संघ के राष्ट्रोदय समागम ने विश्व को भारत उदय की झलक दिखाई

RSS Rashtrodaya sangam showed the world the glimpse of India''s rise
तरुण विजय । Mar 1 2018 3:55PM

इस संदर्भ में गत 26 फरवरी को मेरठ में संघ का विराट राष्ट्रोदय समागम विश्व के इतिहास में गणवेशधारी, गैर सैनिक कार्यकर्ताओं के सबसे बड़े अनुशासित कार्यक्रमों में शामिल हो तो आश्चर्य नहीं।

गत माह मैं नागपुर में डॉ. श्री राम जोशी से मिला- '40 के दशक में उन्होंने एम.टेक किया, संघ के प्रचारक रहे, उनके तीन पुत्र हुए- तीनों ने औद्योगिक व्यवसाय, विज्ञान, वाणिज्य में ग्रेजुएशन व पोस्टग्रेजेएशन किया- तीनों प्रचारक बन गए। क्यों? कैसी होगी वह मां जिसके केवल तीन बेटे और तीनों घर छोड़ बैरागी बाना पहन निकल गए? उस मां का मैंने 25 वर्ष पूर्व साक्षात्कार किया था कि क्यों उन्होंने तीनों बेटे संघ को दे दिए? वह थीं सविता जोशी, जिन्होंने पुणे विश्वविद्यालय से 1945-46 में एमए किया। उस जमाने में बैडमिंटन में विश्वविद्यालय की चैम्पियन बनीं। साहित्यिक अभिरूचि। वे बोलीं- मेरे बेटे कम पढ़े लिखे नहीं, कि कहीं और कुछ न कर पाए इसलिए संघ के प्रचारक बने। पर समाज के काम के लिए पड़ोसी के बच्चे जाएं और मेरे बच्चे उद्योगपति बनें, ऐसी सोच से देश बनेगा क्या? सविता जी का हाल ही में 82 वर्ष की उम्र में देहांत हुआ है।

ऐसी दृढ़ता वाली संघ माताएं हजारों हैं- जो निस्पृहता से समाज को अपने बेटे देतीं हैं। संघ की शक्ति यहां से आती है। हालांकि पति-पत्नी की वृद्धावस्था देख सरसंघचालक सुदर्शन जी के आग्रह पर एक बेटा वापस सविता-राम जोशी जी के घर कार्य हेतु लौटा- पर दो बेटे आज भी प्रचारक हैं। 95 वर्षीय आदर्श स्वयंसेवक बाबूराम वैद्य अन्य उदाहरण हैं- पांच बेटे- उनमें से दो उच्चशिक्षित- दोनों प्रचारक। उनकी धर्मपत्नी कहती है, मुझे आश्चर्य है कि बाकी तीनों भी प्रचारक क्यों नहीं बने।

केरल में दो सौ से ज्यादा स्वंयसेवक कम्युनिस्ट हिंसा का शिकार हुए। पिता को मारा, फिर 16 साल बाद इकलौते युवा पुत्र राजेश को मारा। उसकी पत्नी रीना, नन्हें बच्चे आदित्यन और अभिषेक, उसकी विधवा मां ललिता के दुख की कोई सीमा होगी क्या? पर क्या उन्होंने संघ छोड़ दिया? उस मां का पोता भी स्वयंसेवक हैं ऐसी उद्यम निष्ठा जिस संगठन की थाती हो, उसे क्या राजनीति के आइने से पहचाना जा सकता है? भाजपा संघ की शक्ति और परिचय का आईना नहीं- यदि कोई वास्तविक परिचय का सूत्र है तो वह पीढ़ी दर पीढ़ी चले आ रहे स्वयंसेवक परिवार हैं। कितने लोग जानते होंगे कि देश से सबसे सस्ते, विश्वसनीय और सेवाभावी अस्पताल संघ के स्वयंसेवक चला रहे हैं? आरोग्य केंद्र, रक्त बैंक, नेत्र दान, देह दान ही नहीं, विशेष सक्षम बच्चों, प्रज्ञाचक्षुओं और मानसिक दुर्बलता के शिकार लोगों हेतु सक्षम जैसे संगठन संघ के कार्यकर्ता चला रहे हैं। 1.59 लाख से ज्यादा ऐसे प्रकल्प हैं। क्या इनमें जान खपाने वाले योग्य कार्यकर्ता नफरत एवं हिंसा से प्रेरित हैं या भारत-भक्ति की सकारात्मक दीवानगी से? दो स्वयंसेवक- एक का नाम देवेंद्र फड़णवीस, दूसरे शैलेश जोगलेकर। देवेंद्र के पिता कैंसर से लड़ते हुए दिवंगत हुए। शैलेश की पत्नी भी कैंसर के कारण युवावस्था में ही शरीर छोड़ गयीं। दोनों ने संघ के वरिष्ठ प्रचारक तथा प्रसिद्ध चिकित्सक डॉ. आबा जी थत्ते की स्मृति में 700 शैय्याओं वाला अत्याधुनिक कैंसर संस्थान बनाया, जो संपूर्ण मध्य भारत में अपने किस्म का प्रथम है। उन्होंने यह संस्थान देश का सबसे कम मूल्य पर उच्च स्तरीय चिकित्सा देने वाला बनाया- मुनाफे के लिए नहीं और न ही अपने पिता या पत्नी का समर्पित किया। इसे क्या कहेंगे? इसके सामने कांग्रेस, कम्युनिस्ट या अन्यों के कैसे उदाहरण हैं? कैंसर अस्पताल के प्रेरक देवेन्द्र फडणवीस आज महाराष्ट्र के लोकप्रिय मुख्यमंत्री हैं।

