यह है कि विश्वविद्यालय में दशकों से यह तस्वीर लगी हुई है, अचानक इस पर इतना बवाल क्यों मचाया जा रहा है। यदि इस तस्वीर पर आपत्ति है तो देश में ऐसे सैंकड़ों स्मारक, मूर्तियां और तस्वीरें मौजूद हैं। इनमें से ज्यादातर मुस्लिम और अंग्रेज शासकों की हैं।

ऐतिहासिक और पुरामहत्व के चिन्हों−प्रतीकों को हटाने के बाद इतिहास में बाकी क्या रह जाएगा? इससे समूचा इतिहास ही विकृत हो जाएगा। देश की अस्मिता−एकता−अखंडता खतरे में पड़ जाएगी। सहिष्णुता और अहिंसा की इस धरती पर ऐसे विवादों से विश्व की जगहंसाई होगी। विश्व में ऐसा कौन-सा देश है जो कभी गुलाम नहीं रहा। सभी देशों में गुलामी के चिन्ह हैं। ये ही चिन्ह उनके समृद्ध इतिहास और संस्कृति की गाथा कहते हैं। इनसे ही सबक लेकर देशों ने तरक्की की है। ऐसे चिन्ह या स्मारक ही बताते हैं कि देशों ने आजादी और तरक्की के लिए कितनी कुर्बानियां दी हैं। इन्हें भुलाया नहीं जा सकता। इन्हें हटा देने के बाद इतिहास कोरी सलेट रह जाएगा।

इसके अलावा भारत ही नहीं वरन् विश्व में धर्म ग्रन्थों, समुदायों, जातियों को लेकर भी विवाद रहे हैं। विवाद सांस्कृतिक ही नहीं धार्मिक और भौगोलिक सीमाओं को लेकर भी रहे हैं। फिर इनका सबका निदान क्या इन्हें मिटा कर किया जाएगा। क्या ऐसे प्रयास वर्ग−समूह संघर्ष को जन्म नहीं देंगे ? यह साफ जाहिर है कि ऐसे विवादों के पीछे राजनीति है। राजनीतिक दल हर उस मुद्दे को भुनाने की कोशिश में रहते हैं, जिससे वास्तविक मुद्दों से ध्यान हटाकर वोटों का ध्रुवीकरण किया जा सके। ऐसे विवादों को उठाने से जरूरत के तमाम मुद्दे हाशिये पर चले जाते हैं। आम लोगों के सामने इन्हें इस तरह पेश किया जाता है कि मानो ये ही सारी समस्या की जड़ हों। 

ऐसे विवादित मुद्दों से वोट बैंक बेशक मजबूत हो जाए, किन्तु समस्याओं का समाधान कभी नहीं होता। दूसरे मायने में ऐसे मुद्दे उठाए ही विकास की विफलताओं पर पर्दा डालने के लिए जाते हैं। जब सरकारें वायदों के मुताबिक विकास नहीं कर पातीं। लोगों की उम्मीदों पर खरा नहीं उतर पातीं। तब मुद्दों से ध्यान हटाने के लिए ऐसे विवादास्पद मुद्दे उछाले जाते हैं, ताकि लोगों को गुमराह किया जा सके। आम लोग सरकारों से विकास को लेकर सवाल−जवाब नहीं कर सकें। देश में चुनौतियों की कमी नहीं है। राज्य हो या केंद्र सरकार, सभी के सामने गुणवत्तायुक्त विकास की जबरदस्त चुनौतियां हैं। राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय एजेंसियां और संगठन सरकारों को विकास की सच्चाई का आईना दिखाते रहते हैं।

