लगता तो ऐसा ही है कि देश का निज़ाम अमीरों के लिए है

Seems that Nizam of our Country is for Rich
फ़िरदौस ख़ान । Jun 26 2017 10:55AM

मुद्दा सरकारी सुविधाओं के दुरुपयोग का है, पद के दुरुपयोग का है। जिस देश में लोग इलाज के अभाव में दम तोड़ देते हैं, उस देश में जनमानस की परवाह किए बिना किसी के घर को ही अस्पताल में तबदील कर देना क्या सही है?

भारत एक ऐसा देश है, जिसमें निज़ाम के लिहाज़ से कई देश बसते हैं। देश का एक निज़ाम अमीरों के लिए है, राजनेताओं के लिए है, प्रभावशाली लोगों के लिए है। ये सरकारी निज़ाम इनके एक इशारे पर इन्हें तमाम सुविधाएं मुहैया कराता है। इनमें वे सुविधाएं भी शामिल हैं, जिनकी इन्हें कोई ख़ास ज़रूरत नहीं होती। मसलन, बीमार होने पर ये महंगे से महंगे नामी अस्पतालों में इलाज करा सकते हैं, लेकिन ये ऐसा नहीं करते क्योंकि सरकारी अस्पताल इन्हें सभी सुविधाएं मुहैया कराते हैं। हालत तो यह है कि अस्पताल ख़ुद इनके घर पहुंच जाता है।

ताज़ा मिसाल राष्ट्रीय जनता दल के प्रमुख व बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव की है। हुआ यूं कि पिछले महीने वे बीमार हो गए। फिर किया था, उनके स्वास्थ्य मंत्री बेटे ने घर पर ही चिकित्सकों को तैनात करा दिया। इंदिरा गांधी इंस्टीट्यूट ऑफ़ मेडिकल साइंस (आईजीआईएमएस) के 31 मई को जारी विभागीय पत्र के मुताबिक़ संस्थान के तीन चिकित्सक और दो वार्ड ब्वॉय की ड्यूटी 31 मई से 8 जून तक 10 सर्कुलर रोड, पटना में लगाई गई थी। हालांकि इस पर ख़ासा विवाद हो रहा है, जो होना भी चाहिए। भारतीय जनता पार्टी बिहार विधान मंडल दल के नेता और पूर्व उप मुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी का कहना है कि लालू प्रसाद यादव के घर पर चिकित्सकों की तैनाती पद का दुरुपयोग है। अगर लालू प्रसाद यादव इतने ज़्यादा बीमार थे, तो उन्हें एयर लिफ़्ट दिल्ली ले जाना चाहिए था या कम से कम आईजीआईएमएस के आईसीयू में दाख़िल करना चाहिए था।

ग़ौरतलब है कि इंदिरा गांधी इंस्टीट्यूट ऑफ़ मेडिकल साइंस (आईजीआईएमएस) के नियमों के मुताबिक़ सिर्फ़ मुख्यमंत्री या स्वास्थ्य मंत्री के बीमार होने पर ही उनके निवास पर चिकित्सकों को तैनात किया जा सकता है। उनके परिवार वालों के लिए चिकित्सकों की तैनाती का कोई प्रावधान नहीं है। हालांकि इस बारे में इंदिरा गांधी इंस्टीट्यूट ऑफ़ मेडिकल साइंस (आईजीआईएमएस) के मेडिकल सुपरिंटेंडेंट डॉ. पीके सिन्हा का कहना है कि चिकित्सकों की तैनाती के लिए बाक़ायदा आदेश जारी किया गया था। तेज प्रताप स्वास्थ्य मंत्री होने के अलावा इंस्टीट्यूट के बोर्ड ऑफ़ गवर्नर्स के चेयरमैन भी हैं, इस नाते उन्हें विशेष अधिकार दिया गया। लालू प्रसाद के नाम से आदेश जारी नहीं किया गया। अगर कोई चिकित्सक कहीं इलाज करने के लिए जाता है, तो उसकी कुछ ज़िम्मेदारी होती है। संस्थान के चिकित्सकों को आधिकारिक नोटिस देकर ही कहीं भेजा जाता है। अगर कोई सामान्य व्यक्ति भी संस्थान में यह बात कहता है, तो क्या उसे घर पर इलाज की सुविधा दी जाएगी। डॉ. सिन्हा कोई भी सफ़ाई पेश करें क्या उनसे यह सवाल नहीं पूछा जाना चाहिए कि अगर लालू बीमार थे, तो उन्हें अस्पताल में दाख़िल क्यों नहीं किया गया? सवाल यह भी है कि उनके संस्थान के चिकित्सकों ने इस तरह कितने सामान्य नागरिकों के घर जाकर उनका इलाज किया है?

