कर्जे माफ करने से किसानों की समस्याएं हल नहीं होंगी
कर्जे माफ करना कृषि की समस्या का स्थाई हल नहीं है। पंजाब और उत्तर प्रदेश की सरकारें किसानों के कर्जे माफ कर चुकी हैं परंतु पंजाब में कांग्रेस सरकार के एक साल के कार्यकाल में ही चार सौ के आसपास किसान आत्महत्या कर चुके हैं।
रामधारी सिंह दिनकर की किसान शीर्षक की कविता का किसान आज के गांव बंद आंदोलन में देखता हूं तो कहीं नहीं दिखता। राष्ट्र कवि दिनकर लिखते हैं- नहीं हुआ है अभी सवेरा पूरब की लाली पहचान, चिड़ियों के जगने से पहले खाट छोड़ उठ गया किसान। पूरी कविता का सारांश यही कि किसान याने एक ऐसा व्यक्ति परमार्थ ही जिसका स्वार्थ है, जो खेत में काम नहीं तप करता है और परोपकार ही जिसका जीवन है। लेकिन फिर वे कौन हैं जो सड़कों पर दूध बहा रहे हैं, हाथों से छीन कर सब्जियां फेंकते और मारपीट, छीना झपटी करते हैं, दूध के अभाव में छोटे-छोटे बच्चों का बिलखना जिन्हें आनंद देता है। संभव है कि ये किसान न हों और यह भी तो हो सकता है कि उपेक्षा और अभाव सहते-सहते भूमिपुत्रों का गुस्सा इतना विकराल हो गया कि वे संतत्व का लबादा उतार अधिकारों की भाषा बोलना सीख रहे हों। यह कौन भूला है कि सृष्टि का पेट भरने और पहनने-ओढ़ने को मखमली कपड़े देने वाला किसान आज फाकाकशी का शिकार है। सुख-सुविधा, खुशी, रोटी, कपड़ा और मकान गए। छिनते-छिनते न जाने कब पगडंडी, मेड़, खेत, खलिहान और यहां तक कि जीने का अधिकार खो बैठे ये गौपुत्र। परंतु वर्तमान में चला गांव बंद आंदोलन किसानों से जनता की सहानुभूति व संवेदना भी छीनता नजर आ रहा है जो उसकी सबसे बड़ी पूंजी है। आंदोलन के दौरान जिस तरह अलोकतांत्रिक, असभ्य और संस्कृति के विपरीत तरीके अपनाए गए उससे किसानों की छवि पर विपरीत प्रभाव पड़ा जिसकी भरपाई को काफी समय लगेगा।
दूध और पूत को अपनी संस्कृति में ईश्वर का वरदान माना गया है। ग्रंथों में दूध की तुलना रत्नों से की गई है। इस स्वयंभू आंदोलन के दौरान जैसे गोरस को सड़कों पर पानी की तरह बहाया गया उससे छोटे किसानों व दुग्ध उत्पादकों का तो नुक्सान हुआ ही साथ में यह सब देखने वाले व्यथित हुए। दूध की आपूर्ति ऐसी अति आवश्यक सेवा है जिसे युद्ध, आतंकवाद और कर्फ्यू जैसी आपात् परिस्थितियों में भी नहीं रोका जाता। कृषि मजदूरों व छोटे किसानों द्वारा पैदा की गई सब्जियों को जिस तरीके से लूटा गया और उत्पादक किसानों को पीटा गया उससे एकबारगी तो आंदोलनकारियों पर किसान होने का संदेह होने लगा। लोकतंत्र में आंदोलन करने का सभी को अधिकार है परंतु इसके लिए अपवित्र रास्ता नहीं अपनाना चाहिए। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी कहते थे कि अपवित्र माध्यम से कभी पवित्र लक्ष्य को प्राप्त नहीं किया जा सकता। जिस देश में बच्चे आज भी कुपोषण का शिकार हों और स्वयंभू किसान यूं पानी की तरह दूध को बहाएं तो इसे कौन उचित ठहरा सकता है। आंदोलन से नुक्सान अंतत: किसानों का हुआ और परेशानी भुगतनी पड़ी आम जनता को। यही कारण है कि जगह-जगह आम लोगों ने स्वयंभू आंदोलनकारियों के खिलाफ पुलिस प्रशासन में शिकायतें दर्ज करवाईं और सार्वजनिक रूप से नाराजगी का प्रदर्शन किया गया। शायद इतिहास का यह पहला किसान आंदोलन है जिसके खिलाफ जनमानस खड़ा दिखाई दे रहा है।
