क्षेत्रीय ताकतों को कांग्रेस का उभार पसंद नहीं आ रहा, इसलिए दूरी बना रहे हैं

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राकेश सैन । Mar 19 2019 2:30PM

कर्नाटक में पिछड़ने के बावजूद भाजपा को मुख्यमंत्री की कुर्सी से दूर रखने और वर्ष के अंत में मध्य प्रदेश, राजस्थान व छत्तीसगढ़ में मिली सफलता से एक बार लगने लगा था कि आम चुनावों में कांग्रेस पार्टी फ्रंट फुट पर खेलने जा रही है।

चाहे चुनाव आयोग द्वारा आम चुनावों की घोषणा से कुछ दिन पहले ही राजनीतिक दलों ने अपने लंगर लंगोट कसने शुरू कर दिए थे परंतु राजनीतिक रणभेरी बजने के एक सप्ताह में ही कुछ ऐसा दिखने लगा कि कल तक सत्ता परिवर्तन का दावा करने वाली कांग्रेस 2024 के चुनावों की तैयारी कर रही है। पार्टी के रणनीतिकार व नेता जोर खूब लगा रहे हैं परंतु मन ही मन में वर्तमान सत्तारूढ़ दल भाजपा को वाकओवर देने का मन बना चुके दिखने लगे हैं। इसके पीछे मुद्दों के अकाल के साथ-साथ पुलवामा के बाद भारतीय वायुसेना की एयरस्ट्राईक, राहुल गांधी के नेतृत्व आदि कारणों को माना जा सकता है। पार्टी के रणनीति वर्तमान चुनावों में अपने खोए हुए जनाधार को हासिल करने व अगले आम चुनाव में पूरी तैयारी से मैदान में उतरने की तैयारी की लगती है।

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कर्नाटक में पिछड़ने के बावजूद भाजपा को मुख्यमंत्री की कुर्सी से दूर रखने और वर्ष के अंत में मध्य प्रदेश, राजस्थान व छत्तीसगढ़ में मिली सफलता से एक बार लगने लगा था कि आम चुनावों में कांग्रेस पार्टी फ्रंट फुट पर खेलने जा रही है। राहुल गांधी के आक्रामक तेवरों और राफेल मुद्दे पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर किए गए हमलों के चलते वे पिछले पांच सालों में पहली बार विपक्ष के नेता दिखने लगे परंतु सर्वोच्च न्यायालय के साथ-साथ सार्वजनिक स्तर पर सरकार की रणनीति ने राहुल के राजनीतिक राफेल को तारपीड़ो कर दिया। बसपा, सपा, तृणमूल कांग्रेस, आम आदमी पार्टी, तेलुगु देशम पार्टी सहित अनेक क्षत्रप कहने को तो मोदी विरोध के नाम पर महागठबंधन की बात चलाते रहे परंतु लगता है कि इन क्षेत्रीय ताकतों को भी उस कांग्रेस का उभार पसंद नहीं आया जिसके विरोध में ही इनका जन्म हुआ। सभी जानते हैं कि बसपा कांग्रेस के दलित वोट बैंक की खाद-पानी पर ही पली बढ़ी और सपा व टीडीपी कांग्रेस विरोध के नाम पर अस्तित्व में आई। ममता ने कांग्रेस से निकल कर तृणमूल कांग्रेस और शरद पवार ने एनसीपी का गठन किया। अगर कांग्रेस का पुनरोत्थान होता है तो स्वाभाविक है कि यह इन क्षेत्रीय दलों की राजनीतिक मौत का ही पैगाम होगा। दूसरी ओर क्षत्रपों को कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी का नेतृत्व कतई स्वीकार नहीं हो सकता जो अभी तक न तो इतने अनुभवी हैं और जिन्होंने अभी अपनी नेतृत्व कुशलता का प्रमाण भी नहीं दिया है। कांग्रेस का अहंकार व क्षत्रपों की असुरक्षा की भावना से महागठजोड़ की घटाएं बिना बरसे ही छंट गईं। सपा, बसपा, तृणमूल कांग्रेस, 'आप' से तो ना मिल चुकी है और बिहार में राष्ट्रीय जनता दल से भी बात बिगड़ती दिखाई देने लगी है। उधर टीडीपी ने भी कह दिया है कि वह विधानसभा चुनाव में कांग्रेस से गठजोड़ नहीं करेगी। अब महागठबंधन के गर्भपात और बालाकोट एयरस्ट्राईक के बाद कांग्रेस बदली हुई रणनीति पर काम करती दिखने लगी है।

