सक्षम लोगों को गाली देने समान है मेंटल है क्या, ये हैं किसका भविष्य?

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तरूण विजय । Apr 29 2019 4:37PM

भारत में हम अपनी हजारों साल पुरानी सभ्यता, संस्कृति, करूणा, स्नेह के मूल्यों का बखान करते नहीं अघाते। पर सच्चाई में हम बहुत निर्मम, संवेदनशील लोग हैं- जब समाज के कम भाग्यशाली लोगों की सहायता का प्रश्न आता है।

मेंटल है क्या? फिल्म भारत के धनी, अहंकारी और संवेदनहीन समाज का दर्पण है जिसे भारत या भारतीयों से कोई लेना देना नहीं। सिर्फ बॉक्स ऑफिस उनका गणतंत्र, टिकट बिक्री उनका मजहब और ऐश व विलास उनका निर्वाण है।

मानसिक चुनौतियां समाज की सबसे बड़ी समस्या है। तनाव, भारत में 98 प्रतिशत आत्महत्याओं का कारण है। कंगना रणौत और यदि सेंसर बोर्ड इस 'शब्द-हिंसक' फिल्म को पास करता है तो प्रसून जोशी को देश के किसी एक मानसिक चिकित्सालय में दिन भर बिठाकर वहां का दृश्य दिखाना चाहिए। मानसिक चुनौती एक यथार्थ है। मां बाप अपने मानसिक समस्याग्रत बेटे-बेटियों के साथ इन चिकित्सालयों में आते हैं। समाज में मानसिक व्याधि एक कलंक, एक शाप माना जाता है। जिसके बच्चे ऐसी समस्या से ग्रस्त हैं, वे क्या करें?

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'मेंटल है क्या?' फिल्म इन एक करोड़ से ज्यादा विशेष सक्षम लोगों को गाली देने समान है।

भारत में हम अपनी हजारों साल पुरानी सभ्यता, संस्कृति, करूणा, स्नेह के मूल्यों का बखान करते नहीं अघाते। पर सच्चाई में हम बहुत निर्मम, संवेदनशील लोग हैं- जब समाज के कम भाग्यशाली लोगों की सहायता का प्रश्न आता है। जिस पश्चिम को हम भोगवादी कह कर धिक्कारने में गर्व महसूस करते हैं, वह स्वयंसेवी सेवाओं, विशेष सक्षम बच्चों व प्रौढ़ नागरिकों की देखभाल में तथा उनके प्रति संवेदना दिखाने में हमसे कई प्रकाश वर्ष आगे है।

संसद राजनीतिक विषयों चलती या रूकती है। क्या किसी की स्मृति में है कि संसद में कभी भारतवर्ष में बच्चों, उनकी स्थिति, उनके पोषण, पठन-पाठन अथवा विशेष बच्चों पर कभी पंद्रह मिनट की भी चर्चा की हो?

किसी भी राजनीतिक चुनावी घोषणा-पत्र में बच्चों, विशेष सक्षम बच्चों, नागरिकों पर एक पंक्ति भी नहीं होती क्योंकि ये न तो राजनीतिक गुट है, न ही संगठित आवाज। इसलिए राजनेता देश के इन बेहद प्यारे, सुंदर और कमाल के बच्चों पर ध्यान देना 'वेस्ट आफ टाइम' मानते हैं। हां, फोटो के लिए अखबार के लिए, सोशल मीडिया के लिए इन विशेष सक्षम बच्चों और प्रौढ़ नागरिकों का 'इस्तेमाल' करना इन्हें बुरा नहीं लगता।

भारत के एक करोड़ से ज्यादा मानसिक व अन्य विशेष सक्षम बच्चे हैं। यहां विश्व में सबसे कम मानसिक चुनौतीग्रस्त लोगों के लिए सुविधाएं हैं। यहां विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट के अनुसार प्रति एक लाख की जनसंख्या पर 2, 443 वर्ष यानी व्याधि के कारण नष्ट वर्ष का आंकड़ा है। मानसिक चुनौतीग्रस्त वातावरण के कारण 2010 के मूल्य पर एक खरब डॉलर की भारत की क्षति (2012-2030) का आकलन किया गया है।

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भारत में मानसिक स्वास्थ्य सेवा और कार्यकर्त्ता दुनिया में सबसे कम वाले देशों में है- मानसिक विशेषज्ञ-सलाहकार-प्रति एक लाख पर 0.3, नर्सें 0.12, मानसिक विज्ञानी 0.07 और स्वयंसेवी कार्यकर्त्ता सिर्फ 0.07। जी हाँ, ये आंकड़े प्रति एक लाख जनसंख्या के हैं।

मानसिक समस्या ग्रस्त लोग पागल नहीं होते। पागल एक गाली है। सबसे खराब गालियों में है.. जो मां/बहन से संबंधित है या फिर जिनको मानसिक स्थिति से जोड़ा जाता है। तुम पागल हो, तुम्हें आगरा भेज देंगे। क्योंकि वहां मानसिक स्वास्थ्य चिकित्सा केंद्र है, सबसे घातक गालियों में माना जाता है।

