वाजपेयी, आडवाणी, जोशी ने संविधान का मजाक उड़ाया, बेईमानी की

Vajpayee, Advani and Joshi guilty of demolition of babri mosque

अभियोग ने हमारी शासन व्यवस्था को बेनकाब किया है क्योंकि तीनों देश के शीर्ष पदों पर पहुंच गए। वाजपेयी प्रधानमंत्री, आडवाणी गृह मंत्री और जोशी मानव संसाधन विकास मंत्री। अगर तीनों सहयोगी थे तो पद की शपथ लेकर उन्होंने बेईमानी की।

छह दिसंबर को बाबरी मस्जिद के ध्वंस के 25 साल हो जाएंगे। तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिंहा राव की मिलीभगत से कांग्रेस सरकार ने 1992 में जो किया उसे सुधारने के बदले भारतीय जनता पार्टी की सरकार उस जगह पर मंदिर बनाने पर आमादा है जहां एक समय मस्जिद खड़ी थी।  

आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने एक बयान दिया है कि अयोध्या में सिर्फ एक ''भव्य मंदिर'' बनाया जाएगा और कुछ नहीं। यह मुसलमानों और उदारवादी लोगों के प्रति अन्याय है जो देश की विविधता का समर्थन करते हैं और इस पर सहमत हो गए थे कि उस स्थल पर मंदिर और मस्जिद साथ−साथ खड़े रह सकते हैं। हालांकि, मस्जिद का ध्वंस भारत के सेकुलरिज्म पर धब्बा है। सिर्फ मंदिर बनाना घाव पर नमक छिड़कने जैसा है। मुझे याद है कि मस्जिद के ध्वंस, जिसके कारण देशभर में हिंदु−मुसलिम दंगे हो गए थे, के बाद प्रधानमंत्री राव ने जो कुछ हुआ उसके बारे में बताने के लिए वरिष्ठ पत्रकारों की एक बैठक आयोजित की थी। वह आग बुझाने में मीडिया का सहयोग चाहते थे।

उन्होंने कहा कि केंद्र सरकार असहाय थी क्योंकि कारसेवकों ने मस्जिद गिराने का निश्चय कर लिया था। लेकिन मधु लिमये, दिवगंत समाजवादी नेता ने मुझे बाद में बताया कि मस्जिद के ध्वंस को पर्दे में रखने के लिए राव पूजा कर रहे थे। जब उनके एक सहयोगी ने उनके कान में कहा कि मस्जिद ढहा दी गई है तो उन्होंने अपनी आंखें खोल दीं। राव ध्वंस के पहले आसानी से कार्रवाई कर सकते थे। राष्ट्रपति शासन लागू करने की घोषणा एक पखवाड़ा पहले तैयार की जा चुकी थी। कैबिनेट की मंजूरी का इंतजार किया जा रहा था। प्रधानमंत्री ने कैबिनेट की बैठक ही नहीं बुलाई। जब मस्जिद ढहाना शुरू हुआ तो प्रधानमंत्री कार्यालय को लोगों ने पागलों की तरह फोन किए। अगर कांग्रेस राव के खिलाफ आरोप का खंडन करती है तो उसने इसकी भी सफाई नहीं दी है कि जहां पहले मस्जिद थी उस जगह रातोंरात एक छोटा मंदिर कैसे खड़ा हो गया है। केंद्र सरकार के हाथ में पूरा नियंत्रण था क्योंकि राज्य सरकार को बर्खास्त करने के बाद उत्तर प्रदेश राष्ट्रपति−शासन में था। किसी भी तरह, बाबरी मस्जिद−रामजन्म भूमि विवाद राज्य की सीमा को पार कर चुका था और केंद्र सरकार रोज−रोज की घटनाओं पर नजर रख रही थी। जस्टिस मनमोहन सिंह लिब्राहन आयोग की राव के व्यवहार पर खामोशी उनकी और कांग्रेस पार्टी की मिली−भगत पर पर्दा डालने के लिए थी।

अटल बिहारी वाजपेयी की टिप्पणी थी− ''मंदिर खड़ा होने दें'', जब मैंने मस्जिद ढहाने के एक दिन बाद घटना के बारे में उनकी प्रतिक्रिया पूछी। मैं उनकी टिप्पणी से आश्चर्यचकित हुआ क्योंकि मैं भाजपा में उन्हें एक उदार व्यक्ति समझता था। वास्तव में, लिब्राहन कमीशन ने वाजपेयी को मस्जिद ढहाने में सहयोगी बताया है। जब वह मस्जिद ढहाने की ''पूरी बारीकी से बनाई गई योजना'' में शामिल थे तो  दूसरी तरह की प्रतिक्रिया कैसे देते? यह तो 6 दिसबंर, 1992 को ही मालूम हो गया था की लालकृष्ण आडवाणी तथा मुरली मनोहर जोशी, दो अन्य नेता सहयोगी साजिशकर्ता थे। मेरे लिए आश्चर्य वाला नाम वाजपेयी का था। प्रधानमंत्री बनने के बाद वाजपेयी एक बदले हुए व्यक्ति थे। वह शांति और समझौते का संदेश देने के लिए बुद्धिजीवियों तथा पत्रकारों की बस लेकर लाहौर गए।  

