बनेगा ''न्यू इंडिया'', ''ओल्ड'' के लिए नहीं होगी कोई जगह!

Why do leaders of political parties talk unnecessarily

आम आदमी केवल शांति और प्रेम से अपनी जिंदगी जीना चाहता है तो कौन हैं वो लोग जो बेमतलब की बातों पर राजनीति कर के अपने स्वार्थ सिद्ध करते हैं ? अब जब न्यू इंडिया बन रहा है तो उसमें ''ओल्ड'' की कोई जगह नहीं बची है।

धर्म मनुष्य में मानवता जगाता है, लेकिन जब धर्म ही मानव के पशु बनने का कारण बन जाए तो दोष किसे दिया जाए धर्म को या मानव को ? उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के ताजा बयान का मकसद जो भी रहा हो लेकिन नतीजा अप्रत्याशित नहीं था। कहने को भले ही हमारे देश की पहचान उसकी यही सांस्कृतिक विविधता है लेकिन जब इस विविधता को स्वीकार्यता देने की पहल की जाती है तो विरोध के स्वर कहीं और से नहीं इसी देश के भीतर से उठने लगते हैं।

जैसा कि होता आया है, मुद्दा भले ही सांस्कृतिक था लेकिन राजनैतिक बना दिया गया। देश की विभिन्न पार्टियों को देश के प्रति अपने 'कर्तव्यबोध' का ज्ञान हो गया और अपने अपने वोट बैंक को ध्यान में रखकर बयान देने की होड़ लग गई। विभिन्न टीवी चैनल भी अपनी कर्तव्यनिष्ठा में पीछे क्यों रहते ? तो अपने अपने चैनलों पर बहस का आयोजन किया और हमारी राष्ट्रीय स्तर की पार्टियों के प्रवक्ता भी एक से एक तर्कों के साथ उपस्थित थे। और यह सब उस समय जब एक तरफ देश अपने 66 मासूमों की मौत के सदमे में डूबा है, तो दूसरी तरफ बिहार और आसाम के लोग बाढ़ के कहर का सामना कर रहे हैं।

कहीं मातम है, कहीं भूख है, कहीं अपनों से बिछड़ने का दुख है तो कहीं अपना सब कुछ खो जाने का दर्द। लेकिन हमारे नेता नमाज और जन्माष्टमी में उलझे हैं। सालों से इस देश में मानसून में कुछ इलाकों में हर साल बाढ़ आती है जिससे न सिर्फ जान और माल का नुकसान होता है बल्कि फसल की भी बरबादी होती है। वहीं दूसरी ओर कुछ इलाके मानसून का पूरा सीज़न पानी की बूंदों के इंतजार में निकाल देते हैं और बाद में उन्हें सूखाग्रस्त घोषित कर दिया जाता है। इन हालातों की पुनरावृत्ति न हो और नई तकनीक की सहायता से इन स्थितियों पर काबू पाने के लिए न तो कोई नेता बहस करता है न आंदोलन।

फसलों की हालत तो यह है कि अभी कुछ दिनों पहले किसानों द्वारा जो टमाटर और प्याज सड़कों पर फेंके जा रहे थे आज वही टमाटर 100 रुपए और प्याज तीस रुपए तक पहुँच गए हैं। क्योंकि हमारे देश में न तो भंडारण की उचित व्यवस्था है और न ही किसानों के लिए ठोस नीतियाँ। लेकिन यह विषय हमारे नेताओं को नहीं भाते। किसान साल भर मेहनत कर के भी कर्ज में डूबा है और आम आदमी अपनी मेहनत की कमाई महंगाई की भेंट चढ़ाने के लिए मजबूर। लेकिन यह सब तो मामूली बातें हैं! इतने बड़े देश में थोड़ी बहुत अव्यवस्था हो सकती है। सबसे महत्वपूर्ण विषय तो यह है कि थानों में जन्माष्टमी मनाई जानी चाहिए कि नहीं ? काँवर यात्राओं में डीजे बजना चाहिए कि नहीं ? सड़कों पर या फिर एयरपोर्ट पर नमाज पढ़ी जाए तो उससे किसी को कोई आपत्ति नहीं है क्योंकि किसी समुदाय विशेष की धार्मिक भावनाएं आहत होती हैं। मस्जिदों में सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बावजूद लाउड स्पीकर बजेंगे क्योंकि यह उनकी धार्मिक भावनाओं के सम्मान का प्रतीक है। मोहर्रम के जलूस को सड़कों से निकलने के लिए जगह देना इस देश के हर नागरिक का कर्तव्य है क्योंकि यह देश गंगा जमुना तहज़ीब को मानता आया है। लेकिन कांवरियों के द्वारा रास्ते बाधित हो जाते हैं जिसके कारण जाम लग जाता है और कितने जरूरतमंद लोग समय पर अपने गन्तव्यों तक नहीं पहुंच पाते। और इस यात्रा में बजने वाले डीजे ध्वनि प्रदूषण फैलाते हैं।

इस तरह की बातें कौन करता है ? क्या इस देश का किसान जो साल भर अपने खेतों को आस से निहारता रहता है,  या फिर वो आम आदमी जो सुबह नौकरी पर जाता है और शाम को पब्लिक ट्रांसपोर्ट के धक्के खाता थका हारा घर आता है,  या फिर वो व्यापारी जो अपनी पूंजी लगाकर अपनी छोटी सी दुकान से अपने परिवार का और माता पिता का पेट पालने की सोचने के अलावा कुछ और सोच ही नहीं पाता। या वो उद्यमी जो जानता है कि एक दिन की हड़ताल या दंगा महीने भर के लिए उसका धंधा चौपट कर देगा, या फिर वो गृहणी जिसकी पूरी दुनिया ही उसकी चारदीवारी है जिसे सहेजने में वो अपना पूरा जीवन लगा देती है, या फिर वो मासूम बच्चे जो गली में ढोल की आवाज सुनते ही दौड़े चले आते हैं,  उन्हें तो नाचने से मतलब है धुन चाहे कोई भी हो।

जब इस देश का आम आदमी केवल शांति और प्रेम से अपनी जिंदगी जीना चाहता है तो कौन हैं वो लोग जो बेमतलब की बातों पर राजनीति कर के अपने स्वार्थ सिद्ध करते हैं ? अब जब न्यू इंडिया बन रहा है तो उसमें 'ओल्ड' की कोई जगह नहीं बची है। ये बातें और इस तरह की बहस पुरानी हो चुकी हैं इस बात को हमारे नेता जितनी जल्दी समझ जाएं उतना अच्छा नहीं तो आज सोशल मीडिया का जमाना है और यह पब्लिक है जो सब जानती है। बाकी समझदार को इशारा काफी है।

- डॉ. नीलम महेंद्र

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