मैंने स्वयं देखा है सामाजिक 'कलंक' से डर कर माता पिता अपने 'मानसिक चुनौती ग्रस्त' बच्चों को देहरादून के चिकित्सालय/आश्रय स्थल में छोड़ जाते हैं और फिर कभी आते नहीं। दुनिया में मानसिक तनाव और उसके कारण होने वाली विक्षिप्तावस्था एक लक्षण है जो जन्म से ही किन्हीं कारणों से मानसिक विकार होना भारत में एक बड़ी समस्या है। लिव, लव, लाफ फाउनडेशन (दीपिका पादुकोण) के एक अध्ययन के अनुसार भारत में 71 प्रतिशत लोग मानसिक चुनौतीग्रस्त लोगों के प्रति एक कलंक और हीनता के भाव से देखते हैं-- केवल 27 प्रतिशत उनके प्रति समझदारी और सम्मान दिखाते हैं। ऐसे लोगों को जंजीर से बांधकर रखना, उन्हें अंधेरे कमरे में चीखने चिल्लाने को छोड़ देना, भूत-पिशाच का प्रकोप मानकर काला जादू करने वाले ढोंगियों के पास ले जाकर झाड़ फूंक करवाना, उन्हें पीटना ग्रामीण क्षेत्रों में आम बात है। कंगना और प्रसून जोशी इस फिल्म के शीर्षक से मानसिक व्याधिग्रस्त लोगों को और भी गहरे अवसाद के अंधेरे में धकेलने वाले हैं। बहुत धन, बहुत प्रतिष्ठा, सत्ता से करीबी ऐसा ही राजसी संवेदनहीन अहंकार पैदा करती है। सेंसर बोर्ड या कंगना का इन सबसे कोई संबंध नहीं। कयोंकि ये बेजुबान, उनकी चिंताओं के दायरे में आते नहीं। मानसिक चुनौती ग्रस्त 71 प्रतिशत बच्चे भारत के केवल ग्रामीण क्षेत्रों में रहते हैं। शहरी क्षेत्रों में डॉक्टरों की संख्या प्रायः नगण्य रहती है। ज्यादा कमाई हृदय रोग, प्रसूति दंत चिकित्सा, आर्थों और नेत्र रोग क्षेत्र में है। मानसिक रोग विशेषज्ञ आम तौर पर अन्य विशेषज्ञों से ज्यादा फीस लेते हैं और जो निजी स्वयंसेवी संगठन इस क्षेत्र में सक्रिय हैं, वे चमड़ी उधेड़ पैसा लेते हैं। यदि सामान्य ग्रामीण के घर एक सदस्य भी ऐसा समस्या ग्रस्त हुआ तो वह सामाजिक अभिशाप तथा आर्थिक कठिनाई-- दोनों चक्कों में पिसता है। बीमार राजनीति एक बीमार सेंसर को संभालती है। जो बीमार बालीवुड को संरक्षण देता है।

बहुत कम अभिनेता निर्देशक सामाजिक विषयों में संवेदना दिखाते हैं। आमिर खान, ऋतिक रोशन और अब अक्षय कुमार ने बहुत संवेदना तथ समझ के साथ शानदार फिल्में बनायीं जो सामाजिक सरोकारों को भी निभाते हुए बाक्स आफिस हिट रहीं। स्वयं दीपिका पादुकोण ने 'मेंटल है क्या' फिल्म के बारे में अपनी गहरी चिंता और सावधानी की जरूरत को रेखांकित किया। लेकिन जैसा मैंने पहले कहा-- संवेदनहीन राजनेताओं के देश में बॉलीवुड से संवेदना की उम्मीद कम ही रहती है।

इस फिल्म के शीर्षक पर चर्चा के बहाने देश में खतरनाक ढंग से बढ़ रही मानसिक चुनौतियों पर समाज का ध्यान आकृष्ट करना चाहिए। मानसिक चुनौतियां डिसलेक्सिया आटिज्म, डिलेड, माइलस्टोन्स, लर्गिंग डिस्एबिलिटीज के रूप में भी देखी जाती हैं। ऐसे बच्चों की संख्या प्रायः एक करोड़ है। बिल क्लिंटन और बिल ग्रेटस भी डिसलेक्सिया से गुजरे हैं। वे अच्छे बच्चे होते हैं जिनको तनिक सही प्रोत्साहन की जरूरत होती है। उन्हें मिली जुली कक्षाओं में पढ़ाया जाना चाहिए। पर अमूमन स्कूल ऐसे बच्चों को या तो प्रवेश ही नहीं देते या उन्हें सबसे अलग कक्षा में बस बिठा देते हैं। ये स्कूल निर्मम और निर्दयी ही नहीं, कानून विरोधी भी होते हैं।

देश जगे, कुछ हृदय दिखाए। सिर्फ चुनावी नारेबाजी हमारा जीवन नहीं है साहब।

- तरूण विजय

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