अभियोग ने हमारी शासन व्यवस्था को बेनकाब किया है क्योंकि तीनों देश के शीर्ष पदों पर पहुंच गए। वाजपेयी प्रधानमंत्री, आडवाणी गृह मंत्री और जोशी मानव संसाधन विकास मंत्री। अगर तीनों सहयोगी थे तो पद की शपथ लेकर उन्होंने बेईमानी की क्योंकि शपथ लेने वाले को देश की एकता और संविधान को बनाए रखने के लिए काम करना होता है। संविधान की प्रस्तावना में सेकुलरिज्म का उल्लेख है। लिब्राहन आयोग ने कहा है कि वे उन 68 लोगों में से थे जो देश को ''सांप्रदायिक झगड़े'' की ओर ले जाने के गुनहगार हैं।   

इतना हीं नहीं तीनों नेताओं ने सुप्रीम कोर्ट के ''यथास्थिति के साथ छेड़छाड़ नहीं करने'' के आदेश के खिलाफ काम किया। दूसरे शब्दों में, उन्होंने देश की न्यायपालिका और इसके संविधान का मजाक उड़ाया था जिसकी शपथ उन्होंने सत्ता में आने से पहले ली। और, उन्होंने छह साल तक बिना जमीर के सहारे शासन किया।  

सवाल सिर्फ कानूनी नहीं है, नैतिकता का भी है। सुनियोजित रूप से मस्जिद का ध्वंस वाजपेयी, आडवाणी तथा जोशी को पद देने के साथ कैसे मेल खाता है? यह एक ऐसा मुद्दा है जिसका उत्तर पाने के लिए देश को बहस करनी चाहिए थी। जिनके हाथ बेदाग नहीं हैं उन्हें संसद के मंदिर को अपवित्र करने की इजाजत नहीं देनी चाहिए। इस बीच आर्ट आफ लिविंग के संस्थापक श्री श्री रविशंकर सभी पक्षों के बीच मध्यस्थता का प्रयास कर रहे हैं। अयोध्या के हाल के अपने दौरे के दौरान आध्यात्मिक गुरु ने कहा कि समस्या का समाधान संवाद और आपसी सम्मान के जरिए हो सकता है, बजाय ''अहंकार तथा आरोपों के''। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ, जिनसे गुरु ने मुलाकात की, ने भी जरूरी सहयोग देने का आश्वासन दिया है। आध्यात्मिक गुरु की उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के साथ मुलाकात पुनर्विकास के वायदे के साथ नागरी निकायों के चुनावों के भाजपा के अभियानों की पृष्ठभूमि में हुई है। लेकिन आरएसएस के घटक विश्व हिंदू परिषद तथा मुसलिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने श्री श्री की मध्यस्थता को अस्वीकार कर दिया है। भाजपा नेतृत्व के भीतर यही राय है कि निर्णय को सुप्रीम कोर्ट पर छोड़ दिया जाए जो 5 दिसंबर को मामले की सुनवाई करेगा। 

''राम मंदिर का मामला सुप्रीम कोर्ट में है और मेरी राय में कानून की प्रक्रिया को पूरा होने दें। बाकी बातचीत उसके बाद हो सकती है'' भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव राम माधव ने कहा। इसी तरह, विहिप ने आर्ट ऑफ लिविंग संस्थापक की ओर से रामजन्म भूमि−बाबरी मस्जिद विवाद को सुलझाने के प्रयास के संबंध में कहा है।

''यह पहली बार नहीं है कि श्री श्री ने पहल की है, उन्होंने 2001 में भी पहल की थी और विफल हुए। उनके प्रयासों पर वैसी ही प्रतिक्रिया हुई थी जैसी आज है'', विहिप के महासचिव सुरेंद्र जैन ने कहा। असली बाधा भागवत का बयान है कि अयोध्या में सिर्फ मंदिर बनेगा और कुछ नहीं। जब मुसलमान, आम तौर पर, इसे मान चुके हैं कि मस्जिद के बगल में मंदिर बनाया जा सकता है, तो आरएसएस प्रमुख का रोना अनुचित है।

- कुलदीप नायर

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