क्या बंगाल से जायेगा TMC का राज? हिंसा से सना है इस बार का चुनाव

violence-in-west-bengal-polls-2019
ललित गर्ग । May 1 2019 11:43AM

पश्चिम बंगाल में लोकतांत्रिक मूल्यों का जिस तरह से मखौल उड़ाया जाता है, वह एक गंभीर चिन्ता का विषय है। वहां चुनावी हिंसा का एक लंबा अतीत रहा है और आमतौर पर वहां हिंसा से मुक्त चुनाव कराना एक बड़ी चुनौती रही है।

सत्रहवीं लोकसभा के इस महासंग्राम में हिंसा की घटनाओं पर नियंत्रण बनाये रखने के लिये चुनाव आयोग के प्रयासों की प्रशंसा होनी चाहिए। अमूमन हर बार चुनाव आयोग मतदान के समय साधारण लोगों को डराने-धमकाने, लोभ देने के साथ-साथ हिंसा करने से रोकने के लिए पुख्ता इंतजाम करता है। लेकिन इसके बावजूद देश के बाकी राज्यों की अपेक्षा पश्चिम बंगाल में जिस तरह की खबरें आई उससे साफ है कि अभी तक वहां पूरी तरह स्वतंत्र और निष्पक्ष मतदान सुनिश्चित करा पाना चुनाव आयोग के सामने एक बड़ी चुनौती बना हुआ है। इस चुनौती पर खरे उतर कर ही हम देश में स्वस्थ एवं सशक्त लोकतंत्र की स्थापना कर पाएंगे।

इसे भी पढ़ें: अवध की जमीं से बुंदेलों की धरती तक की संघर्ष गाथा

पश्चिम बंगाल में लोकतांत्रिक मूल्यों का जिस तरह से मखौल उड़ाया जाता है, वह एक गंभीर चिन्ता का विषय है। वहां चुनावी हिंसा का एक लंबा अतीत रहा है और आमतौर पर वहां हिंसा से मुक्त चुनाव कराना एक बड़ी चुनौती रही है। मगर हाल के वर्षों में चुनाव आयोग की सख्ती की वजह से उम्मीद की गई थी कि वहां हिंसा की घटनाओं में कमी आएगी। लेकिन तमाम प्रयासों के बावजूद वहां हिंसा, अराजकता, अशांति, डराना-धमकाना, वोटों की खरीद-फरोख्त, दादागिरी की जिस तरह की त्रासद एवं भयावह घटनाएं घटित हो रही है, उसने लोकतांत्रिक मूल्यों के मानक बदल दिये हैं न्याय, कानून और व्यवस्था के उद्देश्य अब नई व्याख्या देने लगे हैं। वहां चरित्र हासिए पर आ गया, सत्तालोलुपता केन्द्र में आ खड़ी हुई। वहां कुर्सी पाने की दौड़ में जिम्मेदारियां नहीं बांटी जा रही, बल्कि चरित्र को ही बांटने की कुचेष्टाएं हो रही हैं और जिस राज्य का चरित्र बिकाऊ हो जाता है उसकी आत्मा को फिर कैसे जिन्दा रखा जाए, चिन्तनीय प्रश्न उठ खड़ा हुआ है। आज कौन पश्चिम बंगाल में अपने दायित्व के प्रति जिम्मेदार है? कौन नीतियों के प्रति ईमानदार है? कौन लोकतांत्रिक मूल्यों को अक्षुण्ण रखते हुए निष्पक्ष एवं पारदर्शी चुनाव कराने के लिये प्रतिबद्ध है?

पश्चिम बंगाल में इस बार चुनावों में व्यापक अराजकता एवं हिंसा की संभावनाएं पहले से ही बनी थी, मतदान रोकने या मतदाताओं को डराने-धमकाने के मकसद से हिंसक घटनाएं होने की व्यापक संभावनाओं को देखते हुए  सुरक्षा इंतजामों में बढ़ोतरी भी की गई। इसके बावजूद राज्यों के मुर्शिदाबाद में डोमकाल और रानीनगर के अलावा मालदा में भी हिंसा की खबरें सामने आईं। विडंबना यह है कि इसके पहले भी दोनों चरणों में पश्चिम बंगाल में मतदान की प्रक्रिया को बाधित करने के लिए हिंसक घटनाओं का सहारा लिया गया। तीसरे चरण में मुर्शिदाबाद के बालीग्राम में कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस के कार्यकर्ताओं के बीच हिंसक झड़प हो गई, जिसमें वोट देने के के लिए लाइन में खड़े एक युवक की जान चली गई। सख्त सुरक्षा इंतजामों के बावजद इस घटना के बाद आलम यह था कि वहां अफरातफरी का माहौल पैदा हो गया और कड़ी मशक्कत के बाद ही सुरक्षा बलों को हालात पर काबू पाने में कामयाबी मिल सकी। प्रश्न है कि इस तरह की हिंसा घटनाओं से लोकतंत्र के इस महाकुंभ में कब तक काले पृष्ठों को जोड़ा जाता रहेगा? सवाल यह भी है कि कुछ बूथों पर आतंक और हिंसक माहौल बनाकर मतदाताओं को वोट देने से कब तक वंचित किया जाता रहेगा? एक गंभीर सवाल यह भी है कि लोकतंत्र के इस यज्ञ में शामिल होने वाले निर्दोष मतदाता कब तक अपनी जान गंवाते रहेंगे? कब तक मनमाने तरीके मतदान कराया जाता रहेगा? अगर यह स्थिति बनी रही तो ऐसी दशा में हुए चुनावों के नतीजे कितने विश्वसनीय माने जाएंगे। यह ध्यान रखने की जरूरत है कि पश्चिम बंगाल या देश के किसी भी हिस्से में हिंसा के माहौल में हुआ मतदान लोकतंत्र की कसौटी पर सवालों के घेरे में रहेगा। इस तरह के माहौल से बननी वाली सरकारों को कैसे लोकतांत्रिक सरकार कहा जा सकता है? लोकतांत्रिक मूल्यों से बेपरवाह होकर जिस तरह की राजनीति हो रही है, उससे कैसे आदर्श भारत का निर्माण होगा? 

