''नकलचियों'' पर योगी की सख्ती से कई बड़ी समस्याएं खत्म हुईं
योगी सरकार के नकल विरोधी अभियान का नतीजा यह रहा रहा कि यूपी बोर्ड के करीब 11 लाख छात्र−छात्राओं ने परीक्षा बीच में ही छोड़ दी, यह वह छात्र थे जिन्हें अपनी योग्यता से अधिक नकल पर विश्वास था।
बेरोजगारी देश की एक बड़ी समस्या है। सरकार की इतनी क्षमता नहीं है कि वह सरकारी सेवाओं में सबको समाहित कर पाये। इसके बाद भी सरकारी नौकरियों के इच्छुक युवाओं की लम्बी−लम्बी कतारें कहीं भी देखी जा सकती हैं। सरकार किसी की भी रही हो, उसे बेरोजगारी रूपी 'सांप' हर समय डसने को तैयार रहता है। युवाओं को रोजगार चाहिए होता है तो विपक्ष के लिये बेरोजगारी, सियासी रोटियां सेंकने का सबसे सुनहरा मौका रहता है। बेरोजगार युवा इसके चलते स्वयं तो कुंठित रहते ही हैं। इसका सामाजिक और कानून व्यवस्था पर भी काफी विपरीत प्रभाव पड़ता है। बेरोजगारी से मुफलिसी और भुखमरी बढ़ती है और भुखमरी और मुफलिसी अपराध की जननी बन जाती है। तो सरकार पर यह कथित पढ़े−लिखे बेरोजगार अनायास बोझ बन जाते हैं।
योगी सरकार के नकल विरोधी अभियान का नतीजा यह रहा रहा कि यूपी बोर्ड के करीब 11 लाख छात्र−छात्राओं ने परीक्षा बीच में ही छोड़ दी, यह वह छात्र थे जिन्हें अपनी योग्यता से अधिक नकल पर विश्वास था। इसके चलते यह कथित पढ़े−लिखे बेरोजगार जो अक्सर बाद में सरकारी नौकरियों में घुसने के लिये दांवपेंच अजमाते हैं, इनकी उस मुहिम को भी झटका लगेगा। योगी सरकार भी अन्य सरकारों की तरह नकल पर सख्ती नहीं करती तो एक बार फिर कथित पढ़े−लिखे बेरोजगारों की संख्या में 11 लाख की बढ़ोत्तरी हो जाती, जो न अपना भला कर सकते थे, न उनसे देश या समाज का कोई भला होता।
यह बेरोजगारी का एक पक्ष है। दूसरे पक्ष पर गौर किया जाये तो सरकारी नौकरियां सबको मिल नहीं सकती हैं और प्राइवेट सेक्टर जहां नौकरियों की असीम संभावनाएं हैं, वहां नियोक्ता इस बात से चिंतित हैं कि उसके पास जॉब की संभावनाएं तो काफी हैं, लेकिन उसके अनुरूप देश में पर्याप्त टेलेंट नहीं मिलता है। कई नामी कम्पनियों ने तो स्वयं ही यह बीड़ा उठा लिया है कि वह अपनी जरूरत के अनुसार टेलेंट तैयार करेंगे। ऐसा वह कर भी रहे हैं लेकिन सभी नियोक्ताओं के लिये ऐसा करना असंभव है। देश में शैक्षणिक संस्थाओं की कोई कमी नहीं है। बच्चों से फीस के नाम पर मोटी धन उगाही भी की जाती है। इसके बाद भी टेलेंट्ड बच्चे नहीं निकल रहे हैं तो इसकी कई वजह हैं। शिक्षा व्यवसाय बन गया है। देश में सबसे अधिक नामी स्कूल−कालेज राजनेताओं की छत्र छाया में पल रहे हैं। धनबली पैसे से सबका मुंह बंद कर देते हैं। तमाम सरकारें इनके सामने नतमस्तक हो जाती हैं। शिक्षा के सिस्टम में नर्सरी से गिरावट का दौर शुरू होता है जो उच्च शिक्षा तक कहीं थमता नहीं है। छात्र और अनेक बार अभिभावक जब यह सोच लेते हैं योग्यता से नहीं, पैसे से डिग्री हासिल की जा सकती है