बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ से पहले बेटों को संस्कारों का पाठ पढ़ाओ

Teach the lessons of sacraments to sons
[email protected] । Aug 10 2017 7:20AM

चंडीगढ़ की घटना समाज को शर्मसार कर गयी है। बेहतर यह होगा कि बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ के बजाय बेटी बचानी है तो पहले बेटों को सभ्यता और संस्कारों का पाठ पढ़ाओ। उन्हें बेटियों की इज्जत करना तो सिखाओ।

“मुझे मत पढ़ाओ, मुझे मत बचाओ, मेरी इज्जत अगर नहीं कर सकते, तो मुझे इस दुनिया में ही मत लाओ। मत पूजो मुझे देवी बनाकर तुम, मत कन्या रूप में मुझे 'माँ' का वरदान कहो, अपने अंदर के राक्षस का पहले तुम खुद ही संहार करो।'' एक बेटी का दर्द। चंडीगढ़ की सड़कों पर जो 5 अगस्त की रात को हुआ वो देश में पहली बार तो नहीं हुआ। और ऐसा भी नहीं है कि हम इस घटना से सीख लें और यह इस प्रकार की आखिरी घटना ही हो। बात यह नहीं है कि यह सवाल कहीं नहीं उठ रहे कि रात बारह बजे दो लड़के एक लड़की का पीछा क्यों करते हैं, बल्कि सवाल तो यह उठ रहे हैं कि रात बारह बजे एक लड़की घर के बाहर क्या कर रही थी।

बात यह भी नहीं है कि वे लड़के नशे में धुत्त होकर एक लड़की को परेशान कर रहे थे, बात यह है कि ऐसी घटनाएं इस देश की सड़कों पर आए दिन और आए रात होती रहती हैं। बात यह नहीं है कि इनमें से अधिकतर घटनाओं का अंत पुलिस स्टेशन पर पीड़ित परिवार द्वारा न्याय के लिए अपनी आवाज़ उठाने के साथ नहीं होता। बात यह है कि ऐसे अधिकतर मामलों का अन्त पीड़ित परिवार द्वारा घर की चार दीवारी में अपनी जख्मी आत्मा की चीखों को दबाने के साथ होता है। बात यह नहीं है कि दुनिया के इस सबसे बड़े लोकतंत्र में न्याय के लिए भी संघर्ष करना पड़ता है, बात यह है कि इस देश में अधिकार भी भीख स्वरूप दिये जाते हैं।

इस पूरे घटनाक्रम में सबसे बड़ा पहलू यह है कि वर्णिका कुंडु जिन्होंने रिपोर्ट लिखवाई है, एक आईएएस अफ्सर की बेटी हैं, यानी उनके पिता इस सिस्टम का हिस्सा हैं। जब वे और उनके पिता उन लड़कों के खिलाफ रिपोर्ट लिखवाने के लिए पुलिस स्टेशन गए थे तब तक उन्हें नहीं पता था कि वे एक राजनैतिक परिवार का सामना करने जा रहे हैं लेकिन जैसे ही यह भेद खुला कि लड़के किस परिवार से ताल्लुक रखते हैं तो पिता को यह आभास हो गया था कि न्याय की यह लड़ाई कुछ लम्बी और मुश्किल होने वाली है। उनका अंदेशा सही साबित भी हुआ।

न सिर्फ लड़कों को थाने से ही जमानत मिल गई बल्कि एफआईआर में लड़कों के खिलाफ लगी धाराएँ भी बदल कर केस को कमजोर करने की कोशिशें की गईं। जब उनके साथ यह व्यवहार हो सकता है तो फिर एक आम आदमी इस सिस्टम से क्या अपेक्षा करे? जब एक आईएएस अफ्सर को अपने पिता का फर्ज निभाने में इतनी कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है तो एक साधारण पिता क्या उम्मीद करे? वर्णिका के पिता ने तो आईएएस लाबी से समर्थन जुटा कर इस केस को सिस्टम वर्सिस पालिटिक्स करके इसके रुख़ को बदलने की कोशिश की है लेकिन एक आम पिता क्या करता? जब एक लोकतांत्रिक प्रणाली में सत्ताधारी पार्टी के अध्यक्ष का बेटा ऐसा काम करता है तो वह पार्टी अपने नेता के बचाव में आगे आ जाती है क्योंकि वह सत्ता तंत्र में विश्वास करती है लोकतंत्र में नहीं, वह तो सत्ता हासिल करने का एक जरिया मात्र है।

उसके नेता यह कहते हैं कि पुत्र की करनी की सजा पिता को नहीं दी जा सकती तो बिना योग्यता के पिता की राजनैतिक विरासत उसे क्यों दे दी जाती है। आप अपनी ही पार्टी के प्रधानमंत्री के लाल किले से दिए गए भाषण को भी नकार देते हैं जो कहते हैं कि हम अपनी बेटियों से तो तरह तरह के सवाल पूछते हैं, उन पर पाबंदियां भी लगाते हैं लेकिन कभी बेटे से कोई सवाल कर लेते, कुछ संस्कारों के बीज उनमें डाल देते, कुछ लगाम बेटों पर लगा देते तो बेटियों पर बंदिशें नहीं लगानी पड़तीं। यह कैसा लोकतंत्र है जिसमें सरकार अपने नागरिकों की सुरक्षा से ऊपर अपने नेताओं और स्वार्थों को रखती है? यह कैसी व्यवस्था है जहाँ अपने अधिकारों की बात करना एक "हिम्मत का काम" कहा जाता है।

हम एक ऐसा देश क्यों नहीं बना सकते जहाँ हमारी बेटियाँ भी बेटों की तरह आजादी से जी पाँए ? हम अपने भूतपूर्व सांसदों विधायकों नेताओं को आजीवन सुविधाएं दे सकते हैं लेकिन अपने नागरिकों को सुरक्षा नहीं दे सकते। हम नेताओं को अपने ही देश में अपने ही क्षेत्र में जेड प्लस सेक्यूरिटी दे सकते हैं लेकिन अपनी बेटियों को सुरक्षा तो छोड़िये न्याय भी नहीं ? देश निर्भया कांड को भूला नहीं हैं और न ही इस सच्चाई से अंजान है कि हर रोज़ कहीं न कहीं कोई न कोई बेटी किसी न किसी अन्याय का शिकार हो रही है। उस दस साल की मासूम और उसके माता पिता का दर्द कौन समझ सकता है जो किसी और की हैवानियत का बोझ इस अबोध उम्र में उठाने के लिए मजबूर है। जिसकी खिलौनों से खेलने की उम्र थी वो खुद किसी अपने के ही हाथ का खिलौना बन गई। जिसकी हँसने खिलखिलाने की उम्र थी वो आज दर्द से कराह रही है। जो खुद एक बच्ची है लेकिन माँ बनने के लिए मजबूर है।

क्यों हम बेटियों को बचाएँ ? इन हैवानों के लिए ? हम अपने बेटों को क्यों नहीं सभ्यता और संस्कारों का पाठ पढ़ाएँ ? बेहतर यह होगा कि बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ के बजाय बेटी बचानी है तो पहले बेटों को सभ्यता और संस्कारों का पाठ पढ़ाओ। उन्हें बेटियों की इज्जत करना तो सिखाओ।

-डॉ. नीलम महेंद्र

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