सेना और सैनिकों का सम्मान कीजिए, गाली देना सरासर गलत
अभी तक किसी व्यक्ति को सेना के विरुद्ध अनर्गल बयान देने पर कभी कोई सजा नहीं मिली है। जबकि किसी नेता का अस्वीकार्य व्यंग्यचित्र बनाने पर उस चित्रकार को जेल हो जाती है।
विश्व में शायद भारत ही ऐसा देश होगा जहां राष्ट्रीय सेना के प्रति अभद्र और असंयमित भाषा बोलने वाले भी मिल जाते हैं। भारतीय सेना द्वारा बलात्कार को एक 'हथियार' के रूप में इस्तेमाल किया जाता है-- यह था 2013 में एक अंग्रेजी भाषा की प्रसिद्ध भारतीय लेखिका का वक्तव्य। वामपंथी कांग्रेस झुकाव के नेता और लेखक लिखते हैं-- 'सेना ने छत्तीसगढ़ के गरीब माओवादियों के खात्मे के लिए स्थानीय स्कूलों को सैनिक बैरकों में तब्दील कर दिया है।' सेना सर्जिकल स्ट्राइक करे तो उस पर सवाल किए जाते हैं और उसकी मजाक उड़ाई जाती है। सैनिक अफसर तत्काल बुद्धि का प्रयोग कर नागरिकों और सैनिकों की रक्षा के लिए उपद्रवी को ही ढाल बना लें- जो विश्व में प्रचलित सैन्य कार्यवाही है- तो इस पर दनादन संपादकीय और आरोपों की बौछार शुरू हो जाती है। कश्मीर सेना में स्कूल चलाए, वहां के युवाओं को प्रतिस्पर्धी परीक्षाओं के लिए सिद्ध करे तो उसका कोई श्रेय नहीं। इस किस्म के भारतीय नागरिक क्या सच में भारतीय हैं?
अभी तक किसी व्यक्ति को सेना के विरुद्ध अनर्गल बयान देने पर कभी कोई सजा नहीं मिली है। जबकि किसी नेता का अस्वीकार्य व्यंग्यचित्र बनाने पर उस चित्रकार को जेल हो जाती है। राहुल गांधी को उनकी पार्टी के एक जिलाध्यक्ष ने पप्पू कह दिया तो उन्हें पार्टी से निलंबित कर दिया, लेकिन दिल्ली के कांग्रेस नेता संदीप दीक्षित द्वारा सेनाध्यक्ष को 'गली का गुंडा' बताने पर उनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हुई, कुछ बेमानी प्रतिक्रिया जरूर हुई- लेकिन कमोबेश ज्यादातर नेता खामोश रहे। माकपा नेता वृंदा कारत ने तो संदीप दीक्षित का समर्थन किया। सपा, बसपा, तृणमूल, द्रमुक, अन्नाद्रमुक, पीडीपी, अकाली दल, बीजू जद और जदयू किस्म के सेकुलर दलों ने सन्नाटा ओढ़े रखा। कल्पना करिए यदि कोई ऐसी अभद्र टिप्पणी इन पार्टियों के किसी शिखर नेता के बारे में करते तो क्या प्रतिक्रिया होती? उसके मुंह पर स्याही फैंकी जाती, प्रदर्शन होते, हड़ताल होती, जूते मारते, अदालत में मामला दर्ज होता, सरकार को दखल देना पड़ता और टिप्पणी करने वाला या तो जेल जाता या सार्वजनिक माफी मांगता। पर सेनाध्यक्ष जनरल बिपिन रावत को 'सड़क का गुंडा' कहने पर ऐसा कुछ नहीं हुआ।
शायद यह सोचा गया कि यह विषय जनरल रावत का व्यक्तिगत है- सो उनको ही इससे निबटना होगा। मेरे द्वारा 'काले' शब्द के अनुपयुक्त प्रयोग पर लोकसभा रोक दी गयी, दिन रात चैनलों पर सेकुलरों ने ऐसा 'युद्ध जैसा' माहौल बनाया मानो तबाही मच गयी हो- जबकि मैं खेद प्रकट कर चुका था। संदीप दीक्षित हो या वृंदा कारत, सेनाध्यक्ष पर गाली की बौछार करने और उसे सही ठहराने के बावजूद आराम से अपनी राजनीतिक क्रीड़ा करते हैं- उन्हें कोई भय नहीं है।
