''दुर्घटना से देर भली'', यह सब जानते तो हैं लेकिन देर किसी को पसंद नहीं है

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ललित गर्ग । Jul 11 2019 3:04PM

सड़क हादसों में मरने वालों की बढ़ती संख्या ने आज मानो एक महामारी का रूप ले लिया है। इस बारे में राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़े दिल दहलाने वाले हैं। पिछले साल सड़क दुर्घटनाओं में औसतन हर घंटे सोलह लोग मारे गए।

लखनऊ से दिल्ली की ओर जा रही उत्तर प्रदेश परिवहन की एक बस ड्राईवर को नींद की झपकी आ जाने से यमुना एक्सप्रेस-वे पर करीब तीस फुट गहरे नाले में जा गिरी। इस त्रासद हादसे में 29 लोगों की मौत हो गई और अठारह बुरी तरह घायल हो गए। इस तरह की कोई एक घटना बड़े सबक के लिए काफी होनी चाहिए। लेकिन ऐसा लगता है कि हर कुछ समय के बाद एक्सप्रेस-वे के हादसों के बावजूद सरकार या संबंधित विभाग की नींद नहीं खुलती। इस त्रासद घटना ने एक बार फिर यह सोचने को मजबूर कर दिया कि आधुनिक और बेहतरीन सुविधा की सड़कें केवल रफ्तार के लिहाज से जरूरी हैं या फिर उन पर सफर का सुरक्षित होना पहले सुनिश्चित किया जाना चाहिए। हर दुर्घटना को केन्द्र एवं राज्य सरकारें दुर्भाग्यपूर्ण बताती हैं, उस पर दुख व्यक्त करती हैं, मुआवजे का ऐलान भी करती हैं लेकिन एक्सीडेंट रोकने के गंभीर उपाय अब तक क्यों नहीं किए जा सके हैं? जो भी हो, सवाल यह है कि इस तरह की तेज रफ्तार सड़कों पर लोगों की जिंदगी कब तक इतनी सस्ती बनी रहेगी? सच्चाई यह भी है कि उत्तर प्रदेश में ही नहीं, पूरे देश में सड़क परिवहन भारी अराजकता का शिकार है। सबसे भ्रष्ट विभागों में परिवहन विभाग शुमार है।

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‘दुर्घटना’ एक ऐसा शब्द है जिसे पढ़ते ही कुछ दृश्य आंखों के सामने आ जाते हैं, जो भयावह होते हैं, त्रासद होते हैं, डरावने होते हैं, खूनी होते हैं। यमुना एक्सप्रेस-वे के इस हादसे पर प्रधानमंत्री समेत अन्य अनेक प्रमुख लोगों ने शोक व्यक्त किया है, लेकिन क्या इन शोक संवेदनाओं से हालात बदलेंगे और जानलेवा सड़क हादसे थमेंगे? यह प्रश्न इसलिए, क्योंकि मार्ग दुर्घटनाओं और उनमें मरने एवं घायल होने वालों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है। इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि चंद दिनों पहले जम्मू-कश्मीर के किश्तवाड़ जिले में एक मिनी बस के खाई में गिरने से 35 लोग काल के गाल में समा गए थे। इसके थोड़े दिन पहले हिमाचल प्रदेश के कुल्लू जिले में एक बस के नाले में गिर जाने से 44 लोगों की मौत हो गई थी। करीब एक पखवाड़े के अंदर देश के विभिन्न हिस्सों में एक के बाद एक बस दुर्घटनाओं में सौ से अधिक लोगों की मौत यही बताती है कि अपने देश की सड़कें कितनी अधिक जोखिम भरी हो गई हैं।

किश्तवाड़ और कुल्लू के मामले में यह सामने आया था कि दुर्घटना का शिकार हुई बसों में क्षमता से अधिक यात्री सवार थे। यमुना एक्सप्रेस-वे पर हुए हादसे का कारण बस की रफ्तार कहीं तेज होना भी बताया जा रहा है। तेज रफ्तार वाहनों और लापरवाही के कारण यमुना एक्सप्रेस-वे लगातार गंभीर दुर्घटनाओं से दो-चार हो रहा है, आठ साल में 900 से अधिक मौतें इस एक्सप्रेस-वे पर हुई हैं, वर्ष 2019 में ही 127 जानें गयी हैं। लेकिन ऐसा लगता है कि यह मान लिया गया है कि एक्सप्रेस-वे पर तो दुर्घटनाएं होना लाजमी ही है। अगर ऐसा कुछ नहीं है तो फिर मार्ग दुर्घटनाओं को रोकने के उपाय क्यों नहीं किए जा रहे हैं? सच यह है कि ऐसे बेलगाम वाहनों की वजह से सड़कें अब पूरी तरह असुरक्षित हो चुकी हैं। सड़क पर तेज गति से चलते वाहन एक तरह से हत्या के हथियार होते जा रहे हैं वहीं सुविधा की सड़कें खूनी मौतों की त्रासद गवाह बनती जा रही हैं।