तो शिक्षा के क्षेत्र में बुराइयों का दौर शुरू हो जाता है। नकल माफिया अपने पैर पसारने लगते हैं। नकल से डिग्री हासिल करने वाले छात्र किसी योग्य नहीं होते हैं वह अपने साथ−साथ समाज पर भी बोझ बन जाते हैं। अनाप−शनाप तरीके से ही सही छात्रों के हाथ में डिग्री आने के बाद वह चाय−पकौड़ा बेच नहीं पाते हैं और जॉब करने लायक उनकी योग्यता नहीं होती है। जब ऐसे लोगों पर सख्ती की जाती है तो सच्चाई ठीक वैसे ही सामने आती है जैसे आजकल यूपी बोर्ड की परीक्षाओं में सामने आ रही है। जो छात्र−छात्राएं पिछले तमाम वर्षों से यह मान कर चल रहे थे कि पढ़ने की क्या जरूरत जब नकल करके पास हुआ जा सकता है, लेकिन ऐसे छात्रों के अरमानों पर योगी सरकार की सख्ती ने पानी फेर दिया है।
यही वजह थी कि यूपी बोर्ड की परीक्षा में पेपर छोड़ने वाले छात्र−छात्राओं की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है। करीब 11 लाख छात्र−छात्राएं सख्ती के चलते परीक्षा छोड़ चुके हैं। बोर्ड के लगभग सौ वर्षों के इतिहास में यह पहला मौका था जब इतनी बड़ी संख्या में परीक्षार्थी पेपर देने नहीं पहुंचे। इससे पहले किसी भी साल में इतनी बड़ी संख्या में छात्रों ने परीक्षा नहीं छोड़ी थी, जबकि परीक्षा देने वालों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही थी। यूपी बोर्ड परीक्षा में चौथे दिन तक परीक्षा छोड़ने वालों में हाईस्कूल के 624473 व इंटरमीडिएट के 420146 परीक्षार्थी यानी कुल 10,44,619 छात्र−छात्रओं ने पेपर छोड़ दिया। यह संख्या बोर्ड परीक्षा के लिए पंजीकृत किये गये 6637018 छात्र−छात्राओं का 15.73 प्रतिशत था।
नकल विहीन परीक्षा को लेकर योगी सरकार की ओर से की जा रही सख्ती और सीसीटीवी में करतूत कैद होने के खौफ से छात्र−छात्राएं ही नहीं केन्द्र व्यवस्थापक, रूम इंचार्ज और शिक्षा विभाग के अधिकारी/कर्मचारी तक दबाव में हैं। यूपी के दूरदराज के कई जिले तो नकलचियों के लिये 'स्वर्ग' जैसे हुआ करते थे। ऐसे जिलों में सर्वाधिक छात्र−छात्राओं ने परीक्षा छोड़ी है। चौथे दिन तक गाजीपुर में 64858, आजमगढ़ में 64777, देवरिया में 61620, बलिया में 56342, अलीगढ़ में 45458, फैजाबाद में 36712, हरदोई में 34181, मथुरा में 30191, मऊ में 30169, इलाहाबाद में 25899, आगरा में 25740 व गोंडा में 23884 परीक्षार्थी परीक्षा देने नहीं पहुंचे।
अलीगढ़ में परीक्षा केन्द्रों का निरीक्षण करने पहुंचे डिप्टी सीएम और शिक्षाविद् दिनेश शर्मा जब मीडिया से रूबरू हुऐ तो उन्होंने कहा कि अगले सत्र में 14 दिन में बोर्ड परीक्षा करायेंगे। अगले सत्र से शिक्षा के क्षेत्र में और भी बेहतर तरीके से पढ़ाई के लिए मुहिम चलाई जाएगी। रोजगारपरक कोर्स को डिग्री कॉलेज की तरह माध्यमिक शिक्षा में भी जोड़ा जाएगा। डिप्टी सीएम ने कहा कि पूरे प्रदेश के बच्चे अच्छी तरह से पढ़ें, इसके लिए एनसीआरटी पाठ्यक्रम नए सत्र से लागू होंगे। उन्होंने