देश में दूसरा निज़ाम जनमानस के लिए है, उन लोगों के लिए है, जो बेहद ग़रीब हैं और महंगे अस्पतालों में अपना इलाज नहीं करा सकते। ऐसे लोग अकसर इलाज के अभाव में अस्पताल के बाहर घर या सड़कों पर ही दम तोड़ देते हैं। ऐसी ख़बरें आए दिन-देखने और सुनने को मिलती रहती हैं कि फ़लां ने वक़्त पर इलाज न मिलने की वजह से तड़प-तड़प कर दम तोड़ दिया। देश की आबादी के हिसाब से यहां स्वास्थ्य सुविधाओं की बहुत कमी है। सिर्फ़ सुविधाओं की ही कमी नहीं है, बल्कि अराजकता भी है। कहीं अस्पताल नहीं, कहीं चिकित्सक नहीं, कहीं दवाएं नहीं हैं। देश में स्वास्थ्य सेवाओं की हालत बेहद ख़राब है। ज़्यादातर जगहों पर बिजली की सुविधा भी नहीं है। रिहायशी मकानों की कमी और यातायात की सुविधाएं मुहैया न होने की वजह से चिकित्सक डिस्पेंसरियों में जाने से कतराते हैं। स्वास्थ्य केंद्रों में हमेशा दवाओं की कमी रहती है। चिकित्सकों की शिकायत रहती है कि सरकार द्वारा दवाएं वक़्त पर मुहैया नहीं कराई जातीं। डिस्पेंसरियों द्वारा जिन दवाओं की मांग की जाती है, अकसर उनके बदले दूसरी दवाएं मिलती हैं। जिन दवाओं की एक्सपायरी डेट निकलने वाली होती है या निकल जाती है, उन्हें डिस्पेंसरियों में पहुंचा दिया जाता है, बिना ये सोचे समझे कि इसका मरीज़ पर क्या असर पड़ेगा। राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन की योजनाओं का फ़ायदा भी जनमानस तक नहीं पहुंच पाया है। इस मिशन के मानकों के मुताबिक़ एक ऑपरेशन थियेटर, सर्जरी, सुरक्षित गर्भपात सेवाएं, नवजात देखभाल, बाल चिकित्सा, ब्लड बैंक, ईसीजी परीक्षण और एक्सरे आदि की सुविधाएं मुहैया कराई जानी थीं। इसके अलावा अस्पतालों में दवाओं की भी पर्याप्त आपूर्ति नहीं की जाती।

विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानकों के मुताबिक़ प्रति एक हज़ार की आबादी पर एक चिकित्सक होना चाहिए, लेकिन भारत इस मामले में आज भी बहुत पिछ्ड़ा हुआ है। पिछली एक दशक में इस कमी में तीन गुना तक बढ़ोतरी हुई है। देश में एक लाख की आबादी पर एलोपैथिक, आयुर्वेदिक, यूनानी और होम्योपैथिक चिकित्सक 80 और 61 नर्सें हैं। एमसीआई के मुताबिक़ देश में नौ लाख पंजीकृत चिकित्सक हैं। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री ने राज्यसभा में बताया था कि देश भर में चौदह लाख चिकित्सकों की कमी है और सालाना त़क़रीबन 5500 चिकित्सक ही तैयार हो पाते हैं। विशेषज्ञों के मामले में हालत और भी बदतर हैं। राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन की एक रिपोर्ट में कहा गया था कि सर्जरी, स्त्री रोग, शिशु रोग व अन्य गंभीर रोगों के मामले में 50 फ़ीसद चिकित्सकों की कमी है। 

क़ाबिले-ग़ौर बात यह भी है कि भारत दुनिया के अनेक देशों को सबसे ज़्यादा चिकित्सक मुहैया कराता है। एक रिपोर्ट के मुताबिक़ विदेशों में काम करने वाले भारतीय चिकित्सकों की संख्या साल 2000 में 56 हज़ार थी, दस सालों में यानी साल 2010 में यह बढ़कर 86,680 हो गई। दरअसल, धनाढ्य वर्ग के लोग उच्च शिक्षा के लिए विदेश जाते हैं और फिर वहीं के होकर रह जाते हैं। भारतीय वाणिज्य एवं उद्योग मंडल (एसोचैम) के मुताबिक़ देश से हर साल चार लाख से ज़्यादा युवा विदेशों में पढ़ाई के लिए जा रहे हैं और फिर पढ़ाई के बाद वहीं बस जाते हैं। 

स्वास्थ्य सेवाओं में सरकारी निवेश के मामले में देश की हालत अच्छी नहीं है। इस मामले में पड़ोसी देश भूटान, श्रीलंका और नेपाल हमसे बेहतर हैं। स्वास्थ्य मंत्रालय की एक रिपोर्ट के मुताबिक़ देश में साढ़े 11 हज़ार लोगों पर सिर्फ़ एक सरकारी चिकित्सक है। देश में मेडिकल कॉलेजों की भी कमी है। एक रिपोर्ट के मुताबिक़ देश में 412 मेडिकल कॉलेज हैं, जिनमें से 45 फ़ीसद सरकारी और 55 फ़ीसद निजी हैं। देश के कुल 640 ज़िलों में से महज़ 193 ज़िलों में ही मेडिकल कॉलेज हैं। इन कॉलेजों की फ़ीस और डोनेशन बहुत ज़्यादा होती है। ऐसे में जो मोटी रक़म ख़र्च करके चिकित्सक बनते हैं, तो फिर उनका मक़सद भी सेवा की बजाय मुनाफ़ा कमाना हो जाता है। वे चिकित्सक बनकर मरीज़ों से वसूली शुरू कर देते हैं। मामूली सी बीमारी के लिए भी मरीज़ को ग़ैर ज़रूरी टेस्ट और महंगी दवाएं लिख कर देते हैं। ऐसे में मरीज़ इन चिकित्सकों के पास जाने की बजाय अपने गली-मुहल्ले में बैठे किसी चिकित्सक से दवा लेना बेहतर समझता है। कैमिस्ट को अपना हाल बताकर दवा लेने वालों की भी कोई कमी नहीं है। 

बहरहाल, मुद्दा लालू प्रसाद यादव के इलाज का नहीं है। मुद्दा सरकारी सुविधाओं के दुरुपयोग का है, पद के दुरुपयोग का है। जिस देश में लोग इलाज के अभाव में दम तोड़ देते हैं, उस देश में जनमानस की परवाह किए बिना किसी के घर को ही अस्पताल में तबदील कर देना क्या सही है?  बिल्कुल नहीं। अगर इस मुद्दे पर लालू यादव का विरोध हो रहा है, तो सही है, वहां के मुख्यमंत्री को भी इस बारे में जवाब देना चाहिए।

फ़िरदौस ख़ान

(लेखिका स्टार न्यूज़ एजेंसी में संपादक हैं)

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