पाकिस्तान ने पंजाब में हिन्दू-सिख वैमनस्य व दंगे करवाने तथा पहले मुस्लिम-सिख, फिर दलित-मुस्लिम-नक्सली गठजोड़ करवाकर हिन्दुओं के विरुद्ध जहर फैलाने का भरसक प्रयास किया। पर 1984 में सिखों की मदद से लेकर अपने वरिष्ठ कार्यकर्ताओं की हत्या का कड़वा घूंट पीते हुए हिन्दू-सिख एकता बनाए रखने में संघ ने अप्रतिम भूमिका निभायी। आज भी देश में सर्वाधिक अन्तर्जातीय विवाह संघ के परिवारों में होते हैं। सैन्य संगठनों की सहायता के लिए सबसे आगे संघ के अनुशासित -'सिविल सैनिक' रहते हैं तो हर आपदा में सेवा करते प्रथम नागरिक भी ये संघ वाले पागल ही होते हैं।

संघ शक्ति का मर्म भारत के लिए अगाध निष्ठा, प्रेम और भक्ति में निहित है- जिसे श्री अरविन्द ने भवानी-भारती ये रुपायित किया था। जो इतनी असंदिग्ध भारत निष्ठा रखे, उसका स्वार्थ एवं विदेशी मन में रंगे राजनीतिक संगठन कितना भी एकजुट हो जाएं, पर सामना नहीं कर सकते हैं। संघ शक्ति आज वस्तुतः भारत के विभिन्न क्षेत्रों में ईमानदारी, भारतीय और त्याग की त्रिवेणी का ऊर्जा केंद्र बनी है- क्या इसे नकारा जा सकता है?

इस संदर्भ में गत 26 फरवरी को मेरठ में संघ का विराट राष्ट्रोदय समागम विश्व के इतिहास में गणवेशधारी, गैर सैनिक कार्यकर्ताओं के सबसे बड़े अनुशासित कार्यक्रमों में शामिल हो तो आश्चर्य नहीं। यह 1925 में स्थापित राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की 93 वर्षीय यात्रा का भी विशालतम समागम रहा। एक ऐसे माहौल में जब खंडहर बने दल भी संघ का सामना करने को इकट्ठा होने की बात कर रहे हैं- एक दृष्टि इस समागम के स्वरूप पर डालना उचित होगा- कुल गणवेशधारी पंजीकृत स्वयंसेवकों की संख्या 3,13,393 (तीन लाख तेरह हजार तीन सौ तिरानवे)। ये केवल पश्चिमी उत्तर प्रदेश में 14 जिलों (जिन्हें संघ कार्य की दृष्टि से 25 में बांटा गया है) से आए थे। इनमें से वास्तविक उपस्थिति 2.86 लाख- स्वयंसेवक। 650 एकड़ में समागम स्थल था, चार मंजिला- 35 फीट ऊंचा मंच- जो दो हजार वर्ग फीट (1200x100 फीट) था। 400 एकड़ में वाहन पार्किंग। मेरठ, मवाना और सरधना के तीन लाख परिवारों से भोजन के छह लाख पैकेट बनकर आए (दो समय हेतु) प्रत्येक प्रतिभागी से पचास रुपए शुल्क लिया, दस हजार कुर्सियां, वाय-फाई, दो हजार शौचालय, पानी, चिकित्सा, प्रवेश के लिए 'बार कोड' प्रणाली और कार्यक्रम के बाद एक इंच जमीन पर कोई कूड़ा नहीं, कोई अव्यवस्था नहीं- प्रत्येक सुरक्षा कार्य केवल स्वयंसेवकों के भरोसे। सैंकड़ों स्वयंसेवकों- तीसरी, चौथी पीढ़ी के आए- दादा, पिता, पोता और पड़पोता- गणवेश में। यहां नाइजीरिया से लेकर शिकागो तक से ही स्वयंसेवक नहीं थे, बल्कि रास्ते भर मुस्लिमों के जत्थे स्वयंसेवकों को पानी पिलाते, उनकी अभ्यर्थना करते दिखे। संघ के सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत का संबोधन संतुलित, बिना कटुता अथवा संघ विचारधारा के आलोचकों के प्रति आक्रामता से रहित- केवल देश प्रेम, परम वैभव, सुरक्षा अर्थात कुल मिलाकर भारत के उदय पर केन्द्रित था।