यह गंभीर चिंता का विषय और विडम्बनापूर्ण है कि हर रोज ऐसी दुर्घटनाओं और उनके भयावह नतीजों की खबरें आम होने के बावजूद बाकी वाहनों के मालिक या चालक, सरकार और परिवहन विभाग कोई सबक नहीं लेते। सड़क पर दौड़ती गाड़ी मामूली गलती से भी न केवल दूसरों की जान ले सकती है, बल्कि खुद चालक और उसमें बैठे लोगों की जिंदगी भी खत्म हो सकती है। पर लगता है कि सड़कों पर बेलगाम गाड़ी चलाना कुछ लोगों के लिए मौज-मस्ती एवं मजबूरी का मामला होता है लेकिन यह कैसी मौज-मस्ती या मजबूरी है जो कई जिन्दगियां तबाह कर देती है। ऐसी दुर्घटनाओं को लेकर आम आदमी में संवेदनहीनता की काली छाया का पसरना त्रासद है और इससे भी बड़ी त्रासदी सरकार की आंखों पर काली पट्टी का बंधना है। हर स्थिति में मनुष्य जीवन ही दांव पर लग रहा है। इन बढ़ती दुर्घटनाओं की नृशंस चुनौतियों का क्या अंत है? बहुत कठिन है दुर्घटनाओं की उफनती नदी में जीवनरूपी नौका को सही दिशा में ले चलना और मुकाम तक पहुंचाना, यह चुनौती सरकार के सम्मुख तो है ही, आम जनता भी इससे बच नहीं सकती।

निःसंदेह बेहतर सड़कें समय की मांग हैं, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि वे भीषण दुर्घटनाओं का गवाह बनती रहें। बेहतर हो कि हमारे नीति-नियंता यह समझें कि जानलेवा सड़क हादसे को रोकने के लिए कुछ ठोस कदम उठाने की सख्त जरूरत है। सुप्रीम कोर्ट भी तल्ख टिप्पणी कर चुका है कि ड्राइविंग लाइसेंस किसी को मार डालने के लिए नहीं दिए जाते। सच्चाई यह भी है कि नियमों के उल्लंघन के एवज में पुलिस की पकड़ में आने वाले लोग बिना झिझक जुर्माना चुका कर अपनी गलती के असर को खत्म हुआ मान लेते हैं। परिवहन नियमों का सख्ती से पालन जरूरी है, केवल चालान काटना समस्या का समाधान नहीं है। देश में 30 प्रतिशत ड्राइविंग लाइसेंस फर्जी हैं। परिवहन क्षेत्र में भारी भ्रष्टाचार है लिहाजा बसों का ढंग से मेनटेनेंस भी नहीं होता। इनमें बैठने वालों की जिंदगी दांव पर लगी होती है। पिछले दिनों तमिलनाडु ने दुर्घटना रोकने के लिए ऐसे कई उपाय किए हैं, जिनसे काफी फर्क पड़ा है। देश भर में बसों के रख-रखाव, उनके परिचालन, ड्राइवरों की योग्यता और अन्य मामलों में एक-समान मानक लागू करने की जरूरत है, तभी देश के नागरिक एक राज्य से दूसरे राज्य में निश्चिंत होकर यात्रा कर सकेंगे।

विडंबना यह है कि जहां हमें पश्चिमी देशों से कुछ सीखना चाहिए वहां हम आंखें मूंद लेते हैं और पश्चिम की जिन चीजों की हमें जरूरत नहीं है उन्हें सिर्फ इसलिए अपना रहे हैं कि हम भी आधुनिक कहला सकें। एक आकलन के मुताबिक आपराधिक घटनाओं की तुलना में पांच गुना अधिक लोगों की मौत सड़क हादसों में होती है। कहीं बदहाल सड़कों के कारण तो कहीं अधिक सुविधापूर्ण अत्याधुनिक चिकनी सड़कों पर तेज रफ्तार अनियंत्रित वाहनों के कारण ये हादसे होते हैं। दुनिया भर में सड़क हादसों में बारह लाख लोगों की प्रतिवर्ष मौत हो जाती है। इन हादसों से करीब पांच करोड़ लोग प्रभावित होते हैं। बात केवल राजमार्गों की ही नहीं है, गांवों, शहरों एवं महानगरों में सड़क हादसों पर कई बड़े सवाल खड़े कर दिये हैं। सरकार की नाकामी इसमें प्रमुख है। ट्रैफिक व्यवस्था कुछ अंशों में महानगरों को छोड़कर कहीं पर भी पर्याप्त व प्रभावी नहीं है। पुलिस ''व्यक्ति'' की सुरक्षा में तैनात रहती है ''जनता'' की सुरक्षा में नहीं। हजारों वाहन प्रतिमास सड़कों पर नए आ रहे हैं, भीड़ बढ़ रही है, रोज किसी न किसी को निगलने वाली ''रेड लाइनें'' बढ़ रही हैं। दुर्घटना में मरने वालों की तो गिनती हो जाती है पर वाहनों से निकलने वाले जहरीले धुएँ से प्रतिदिन मौत की ओर बढ़ने वालों की गिनती असंख्य है।

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सड़क हादसों में मरने वालों की बढ़ती संख्या ने आज मानो एक महामारी का रूप ले लिया है। इस बारे में राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़े दिल दहलाने वाले हैं। पिछले साल सड़क दुर्घटनाओं में औसतन हर घंटे सोलह लोग मारे गए। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, दुनिया के अट्ठाईस देशों में ही सड़क हादसों पर नियंत्रण की दृष्टि से बनाए गए कानूनों का कड़ाई से पालन होता है। इंसानों के जीवन पर मंडरा रहे मौत के तरह-तरह की डरावने हादसों एवं दुर्घटनाओं पर काबू पाने के लिये प्रतीक्षा नहीं, प्रक्रिया आवश्यक है। तेज रफ्तार से वाहन दौड़ाने वाले लोग सड़क के किनारे लगे बोर्ड़ पर लिखे वाक्य ‘दुर्घटना से देर भली’ पढ़ते जरूर हैं, किन्तु देर उन्हें मान्य नहीं है, दुर्घटना भले ही हो जाए।

-ललित गर्ग

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