लेनिन की जगह भारतीय कम्युनिस्टों की मूर्ति होती तो ऐसा हश्र नहीं होता

Why Lenin statue? Why do not the communists remember the indian leftist?
तरुण विजय । Mar 8 2018 2:55PM

नगालैंड और मेघालय में एनडीए सरकारें बनने से अधिक त्रिपुरा में कम्युनिस्ट शासन का अंत उतनी ही बड़ी खबर है जितनी 1957 में केरल में एमएस नम्बूद्रिपाद के नेतृत्व में विश्व की पहली लोकतांत्रिक पद्धति से बनी सरकार थी। 61 वर्ष में भारत का राजनीतिक कम्युनिस्ट आंदोलन वापस केरल तक सिकुड़ गया।

उत्तर पूर्वांचल में राजनीतिक परिवर्तन हुआ है- महज चुनाव नहीं। नगालैंड और मेघालय में एनडीए सरकारें बनने से अधिक त्रिपुरा में कम्युनिस्ट शासन का अंत उतनी ही बड़ी खबर है जितनी 1957 में केरल में एमएस नम्बूद्रिपाद के नेतृत्व में विश्व की पहली लोकतांत्रिक पद्धति से बनी सरकार थी। 61 वर्ष में भारत का राजनीतिक कम्युनिस्ट आंदोलन वापस केरल तक सिकुड़ गया। जहां अगले चुनाव में उसका अंत तय है। हां, माओवादी-नक्सली आतंकवाद के रूप में मार्क्सवाद-लेनिनवाद कुछ और जिंदा रहेगा- यह अलग बात है। सर्वहारा की क्रांति का नारा लेकर भारत में कम्युनिस्ट पार्टी 1925 में स्थापित हुई थी, जिस वर्ष नागपुर में डॉ. हेडगेवार ने रा.स्व. संघ की स्थापना की थी। आज संघ के जो स्वयंसेवक राजनीति में गए उनका ध्वज अरुणाचल से गुजरात और उत्तर से दक्षिण तक अपने बल पर या साझा सरकारों के रूप में 29 में से 21 राज्यों में लहर रहा है- कम्युनिस्ट या तो जेएनयू में कुछ दिखते हैं या केरल में।

कम्युनिस्टों ने रूस में सेंट पीटर्सबर्ग को लेनिनग्राद का नाम दिया था। मूर्तियां हटाना, नाम बदलना, विरोधी पक्ष को स्मृति शेष करना कम्युनिस्ट स्वभाव का अंग है। जैसे सोवियत संघ में लोकतंत्र की वापसी के साथ लेनिनग्राद नाम पुन: सेंट पीटर्सबर्ग हुआ तथा आततायी बर्बर नरसंहारों के जनक लेनिन के पुतले सब जगह से हटे, वैसे ही त्रिपुरा की जनता ने लेनिन का पुतला 'चलो पलटाई' के साथ हटा दिया। त्रिपुरा कम्युनिस्ट पार्टी ने किसी भारतीय कम्युनिस्ट को स्मरण योग्य नहीं माना- यदि वहां नम्बूद्रिपाद का पुतला होता तो बात अलग होती- उसे कोई स्पर्श न करता। अभारतीय मानस, अभारतीय विचार, अभारतीय प्रेरणा स्त्रोत वाले कम्युनिस्ट भारत में स्वीकार्य नहीं हो सकते। लेकिन भारतीय मूर्तिभंजय नहीं हो सकते। हम तो मूर्तिभंजकों के शिकार हैं। हम विचार का विरोध विचार से कर सकते हैं- अन्यथा हममें और इस्लामिक आक्रमणकारियों में क्या फर्क रहेगा? इसलिए यह बहुत मनोबलवर्धक बात है कि प्रधानमंत्री और भाजपा अध्यक्ष दोनों ने त्रिपुरा तथा तमिलनाडु में लेनिन और पेरियार की मूर्तियों पर हमले का विरोध किया।