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कांग्रेस के रणनीतिकार मानते हैं कि देश के बड़े भू-भाग जिसमें राजस्थान, एमपी, छत्तीसगढ़, हरियाणा, दिल्ली, पंजाब, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखण्ड, पूर्वोत्तर के कई राज्यों में उसका सीधा मुकाबला भारतीय जनता पार्टी से है। इसीलिए यहां महागठबंधन का उसे कोई लाभ नहीं मिलने वाला। यूपी, बंगाल, दिल्ली और बिहार में भी उसे महागठबंधन के कोटे से इतनी कम सीटें मिल रही हैं कि जो शर्मनाक तो है ही साथ में अगर पार्टी अपने दम पर चुनाव लड़े तो भी वह महागठबंधन के नाम पर खैरात में मिलने वाली सीटों से अधिक सीटें हासिल कर सकती है। साथ में इन बड़े राज्यों में अकेले चुनाव लड़ने से इन प्रदेशों में पार्टी का संगठनात्मक ढांचे को भी राजनीतिक शक्ति मिलेगी जो निरंतर पराजयों व तरह-तरह के गठबंधनों के चलते लगभग खत्म-सा हो चुका है। बिहार, बंगाल, यूपी में कांग्रेस अपने संगठनात्मक ढांचे को खड़ा कर लेती है तो 2024 की राह उसके लिए अत्यंत आसान हो सकती है। शायद यही कारण है कि कांग्रेस पार्टी अपने आखिरी तुरुप के पत्ते प्रियंका गांधी को राजनीति में सक्रिय तो कर चुकी है परंतु उन्हें अभी चुनावी मैदान में नहीं उतारा गया है। कुछ समय पहले तक समझा जा रहा था कि सोनिया गांधी के अस्वस्थ होने के चलते अबकी बार रायबरेली से प्रियंका को उतारा जा सकता है परंतु पार्टी को ऐन वक्त पर अपनी रणनीति बदलनी पड़ी और प्रियंका को केवल प्रचार अभियान तक सीमित कर दिया। पार्टी नहीं चाहती कि इन परिस्थितियों में प्रियंका पर दांव लगाया जाए क्योंकि आशंका है कि इसके वांछित परिणाम नहीं निकले तो पार्टी नेतृत्व शून्य सी हो सकती है।

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पार्टी की बदली हुई रणनीति के पीछे राहुल गांधी को भी माना जा रहा है, जिसे पार्टी कल तक मोदी का विकल्प बता रही थी वे हाल ही के दिनों में हकलान का शिकार होते दिखने लगे हैं। पुलवामा और बालाकोट एयर स्ट्राईक के बाद की परिस्थितियों से राहुल गांधी जिस तरीके निपटे उसे एड़ी उठा कर गले में फंदा डालना ही कहा जा सकता है। इन परिस्थितियों के लिए कोई और नहीं बल्कि खुद राहुल गांधी को जिम्मेवार ठहराया जा सकता है क्योंकि पुलवामा हमले के बाद न जाने किसके कहने पर उन्होंने गुजरात में होने वाली कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक को स्थगित किया। असल में ऐसे महत्त्वपूर्ण मौकों पर तो राष्ट्रीय दल विशेष बैठकें करके सरकार को अपने फैसलों से प्रभावित करते और अपने काडर को उक्त मुद्दों पर पार्टी लाईन से अवगत करवाते हैं। पुलवामा हमले के बाद सीडब्ल्यूसी की बैठक को स्थगित न करके बैठक में सरकार को आतंकवाद पर हुई चूक पर घेरा जा सकता था। सरकार की तर्कसंगत आलोचना की जाती तो संभव है कि पार्टी के मुंहफटों को अपनी-अपनी लाईन पर चलने की स्वच्छंदता भी न मिलती और पार्टी किरकिरी से बच जाती। लेकिन गलत रणनीतिकारों के पीछे चल कर राहुल गांधी ने गुड़ गोबर कर दिया। देश में मतदान का पहला चरण पूरा होने में आज एक महीने से भी कम का समय रहा है परंतु महागबंधन तो दूर छोटे-छोटे दलों से तालमेल बैठाने में भी कांग्रेस को पसीने छूटते दिख रहे हैं। कांग्रेस के मुकाबले भारतीय जनता पार्टी नए पुराने 29 दलों से चुनावी गठजोड़ कर चुकी है और प्रचार में कहीं आगे है। इसके विपरीत कांग्रेस की तैयारियों से लगने लगा है कि शायद वह 2024 के लिए दंड पेल रही है।

-राकेश सैन

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