इस आंदोलन को लेकर विरोधाभासी बात यह भी रही कि 1 जून को जब इसकी शुरुआत हुई तो एक दिन पहले ही देश में जनवरी से मार्च तक की तिमाही की कृषि विकास दर साढ़े चार प्रतिशत होने का समाचार भी आया। केवल इतना ही नहीं इस साल देश में खाद्यान्न का उत्पादन 25 करोड़ टन से अधिक रहा जो अत्यधिक उत्साहजनक है। कृषि विशेषज्ञों ने संभावना जताई है कि अगर खेती के क्षेत्र में विकास यूं ही जारी रहा तो अबकी बार अच्छा मानसून होने के चलते यह आंकड़ा 6 के अंक को भी छू सकता है। आखिर इसका लाभ किसको मिला, किसान को ही न? स्थानीय समस्याओं को एक बार नजरंदाज करें तो सौभाग्य से देश में कहीं कोई बड़ी कृषि आपदा का समाचार सुनने को नहीं मिला है।
यह सर्वविदित है कि ग्रामीण अर्थव्यवस्था में सुधार आ रहा है। यूरिया की कमी अब बीते समय की बात हो चुकी है और अत्यधिक सस्ती दर पर किसानों को फसली बीमा योजना, ई-मार्किट सहित अनेक तरह की सुविधाएं उपलब्ध करवाई गई हैं। आंदोलनकारियों का यह कहना भी ठीक है कि देश के विभिन्न हिस्सों में किसान आत्महत्याएं कर रहे हैं जो अत्यंत दु:खद है परंतु यह समस्या साल-दो साल में पैदा नहीं हुई। आंदोलनकारी किसान ऋण माफी की मांग कर रहे हैं परंतु अब तक का अनुभव बताता है कि कर्जे माफ करना कृषि की समस्या का स्थाई हल नहीं है। पंजाब और उत्तर प्रदेश की सरकारें किसानों के कर्जे माफ कर चुकी हैं परंतु पंजाब में कांग्रेस सरकार के एक साल के कार्यकाल में ही चार सौ के आसपास किसान आत्महत्या कर चुके हैं और यूपी के किसान भी पूरी तरह संतुष्ट नहीं हैं। किसी संगठन, वर्ग या व्यक्ति विशेष की मांग या शिकायत कितनी भी गंभीर व जरूरी क्यों न हो परंतु इससे उन्हें दूसरों को परेशान करने या नुकसान करने का अधिकार नहीं मिल जाता।
मई और जून का महीना किसानों के लिए अति व्यस्त समय रहता है। यह वह समय है जब किसान गेहूं की फसल संभाल कर नई फसल की बिजाई की तैयारी में जुट जाता है। जून के मध्य में दक्षिणी पंजाब जिसमें बठिंडा, मानसा, श्री मुक्तसर साहिब, फाजिल्का जिलों के बहुत बड़े हिस्से में नरमा-कपास की बिजाई होती है और शेष हिस्सों में धान की रोपाई। देश के बाकी हिस्सों में किसान ग्वार, दलहन, बाजरा सहित अनेक तरह की फसलें इसी महीने में बीजते हैं। नई फसल के लिए खेत की तैयारी, बीजों व यूरिया की खरीद कोई खालाजी का बाड़ा नहीं और किसान दिन रात लगा कर यह काम करते हैं। प्रश्न पैदा होता है कि इन दिनों अगर किसान व्यस्त हैं तो सड़कों पर हुल्लड़बाजी व लूटपाट करने वाले लोग कौन हैं ? देश में आजकल चुनावी महौल है और अपने यहां मुखौटा राजनीति काफी पुराना खेल है। किसानों को सावधान रहना होगा कि कोई मुखौटेबाज उन्हें पुतले की तरह बांस पर चढ़ा कर वोटों की खेती तो नहीं कर रहा ?
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