अदालत ने लोकतंत्र बचाने को ''घड़ी की सुई उलटी घुमाई''

अरुणाचल प्रदेश मामले में सर्वोच्च अदालत का जो फैसला आया है उसका व्यापक असर होगा और विभिन्न राज्यों में आने वाले समय में इसकी मिसाल बोम्मई मामले की तरह दी जाएगी।

उच्चतम न्यायालय द्वारा घड़ी के काँटे को उलटा घुमा देने के कारण अरुणाचल प्रदेश में कांग्रेस की सरकार बहाल हो गयी है। यह उत्तराखंड के बाद केंद्र सरकार और भाजपा के लिए दूसरा बड़ा झटका है जो उसे शीर्ष अदालत से लगा है। इससे विपक्षी दलों के उन आरोपों को बल मिलता है जिसमें राजग सरकार पर दूसरे दलों की सरकारों के कामकाज में रोड़े अटकाने और उन्हें अपदस्थ करने की साजिशें रचने की बात कही जाती रही है। हालाँकि भाजपा का सदैव यही कहना रहा है कि कांग्रेस की जिन सरकारों पर संकट आया वह पार्टी में उपजे आंतरिक असंतोष के कारण उत्पन्न हुआ। लेकिन पार्टी इस तथ्य से पल्ला नहीं झाड़ सकती कि उत्तराखंड और अरुणाचल में कांग्रेस के बागियों की उसने पूरी पूरी मदद की थी। अदालत के इस फैसले के बाद हिमाचल प्रदेश तथा अन्य वह राज्य सरकारें जिनमें असंतोष संबंधी खबरें आ रही थीं, फिलहाल राहत की साँस ले सकती हैं क्योंकि भाजपा अब शायद ज्यादा उतावलापन नहीं दिखाए।

अरुणाचल मामले में अदालत का जो फैसला आया है उसका व्यापक असर होगा और विभिन्न राज्यों में आने वाले समय में इसकी मिसाल बोम्मई मामले की तरह दी जाएगी। अदालत का यह आदेश राज्यपाल व्यवस्था पर भी सवाल है जिस पर अकसर ही भेदभाव बरतने के आरोप लगते रहते हैं। अरुणाचल मामले में भी अदालत ने कहा है कि विधानसभा का सत्र एक माह पहले बुलाने का राज्यपाल का फैसला संविधान का उल्लंघन है और यह रद्द करने लायक है। न्यायालय ने कहा कि विधानसभा की कार्यवाही के संचालन से जुड़ा राज्यपाल का निर्देश संविधान का उल्लंघन है और राज्यपाल के नौ दिसंबर, 2015 के आदेश की अनुपालना में विधानसभा द्वारा उठाए गए सभी कदम और फैसले दरकिनार करने लायक हैं। गौर करने वाली बात यह है कि मामले की सुनवाई कर रहीं पाँच न्यायाधीशों की पीठ ने एकमत से यह फैसला सुनाया है।

न्यायालय ने अरुणाचल में 15 दिसंबर 2015 से पहले वाली स्थिति कायम रखने के निर्देश तो दे दिये हैं लेकिन अभी देखने वाली बात यह होगी कि किस तरह कांग्रेस सरकार बन पाती है क्योंकि बहुमत के लिए 30 विधायक होने चाहिए जबकि कांग्रेस के पास 15 विधायक हैं और दो सीटों पर अभी उपचुनाव होने हैं। यदि कांग्रेस के 14 विधायकों को अयोग्य करार दिये जाने का विधानसभा अध्यक्ष का फैसला भी पलट जाए तो कांग्रेस के लिए आसानी हो सकती है। फिलहाल तो कांग्रेस को एक बड़ा मुद्दा मिल गया है सरकार को घेरने के लिए और इसकी गूँज 18 जुलाई से शुरू होने वाले संसद सत्र में जरूर सुनाई देगी। बहरहाल, अभी भाजपा को कुछ समय तक लोकतंत्र और संविधान के अनुपालन से जुड़े विपक्षी दलों के विचारों को लगातार सुनते रहना होगा।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह खासतौर से विपक्ष के निशाने पर आ गये हैं और दोनों से माफी की माँग की जा रही है। हालाँकि प्रधानमंत्री इस बात के लिए बाध्य नहीं हैं कि हर मुद्दे पर अपनी राय दें लेकिन उन्हें इस मुद्दे पर इसलिए अपनी चुप्पी तोड़नी चाहिए क्योंकि विपक्ष में रहने के दौरान भाजपा राज्यपालों पर अपनी सरकारों को प्रताड़ित करने के आरोप लगाती रही है और आज खुद वह इस प्रकार के आरोपों से घिरी हुई है। सरकार के मुखिया के नाते प्रधानमंत्री को यह सोचना चाहिए कि जब उनकी सरकार पूर्वोत्तर की ओर अधिक ध्यान देने की बात कहती रही है ऐसे में इस प्रकार के मुद्दों से उसकी छवि प्रभावित होगी। प्रधानमंत्री को अपनी पार्टी के उन नेताओं पर भी लगाम लगानी चाहिए जो दूसरे दलों में तोड़फोड़ के लिए उतारू रहते हैं।

कांग्रेस ने अरुणाचल में अपनी सरकार को बचाने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगा दिया था और इस मामले में राष्ट्रपति से भी गुहार लगाई थी। संसद सत्र में भी यह मुद्दा जोरशोर से उठा था लेकिन अरुणाचल के बाद उत्तराखंड में भी असंतोष उपज जाने से अरुणाचल का मुद्दा पीछे छूट गया था और मामले को अदालत का फैसला आने तक ठंडे बस्ते में डाल दिया गया था। सुनवाई हालाँकि फरवरी में ही पूरी हो चुकी थी लेकिन फैसला सुरक्षित रख लिया गया था। कांग्रेस के लिए उत्तराखंड के बाद अरुणाचल प्रदेश पर सर्वोच्च अदालत का फैसला बड़ी राहत भरी बात है। भले ही यह दोनों पहाड़ी राज्य छोटे राज्यों की सूची में शुमार हों लेकिन इन दोनों राज्यों से जो राजनीतिक संदेश गया है उससे कांग्रेस तथा अन्य विपक्षी दलों के हौसले निश्चित रूप से बुलंद हुए हैं। साथ ही एक बात फिर सुनिश्चित हुई है कि लोकतंत्र को बचाने के लिए अदालत इस देश में पूरी निष्पक्षता के साथ काम कर रही है।

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