गढ़वाल के एक संभ्रांत परिवार से आए श्री बिपिन रावत पारिवारिक परम्परा से फौजी हैं। प्रोफेशनल नेता जैसा नहीं। उनके पिता जनरल लक्ष्मण रावत उप सेनाध्यक्ष पद रहे। उनके भाई कर्नल थे। दिसंबर 1978 में वे देहरादून स्थित भारतीय सैन्य अकादमी से दीक्षित हुए तो सर्वश्रेष्ठ कैडेट के नाते उन्हें 'सोर्ड ऑफ आनर से' अंलकृत किया गया। युवा सैनिक अफसर बिपिन रावत ने अत्युच्च पहाड़ी क्षेत्रों में युद्ध एवं विद्रोह प्रतिरोधक अभियानों का विशेष प्रशिक्षण लिया तथा जम्मू कश्मीर की चुनौतीपूर्ण स्थितियों का सामना करते हुए बिताया। उनकी बहादुरी के लिए उन्हें उत्तम सेना युद्ध मैडल, अति विशिष्ट सेना मैडल, युद्ध सेना मैडल, सेना मैडल, विशिष्ट सेना मैडल के अलावा अनेक प्रशस्ति पत्र मिले हैं। ये अलंकरण उम्र बढ़ने के हिसाब से नहीं मिलते जैसे नेता और उनके बच्चे लेते जाते हैं। इनको अत्यंत कठिन परीक्षणों और शानदार कर्तव्य की कसौटी पर खरे उतरने के बाद दिया जाता है। जनरल रावत 11 गोरखा राइफल के कर्नल भी हैं और फर्राटे से नेपाली बोलते हैं। उन्होंने एम. फिल और पीएचडी उपाधि भी ली है।
बेहूदा हरकतों से राजनीति में नाम तथा पैसा कमाने वाले संदीप दीक्षित, वृंदा कारत जैसे लोग क्या जानेंगे एक सैनिक के जीवन की कठिन डगर जहां पर भरोसा नहीं होता कि अगले दिन वह तिरंगा चढ़ाएगा या उसकी देह तिरंगे में लिपट घर भेजी जाएगी। ऐसी जांबाज सेना पर जब ये विलासी और अहंकारी लोग टिप्पणियां करते हैं तो इसे देश के लिए दुर्भाग्यजनक माना जाएगा।
कम्युनिस्ट तो सेना विरोधी हैं ही। 1962 में पं. नेहरू ने सैंकड़ों कम्युनिस्ट नेताओं को चीन का साथ देने के आरोप में देशद्रोह की धारा में गिरफ्तार किया था। फील्ड मार्शल सैम मानेकशा विश्व की महान सैनिक विभूतियों में गिने गए। 1971 का युद्ध उनके नेतृत्व में जीता गया। 27 जून 2008 को विलिंग्टन में 94 वर्ष की आयु में उनका देहांत हुआ। स्वतंत्र भारत के प्रथम युद्ध विजेता सेनानी के अंतिम संस्कार में भारतीय सेनाओं के सर्वोच्च कमांडर यानी राष्ट्रपति नहीं गए, प्रधानमंत्री नहीं गए, रक्षा मंत्री नहीं गए। तीनों सेनाओं के सेनाध्यक्षों की स्टाफ कमेटी के अध्यक्ष भी अनुपस्थित रहे। वायुसेना अध्यक्ष भी अनुपस्थित थे। यह था कांग्रेस सरकार द्वारा स्वतंत्र भारत के प्रथम फील्ड मार्शल के अंतिम संस्कार पर दिया गया सम्मान। यहां तक कि नालायक, भ्रष्ट नेताओं के निधन पर भी झुकाया जाने वाला राष्ट्रध्वज फील्ड मार्शल मानेकशा के निधन पर नहीं झुकाया गया।
सैनिकों का सम्मान क्या होता है इसकी हम ब्रिटेन, अमेरिका, फ्रांस या चीन से तुलना भी नहीं कर सकते। वहां बड़ी संख्या में पूर्व सैनिक राजनीति में आते हैं। हर जगह, सामान्य व्यक्ति सैनिकों के सम्मान में स्वतः अभिवादन करता है।
एक ओर सैनिक पाकिस्तान और उसके पैसे पर पल रहे पत्थरबाजों तथा घुसपैठियों का सामना कर रहा है-- दूसरी ओर दिल्ली से भी उस पर पत्थर बरसाए जा रहे हैं। इस दुतरफा युद्ध में वह अभिमन्यु कैसे भारत की रक्षा का दायित्व निभाएगा? क्या सेना भारत से अलग किसी दूसरे ग्रह से आयी है जिसके साथ हमारा कोई रिश्ता नहीं? ये सब तथाकथित बड़े लोग जो सेना के अपमान पर खामोश रहते हैं, अपने ही रक्त से विश्वासघात कर रहे हैं?
- तरुण विजय
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