सवाल है कि चुनाव में शामिल पार्टियां अपने कार्यकर्ताओं को यह बात क्यों नहीं समझा पाती कि हिंसा की छोटी वारदात भी न केवल लोकतंत्र कमजोर करती है बल्कि यह चुनाव प्रक्रिया पर एक कलंक है। बात हिंसा की ही नहीं बल्कि मतदाता को अपने पक्ष में वोटिंग कराने के लिए अलग-अलग तरीके से प्रभावित करने से लेकर लालच और यहां तक कि धमकी देने तक की भी हैं। विडंबना यह है कि राज्य में लगभग सभी मुख्य पार्टियों को जहां इस तरह के हिंसक हालात नहीं पैदा होने देने की कोशिश करनी चाहिए, वहां कई बार उनके समर्थक खुद भी हिंसा में शामिल हो जाते हैं। अगर चुनाव में भाग लेने वाली पार्टियों को अपने समर्थकों की ओर से की जाने वाली ऐसी अराजकता से कोई परेशानी नहीं है तो क्या वे इस मामले में हिंसा कर सकने और अराजक स्थितियां पैदा करने में समर्थ समूहों को भी स्वीकार्यता नहीं दे रहे हैं? अगर यह प्रवृत्ति तुरंत सख्ती से नहीं रोकी गई तो क्या एक भयावह और जटिल हालात नहीं पैदा करेगी, जहां लोगों के वोट देने के अधिकार का हनन होगा और आखिरकार अराजक तत्वों को संसद में पहुंचने में मदद मिलेगी? पश्चिम बंगाल में सर्वत्र चुनाव शांति, अहिंसक एवं निष्पक्ष तरीके से सम्पन्न कराने के प्रश्न पर एक घना अंधेरा छाया हुआ है, निराशा और दायित्वहीनता की चरम पराकाष्ठा ने वहां चुनाव प्रक्रिया को जटिल दौर में लाकर खड़ा कर दिया है। वहां चुनाव गुमराह एवं रामभरोसे ही है। चुनाव के इस महत्वपूर्ण अनुष्ठान को लापरवाही से नहीं संचालित किया जा सकता। हम यह न भूलें कि देश के नेतृत्व को निर्मित करने की प्रक्रिया जिस दिन अपने सिद्धांतों और आदर्शों की पटरी से उतर गयी तो पूरी लोकतंत्र की प्रतिष्ठा ही दांव पर लग जायेगी, उसकी बरबादी का सवाल उठ खड़ा होगा। पश्चिम बंगाल में लोकतंत्र कितनी ही कंटीली झांड़ियों के बीच फंसा हुआ है। वहां की अराजक एवं अलोकतांत्रिक घटनाएं प्रतिदिन यही आभास कराती है कि अगर इन कांटों के बीच कोई पगडण्डी नहीं निकली तो लोकतंत्र का चलना दूभर हो जायेगा। वहां की हिंसक घटनाओं की बहुलता को देखते हुए यही कहा जा सकता है कि राजनैतिक लोगों से महात्मा बनने की उम्मीद तो नहीं की जा सकती, पर वे पशुता पर उतर आएं, यह ठीक नहीं है।

इसे भी पढ़ें: प्रियंका के वाराणसी से चुनाव न लड़ने पर बुआ-बबुआ के बीच खुशी की लहर

पश्चिम बंगाल के भाग्य को निर्मित करने के लिये सबसे बड़ी जरूरत एक ऐसे नेतृत्व को चुनने की है जो और कुछ हो न हो- अहिंसक हो, लोकतांत्रिक मूल्यों को मान देने वाला हो और राष्ट्रीयता को मजबूत करने वाला हो। दुःख इस बात का है कि वहां का तथाकथित नेतृत्व लोकतांत्रिक मूल्यों की कसौटी पर खरा नहीं है, दोयम है और छद्म है, आग्रही और स्वार्थी है, हठ एवं तानाशाही है। इन चुनावों में ऐसे नेतृत्व को गहरी चुनौती मिलनी ही चाहिए, जो उसके लिये एक सबक बने। सर्वमान्य है कि वही नेतृत्व सफल है जिसका चरित्र पारदर्शी हो। सबको साथ लेकर चलने की ताकत हो, सापेक्ष चिंतन हो, समन्वय की नीति हो और निर्णायक क्षमता हो। प्रतिकूलताओं के बीच भी ईमानदारी से पैर जमाकर चलने का साहस हो। वहां योग्य नेतृत्व की प्यासी परिस्थितियां तो हैं, लेकिन बदकिस्मती से अपेक्षित नेतृत्व नहीं हैं। ऐसे में सोचना होगा कि क्या नेतृत्व की इस अप्रत्याशित रिक्तता को भरा जा सकता है? क्या पश्चिम बंगाल के सामने आज जो भयावह एवं विकट संकट और दुविधा है उससे छुटकारा मिल सकता है?

ललित गर्ग

We're now on WhatsApp. Click to join.
All the updates here:

अन्य न्यूज़