त्रिपुरा में 31 प्रतिशत जनजातीय समाज है और सर्वाधिक गरीबी, बीमारियां, विद्रोह, बेरोजगारी वहीं है। दस किलो चावल के लिए अपने बच्चे दे देने की दर्दनाक खबरें, जनजातीय-बंगाली संघर्ष (1987 में ही 111 बंगाली त्रिपुरा नेशनल वालंटियर ने डाले थे) उद्योग विहीन राज्य, स्कूल, कॉलेजों में दु:स्थिति, हत्याओं तथा घृणा का माहौल और चुनौती देने वाला विपक्ष नहीं। एक समय था जब संतोष मोहन देव जैसे कद्दावर नेता त्रिपुरा से दो बार लोकसभा में चुने गए, पर 72-77 और 1988-92 तक कांग्रेस का राज्य में शासन होने के बावजूद कम्युनिस्ट कमजोर नहीं हुए और नृपेन चक्रवर्ती (1978-88) के बाद मानिक सरकार (1998-18) लगातार राज करते रहे।  

कांग्रेस ने त्रिपुरा पर चौदह वर्ष शासन किया पर विकास के नाम पर इतना भ्रष्टाचार हुआ कि कम्युनिस्टों को पांव जमाने का अवसर मिला।

इस बीच गत पचास वर्षों से राष्ट्रीयता के विचार को लेकर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने लगातार काम किया-- संघ के चार वरिष्ठ प्रचारक 1999 में त्रिपुरा से अपह्त कर मार डाले गए-- पर संघ कार्य रूका नहीं। अप्रपिहत परिश्रम, साधारण जनता के बीच काम, विरोध के बावजूद डटे रहना, घर परिवार-कैरियर की चिंता छोड़ जुटे कार्यकर्ताओं ने हवा-पानी और वक्त का मिजाज बदल दिया।

त्रिपुरा में जनजातीय, कम्युनिस्ट प्रभाव, प्रायः शून्य प्रतिशत राजनीतिक वोट प्रभाव, प्रांत से लेकर राष्ट्रीय मीडिया के सेकुलर-पत्रकार भाजपा विरोधी- फिर भी यदि भाजपा 43 प्रतिशत मत लेकर 35 सीटें ले आयी तो यह भाजपा की राजनीति कम, परिश्रम तथा 'मृत्यु को हरा कर मिशन' सफल करने का उद्मता की सफलता है।

त्रिपुरा, नागालैंड, मेघालय में भाजपा ने स्थानीय दलों को सम्मान दिया, साथ में लिया जबकि कांग्रेस हेयता से देखती थी। नरेंद्र मोदी की कठोर ईमानदारी, राष्ट्रीय अन्तरराष्ट्रीय लोकप्रियता की छवि तो अमित शाह की अद्भुत, असाधारण जमीनी स्तर तक के कार्यकर्ता को काम में जुटाने की कुशलता- यदि मोदी का वाक्य है-- 'न खाऊं, न खाने दूंगा'- तो, अगरतला, कोहिमा तथा शिलांग के भाजपा कार्यकर्ताओं को अमित शाह 'न सोऊं न सोने दूंगा' जैसे ध्येयवादी वाक्य बोलने लगे। जीतना है- और बूथ, पन्ना स्तर, ब्लाक, गांव मंडल तक न केवल एक-एक मतदाता की पहचान बल्कि वहां कार्यकर्ताओं की टीम खड़ी की गयी। बूथ प्रमुख, पन्ना प्रमुख, ब्लाक- गांव प्रमुख, मोदी सरकार के भ्रष्टाचार विरोधी अभियानों का प्रचार साइकिलों पर पैदल ग्रामीण क्षेत्रों में भाजपा के झंडों के साथ निडर प्रचार-इन सबने माहौल बदला।