यह हर दृष्टि से एक आश्चर्यजनक घटनाक्रम रहा। संघ के आलोचक, जो गत अनेक दशकों से स्वयं घटते हुए भी संघ-विरोध के तेवर बढ़ाते आ रहे हैं- इस बात का जवाब नहीं दे पाएंगे कि 93 वर्षों से ब्रिटिश एवं तद्नंतर कांग्रेस कम्युनिस्ट तंत्रों व विचारों द्वारा लगातार विरोध के बावजूद संघ कार्य का प्रभाव बढ़ता ही क्यों जा रहा है? क्यों यह संभव हुआ कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के दो प्रचारक प्रधानमंत्री बने, क्यों उनके शासनकाल भिन्न, अन्य शासकों की तुलना में बेहतर तथा विश्व भर में अपनी प्रभावी छवि के लिए जाने जा रहे हैं? 1925 में भारत में कम्युनिस्ट पार्टी की भी स्थापना हुई थी- जो आज देश में या तो छत्तीसगढ़-बिहार के नक्सली माओवादियों के चेहरों से वैचारिक प्रतिनिधित्व कर रही है या देश के प्रायः हर क्षेत्र से अस्वीकृत ऐसे लोकतांत्रिक सांगठनिक बिखराव को दर्शा रही है जिसमें सीताराम येचुरी केरल इकाई

को यह बता रहे हैं कि 'हम भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी-मार्क्सवादी' हैं- 'केरल कम्युनिस्ट पार्टी नहीं। '

कांग्रेस की स्थापना, एक ब्रिटिश द्वारा 1885 में हुई थी- 44 वर्ष तक उसने पूर्ण स्वराज्य नहीं मांगा। पहला पूर्ण स्वराज्य का प्रस्ताव लाहौर अधिवेशन में पारित किया गया था- 1929 में। रा.स्व. संघ के संस्थापक डॉ. केशव बलीराम हेडगेवार कांग्रेस कार्यकर्ता थे जिन पर 1920 में नागपुर में हुए कांग्रेस अधिवेशन की व्यवस्था की जिम्मेदारी थी और 1925 में संघ स्थापना के बाद जब कांग्रेस ने पूर्ण स्वराज्य का प्रस्ताव पारित किया तो डॉ. हेडगेवार ने एक निर्देशात्मक पत्र जारी कर देश भर में स्वयंसेवकों द्वारा उस प्रस्ताव के अभिनंदन हेतु कहा था। 1947 तक संघ के प्रत्येक स्वयंसेवक को जो प्रतिज्ञा लेनी होती थी उसमें स्वतंत्रता हेतु कार्य करने की पंक्ति अनिवार्यत: रहती ही थी।

लेकिन फिर भी संघ की राष्ट्रभक्ति स्वातंत्र्य समर में हिस्सेदारी, मुस्लिम विरोध, पिछड़े अतीतकालीन अनाधुनिक स्वरूप के मुद्दे उछाल कर उस पर आरोप लगाना उन लोगों का स्वभाव बन गया है जो न तो कभी संघ को जान पाए, न उसका अध्ययन किया। क्या शिक्षा, आरोग्य, समरसता, जनजातीय विकास, धर्म, राजनीति, छात्र-परिसर, मजदूर तथा कामगार संघर्ष, पत्रकारिता, सैन्य-सुरक्षा, जैसे विविध एवं विराट सामाजिक क्षेत्रों में भारत के प्रथम क्रमांक के प्रभावी संगठन देने वाला शक्ति-केंद्र कभी घृणा या नकारात्मक सोच पर बढ़ सकता था? राजनीति से लेकर सॉफ्टवेयर तथा विज्ञान (सुपर कम्प्यूटर के जनक डॉ. विजय भास्कर तो महज एक उदाहरण हैं) से लेकर स्त्री जागरण तथा सशक्तिकरण के लिए राष्ट्रसेविका समिति जैसे संगठन बढ़ाने वाले मूल स्त्रोत-यानी रा. स्वंयसेवक संघ क्या नकारात्मक, बुद्धिहीन, पिछड़े लोगों की भीड़ के कारण न सिर्फ भारत में बल्कि 82 अन्य देशों में फैला है?

संघ विस्तार राजनीति, धन या साम्प्रदायिक घृणा के बल पर नहीं बल्कि उन सैंकड़ों हजारों सुसंस्कृत, सुपठित भारतीयों के जीवन-तप से बढ़ा है जिन्होंने अजान, अनाम, अचीन्हें रहते हुए खुद को बर्मा सीमा पर मोरेह, अरुणाचल में तवांग, लद्दाख में लेह, अंदमान में पोर्ट ब्लेयर तो दक्षिण में नीलगिरि से लेकर गंगतोक और चंद्रपुर के नक्सल क्षेत्रों (महाराष्ट्र) तक साधारण, निम्न, मध्यम आय वाले भारतीयों के बीच भगवा न धारण करते हुए भी संन्यासी की भांति काम किया। राजनीतिक क्षेत्र में धर्म, जाति, ईर्ष्या, विद्वेष पर टिक कर काम करने वालों की समझ में यह 'पागलपन' नहीं आ सकता।

-तरुण विजय

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