कारण चाहे जो रहा हो, जायरा तुमने लाखों किशोरियों का आत्मविश्वास हिला दिया

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जायरा शायद इस संदेश को समझ पाने में नाकामयाब रही है कि जो सपना अब उसने देखना बंद कर दिया, वह लाखों की आंखों में अभी पल रहा है। उनके सपनों का क्या होगा। जायरा वसीम ने एक झटके में लाखों किशोरियों के आत्मविश्वास को हिला दिया है।

जायरा वसीम को अंदाजा भी नहीं रहा होगा कि उसके धर्म के नाम पर सिनेमा को अलविदा कहने के कितने निहितार्थ होंगे। देश की लाखों किशोरियों और युवतियों का रोल मॉडल बनी जायरा ने एक झटके में उनके आत्मविश्वास का हिला दिया। दंगल महज एक फिल्म नहीं बल्कि पूरे विश्व में बराबरी के दर्जे के साथ आगे बढ़ने की महिलाओं की एक मिसाल है। यही वजह है कि इसे दूसरे मुल्कों में भी सराहा गया। जायरा को शानदार अदाकारी के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार से नवाजा गया। आमिर खान की अन्य फिल्मों की तरह दंगल ने बॉक्स आफिस पर करोड़ों रुपए कमाए हैं। लेकिन तमाम चुनौतियों के बावजूद हर हाल में आगे बढ़ने की प्रेरणा के संदेश का आत्मसंतोष आमिर खान के लिए करोड़ों के मुनाफे से भी कहीं अधिक होगा। जिसके जरिए आमिर पूरे विश्व को यह संदेश देने में कामयाब रहे कि यह महज एक फिल्म नहीं बल्कि महिला सशक्तिकरण का एक नायाब नमूना है।

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जायरा शायद इस संदेश को समझ पाने में नाकामयाब रही है कि जो सपना अब उसने देखना बंद कर दिया, वह लाखों की आंखों में अभी पल रहा है। उनके सपनों का क्या होगा। फिल्म के किरदार में जायरा ने यह संदेश देने की कोशिश की है कि महिलाएं हर क्षेत्र में पुरूषों से प्रतिस्पर्धा कर गैरबराबरी के भ्रम को दूर कर सकती हैं। जायरा जैसी दूसरी युवतियों ने ऐसी सामाजिक वर्जनाओं को विभिन्न क्षेत्रों में तोड़ा भी है। खासकर सिनेमा के क्षेत्र में। जायरा को शायद अनुमान भी नहीं होगा कि उसके अभिनय के बाद इस फिल्म को परिवारों ने विशेषकर बालिकाओं के साथ एक खास उद्देश्य से देखा था। आम मध्यमवर्गीय परिवार अपने परिवार की बालिकाओं को यह बताने चाहते थे कि उनका लिए भी जायरा की तरह सारा आसमां खुला है। बस जरूरत है तो एक जज्बे और मार्गदर्शन की।

जायरा के जानदार रोल के बाद हर परिवार ने दूसरे परिवारों से इसे देखने के लिए अनुरोध किए थे। महिलाओं को शारीरिक तौर पर अबला समझने का भ्रम भी इस फिल्म के माध्यम टूटा था। शारीरिक दमखम वाले कुश्ती जैसे निहायत पुरुष प्रधान खेल में भी महिलाएं टक्कर दे सकती हैं, गीता फोगाट की इस जद्दोजहद को जायरा के अभिनय ने साबित कर दिया। जायरा का फैसला निश्चित तौर पर उसका जातीय मसला है। सवाल यह है कि एक बार किसी का रोल मॉडल बनने के बाद आप वापस बैकफुट पर वापस कैसे जा सकते हैं। जायरा के बैकफुट पर आने का मतलब है कि न केवल सिनेमा के क्षेत्र में बल्कि दूसरे क्षेत्रों में अपने मुकाम के लिए जूझ रही युवतियां भी कुछ ऐसा ही सोचें कि वे जो कर रही हैं उसमें कहीं कोई विरोधाभास या आत्मग्लानि तो नहीं है। उसमें धर्म, जाति या समाज की परंपराओं का उल्लंघन तो नहीं हो रहा। उन्हें भी जायरा की तरह वह सब नहीं करना चाहिए। कारण सभी किसी न किसी धर्म से जुड़े हुए हैं। आधुनिक विज्ञान और चेतना आने के बाद धर्म की परिभाषाएं बदल गई हैं। धर्म के प्रति लोगों का नजरिया बदल गया। धर्म अब उस दौर में नहीं रहा जब वैज्ञानिक दृष्टि से सत्य प्रमाणित करने के बाद भी गैलीलियों को मौत की सजा मिली थी। फिर चर्च ने सैंकड़ों साल बाद इस कृत्य के लिए माफी मांगी।

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भारत हो या विश्व के दूसरे विकासशील देश, सभी में निम्न और मध्यम वर्ग में कहीं न कहीं किसी आदर्श और प्रेरणा के सहारे अपनी दुश्वारियों के बावजूद आगे बढ़ने की ललक है। जायरा या दूसरे ऐसे लोग चिराग की तरह प्रेरणा देने का काम करते हैं। एक चिराग भी पूरे घर को रौशन करने में कामयाब होता है। भारतीय समाज में यूं भी जातिगत−धार्मिक−सांस्कृतिक बेड़ियां इतनी ज्यादा हैं कि आम युवतियों के लिए इनसे पार पाते हुए आगे बढ़ना आसान नहीं है। ऐसे में थोड़ी−बहुत उम्मीद, रूपहले पर्दे पर छाप छोड़ने वाली जायरा जैसी नायिकाओं को देखकर बंधती है। निश्चित तौर पर जायरा के इस निर्णय ने देश में एक नई बहस का जन्म दे दिया है कि देश−समाज की अपेक्षाओं से कहीं अधिक निजी मान्यताएं हैं या नहीं।

-योगेन्द्र योगी

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