उत्तर पूर्वांचल में स्थानीय दलों के साथ गठजोड़ तथा दोस्ती में नार्थ-ईस्ट स्टार हिमंत विस्वा शर्मा का कोई सानी नहीं। वह निश्चित रूप में राष्ट्रीय राजनीति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले हैं। हिमंत-राम माधव और सुनील देवधर की अद्भुत खड्ग समान तेज मिशन भावना वाली टीम ने त्रिपुरा में जनजातीय-मोर्चा इंडीजिनियस पीपुल्स फ्रंट आफ त्रिपुरा, मेघालय नेशनल पीपुल्स पार्टी के कोनराड संगमा (पूर्व लोक सभाध्यक्ष पीए संगमा के सबसे छोटे पुत्र) तथा नागालैंड में नेशनलिस्ट डेमोक्रेटिक प्रोग्रेसिव पार्टी (एनडीपीपी) को साथ में लेकर स्थानीय लोगों को अपने भी उतना ही स्थानीय होने का अहसास कराया।

गुजरात में जीतने के बाद अमित शाह एक दिन भी विश्राम न लेते हुए पूर्वांचल के अभियान में जुटे और उसके समानांतर कर्नाटक में तूफानी दौरे शुरू किए। गत दो वर्षों से प्रधानमंत्री मोदी ने प्रत्येक कैबिनेट मंत्री की हर पंद्रह दिन में एक बार उत्तर पूर्व की यात्रा अनिवार्य बना दी थी। उत्तर पूर्व के मंत्री डॉ. जितेंद्र सिंह तो हर सप्ताह किसी न किसी उत्तर पूर्व के प्रदेश में विकास का उपहार लेकर जाते दिखे। अरुणाचल के मुख्यमंत्री पेमा खाण्डू, असम के मुख्यमंत्री सर्वानन्द सोनोवाल और गृह राज्य मंत्री किरन रिजीजू- इन सबने पूर्वांचल को मोदी-दूतों की ऐसी आकाशगंगा दी जिसके सामने विपक्ष का एक भी नेता दिखता ही नहीं था। कभी कहा जाता था कि भाजपा मध्यवर्गीय 'काऊबेल्ट' पार्टी है।

मानकर चलता था कि ईसाई बहुल राज्य भाजपा को स्वीकार नहीं करेंगे। लेकिन 'राष्ट्र-प्रथम, शेष भेद गौण' सिद्धांत भाजपा को असंभव दिखते राज्यों में भी स्वीकार्य बना गया।

यह देश की एकता एवं समग्र-भारतीय सरोकारों वाली राष्ट्रीय राजनीति के लिए एक शुभ संकेत है। अभी तक कांग्रेस-कम्युनिस्ट स्थानीय मतभेद और अलगाव की भावनाओं को भड़का कर सत्ता में आते रहे- पहली बार मोदी-शाह ने कश्मीर राजस्थान गुजरात को भी उत्तर पूर्वांचल की धारा से जोड़ा तो उत्तर पूर्वांचल भी राष्ट्रीय राजनीति की मुख्यधारा का अभिमानी हिस्सेदार बना। यह एक नई भारतीय राष्ट्रीय राजनीति का विस्तार है जो अब दक्षिण को भी केसरिया करेगा।

उत्तर पूर्वांचल राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ/भाजपा के लिए राष्ट्रीयता और भारत-रक्षा का कवच जैसा है- चुनाव का अखाड़ा नहीं। दो सरसंघचालक- कुप्.सी. सुदर्शन और मोहन भागवत- उत्तर पूर्व में स्वयं काम करते रहे हैं। विद्यालय, आरोग्य केंद्र, कांची शंकराचार्य जयेंद्र सरस्वती (दिवंगत) के सेवा कार्य चले तो नितिन गडकरी, जयंत सिन्हा, पीयूष गोयल के अभूतपूर्व विकाय कार्यों ने वहां की जमीन-आसमान को नया रंग दिया। पहली बार उत्तर पूर्व उत्तर प्रदेश जैसा महत्वपूर्ण बना।

-तरुण विजय

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