हाल ही में पर्यावरण को लेकर वैश्विक रिपोर्ट जारी की गई है। विश्व स्वास्थ्य संगठन की ओर से जारी रिपोर्ट में विश्व के सर्वाधिक प्रदूषित 15 शहरों में से 14 भारत के हैं। दुर्भाग्य यह कि इनमें भी उत्तर प्रदेश के तीन शहर कानपुर, फरीदाबाद और वाराणासी सर्वाधिक प्रदूषित हैं। पन्द्रह की इस सूची में सर्वाधिक संख्या भी उत्तर प्रदेश की ही है। यह मुद्दा नेताओं और राजनीतिक दलों के लिए शर्म का विषय नहीं है। प्रदूषण से कितनी बीमारियां फैल रही हैं। हवा, मिट्टी−पानी सब प्रदूषित हो रहे हैं। प्रदूषणजनित बीमारियों से नौनिहाल असमय ही काल के मुंह में जा रहे हैं। ऐसी ज्वलंत समस्याओं के खात्मे के लिए कोई आंदोलन नहीं चलाया जाता।

दरअसल ऐसे बेइज्जती भरी सच्चाइयों से वोट बैंक नहीं बनते। यदि इसी मुद्दे पर कुछ लाख लोग वोट बैंक बना लें तो नेताओं की हालत देखने लायक हो जाएगी। विवश होकर समाधान करना पड़ेगा। जिन्ना जैसे फिजूल के मुद्दे दरकिनार हो जाएंगे। सरकारों और राजनीतिक दलों को ईमानदारी से ऐसी समस्याओं के समाधान को विवश होना पड़ेगा। प्रदूषण और उससे होने वाले नुकसान अकेली समस्या नहीं हैं। विकास से जुड़ी बुनियादी जरूरतों की हालत भी कमोबेश ऐसी ही है। भारत बिजली, पानी, सड़क, स्कूल अस्पताल, यातायात और रोजगार जैसी समस्याओं से त्रस्त है। इन पर आंदोलन चलाए जाने की सख्त जरूरत है। विश्व रैंकिंग में इन सभी में भारत की स्थिति बेहद शोचनीय है। देश में महिलाओं और बच्चों से बढ़ते अपराधों पर पहले ही खूब फजीहत हो चुकी है। इसे दुर्भाग्य ही कहना चाहिए कि संवेदनशील और मानवीय गरिमा−सम्मान से जुड़े ऐसे मुद्दों पर देश की अस्मिता को ठेस नहीं पहुंचती। पूर्व में निर्भया के मामले में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर खूब किरकिरी हुई। इसके बाद भी देश का सिर शर्म से झुकाने वाले ऐसे मामलों में कमी नहीं आई। ऐसे मुद्दे कभी शर्म और पश्चाताप का विषय नहीं बनते।

दरअसल ऐसी चुनौतियों का मुकाबला करना आसान नहीं हैं। इनके वित्तीय संसाधनों, बुनियादी विकास, शिक्षा, रोजगार, कर्मठ−ईमानदार लोगों की जरूरत है। भ्रष्टाचार का जड़मूल से खात्मा जरूरी है। यह सब इतना आसान नहीं है, धर्म−संस्कृति और देशभक्ति के नाम पर विवाद करना आसान है। इससे लोगों में ध्रुवीकरण करके आम लोगों का ध्यान वास्तविक मुद्दों से हटाया जा सकता है। सिर्फ विवादित मुद्दे को छेड़े जाने की जरूरत भर है। राजनीतिक दल उन्हें लपकने को तैयार रहते हैं। कोई भी दल और सरकारें यह नहीं कहतीं कि ऐसे फिजूल के विषयों को इतिहास में ही रहने दो। इससे देश की तरक्की और सम्मान नहीं बढ़ेगा। इसके विपरीत राजनीतिक दल ऐसे मुद्दों में घी डालने का काम करते हैं।

देश और राज्यों में समस्याओं की भरमार है। इनका वास्तविक समाधान ढूंढने के बजाए नेता फालतू के मुद्दे उठा कर समस्याओं से ध्यान हटाने की कोशिश में लगे रहते हैं। इसे विडंबना ही कहा जाएगा कि एक तरफ देश अंतरिक्ष, चिकित्सा और आईटी जैसे क्षेत्रों में विश्व में अपना परचम लहरा रहा है, वहीं दूसरी तरफ दूसरे क्षेत्रों में ऐसी ही उपलब्धियों को हासिल करने के बजाए फिजूल के नुकसान पहुंचाने वाले मुद्दों को भुना कर राजनीतिक स्वार्थ पूरा करने की कवायद की जा रही है।

-योगेन्द्र योगी

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