बताया कि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ वीडियो कांफ्रेंसिंग कर अधिकारियों को निर्देश भी दे चुके हैं। परीक्षा के दौरान भी शासन स्तर पर कड़ी निगरानी की जा रही है। इसके लिए शासन ने सभी 18 मंडलों के लिए 18 पर्यवेक्षकों की तैनाती की है। इनके द्वारा अपनी रिपोर्ट शिक्षा निदेशक, शिक्षा परिषद के सभापति और सचिव माध्यमिक शिक्षा परिषद को भेजी जा रही है। वहां से यह रिपोर्ट मुख्यमंत्री और उप मुख्यमंत्री के पास जाएगी।
बहरहाल, यूपी बोर्ड की परीक्षाओं में नकल पर नकेल कसने का काम सुचारू ढंग से चल रहा है तो इसके लिये डिप्टी सीएम की पीठ थपथपानी चाहिए। एक तो उनकी सख्ती और दूसरे लखनऊ विश्वविद्यालय में पढ़ाने का उनका अनुभव काम आ रहा है क्योंकि उन्हें शिक्षा के क्षेत्र की एक−एक खामियों का अंदाजा है।
बात बेरोजगारी के सियासी पक्ष की कि जाये तो बेरोजगारी के नाम पर सियासत करने वाले संसद से लेकर सड़क तक चाहे जितना शोर मचा लें, लेकिन सच्चाई यह कि देश में बेरोजगारी की समस्या एकाएक उत्पन्न नहीं हुई है। यह तमाम सरकारों की दशकों पुरानी नीतिगत खामियों का नतीजा है। मोदी ने 2013 में आगरा की एक चुनावी रैली में वायदा किया था कि भाजपा की सरकार बनने पर वह प्रति वर्ष एक करोड़ युवाओं को रोजगार दिलायेंगे। मगर ऐसा हो नहीं पाया। युवाओं को रोजगार उपलब्ध कराने के मामले में मोदी सरकार की परफारमेंस पर इसीलिये विपक्ष उंगली उठा रहा है। 2017 में मोदी सरकार ने बुनियादी ढांचा, निर्माण और व्यापार समेत आठ प्रमुख क्षेत्रों में सिर्फ 2 लाख 31 हजार नौकरियां दीं जबकि 2015 में यही आंकड़ा एक लाख 55 हजार पर सिमटा रहा। हालांकि 2014 में 4 लाख 21 हजार लोगों को नौकरी मिली थी।
कांग्रेस पर उंगली उठाकर मोदी सरकार की नाकामयाबी या कामयाबी को सही नहीं ठहराया जा सकता है, लेकिन सवाल तो 55 साल तक देश पर राज करने वाली कांग्रेस से भी पूछा ही जायेगा कि उसने क्या किया। उसके शासन काल में बेरोजगारी सबसे अधिक बढ़ी थी। लेकिन ऐसे हालात नहीं थे जब 2009 में कांग्रेस गठबंधन दूसरी बार सत्ता में आया था तब 2009 में ही उसके द्वारा दस लाख से अधिक नौकरियां दी गई थीं। दो सरकारों का यह तुलनात्मक अध्ययन बताता है कि अब तक मोदी सरकार कांग्रेस के एक साल के आंकड़े को भी नहीं छू पाई है। याद दिला दें कि 2014 के लोकसभा के चुनावी घोषणापत्र में रोजगार भाजपा का मुख्य एजेंडा था। तमाम आंकड़े बताते हैं कि देश में 14 लाख डॉक्टरों की कमी है, 40 केंद्रीय विश्वविद्यालयों में 6 हजार से अधिक पद खाली हैं। आइआइटी, आइआइएम और एनआइटी में भी हजारों की संख्या में पद रिक्त हैं जबकि अन्य इंजीनियरिंग कॉलेज 27 फीसद शिक्षकों की कमी से जूझ रहे हैं। 12 लाख स्कूली शिक्षकों की भर्ती जरूरी है। यह पद तब खाली हैं जबकि बेरोजगार लाइन लगाये खड़े हैं।
- अजय कुमार
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