बेंगलुरू की घटना हमारे पुरुषवादी समाज पर काला धब्बा

महेश तिवारी । Jan 11 2017 12:32PM

महिलाओं को समाज से जोड़ने की बात भी इस समाज में होती है, लेकिन उनकी निजता और अस्मिता के साथ खेलना पुरूषवादी समाज में आम हो गया है, जो सामाजिक और भारतीय संस्कृति की दृष्टि से ठीक नहीं कहा जा सकता है।

हाईटेक सिटी के नाम से मशहूर बेंगलुरू में जिस तरीके की घटना घटी, वह मानवता को तार−तार और छिन्न-भिन्न कर देने वाली घटना है। महिलाओं पर इस तरीके की ज्यादती लगभग सभी शहरों में आम हो गई है, जो महिला विरोधी समाज की कल्पना प्रस्तुत कर रही है। महिलाओं को समाज से जोड़ने की बात भी इस समाज में होती है, लेकिन उनकी निजता और अस्मिता के साथ खेलना पुरूषवादी समाज में आम हो गया है, जो सामाजिक और भारतीय संस्कृति की दृष्टि से ठीक नहीं कहा जा सकता है। महिलाओं को समाज की मुख्यधारा से जोड़ने की बात बार−बार उठाई जाती है फिर उनकी अस्मिता और निजता से खिलवाड़ इस तथ्य को उजागर करता है कि वर्तमान कलयुगी मानव अब बाहरी दिखावे में सज्जन और चरित्रवान बनने का ढोंग रचता है, लेकिन अंदर से उसकी आत्मा दानव से भी खतरनाक और जहरीली हो चुकी है। साल बदल जाता है, समय में परिवर्तन आ जाता है, लेकिन आदमी है कि उसकी सोच आये दिन बिगड़ती जा रही है। उसकी सोच महिलाओं के प्रति कुंद-सी पड़ गई है।

बड़े−बड़े समारोहों, बैठकों आदि में महिलाओं को समाज में पुरूषों से कंधे से कंधा मिलाकर आगे ले जाने की बात होती है, परन्तु ये सारी गुणवान और सद्चरित्र की बातें केवल उसी समारोहों, सम्मेलनों तक ही सीमित रह जाती हैं। उससे निकलने के बाद पुनः समाज में स्त्रियों के साथ वही बद्सलूकी और निहायत भद्दी हरकतें समाज की गंदी मानसिकता रखने वाले तबके द्वारा की जाती हैं। उस पर न तो कानून कठोर कार्रवाई कर पाता है, न समाज ही उसे कठोर सजा सुना पाता है, जिससे आगे कभी कोई सामाजिक अवस्था का सुसुप्त प्राणी जो अपनी नैतिकता का दामन उतार चुका है, वह पिछली घटना से सबक ले सके और कभी भी इस तरीके की ओछी हरकत न कर पाए।

हमारे देश के जनप्रतिनिधि भी अपनी ओछी राजनीतिक विचारधारा का परिचय देते हुए, उपदेश या प्रवचन में कहते हैं कि महिलाएं पश्चिमी सभ्यता के कपड़े पहनती हैं, वे पश्चिमी रीति−रीविजों को धारण कर रही हैं, जिससे समाज में उनके खिलाफ इस तरीके की करतूतें बढ़ी हैं। यह उनकी गिरी हुई मानसिकता का परिचायक है कि उनकी महिलाओं और सामाजिक वातावरण के प्रति सोच कितनी दोयम दर्जे की हो चली है। समाज में जब स्त्रियों और महिलाओं को पुरूषों के बराबर हक दिलाने की चर्चा संसद से सड़क तक उठती है, तब इस तरह के बेतुके बयान बहादुर नेता अपने आप को क्या हाजिर करने के लिए ऐसे तथ्यों की बात करते हैं। सामाजिक परिवेश में रहने के लिए स्वच्छ और साफ−सुथरी मानसिकता पहली प्राथमिकता होनी चाहिए,। जब देश का प्रतिनिधित्व करने वाले सामाजिक सरोकार से जुड़े नेता ऐसे बेतुके और अड़ियल स्वभाव के बयान स्त्रियों की स्थिति को लेकर देंगे, तब साफ सुथरे सामाजिक परिवेश का निर्माण हो पाना इस कलियुगी वातावरण में मुश्किल होगा।

जब आज के दौर में स्त्रियां पुरूषों से किसी भी क्षेत्र में पीछे नहीं हैं, महिलाएं चांद से लेकर अंतरिक्ष तक कदम से कदम मिलाकर पहुंच चुकी हैं, फिर उनकी इस दयनीय स्थिति के लिए हमारा पुरूष प्रधान समाज ही जिम्मेदार है, जो स्त्रियों को मात्र भोगविलास की वस्तु समझता है। यह पुरूष प्रधान सामाजिक वातावरण की गंदगी मानसिकता की सोच है, जब स्त्री और पुरूष दोनों समाज के एक सिक्के के दो पहलू हैं तब पुरूषों की यह नकारात्मक सोच समाज की भलाई के लिए उचित नहीं कही जा सकती है। इससे समाज अपनी नैतिकता और सामाजिक उपदेयता का भाव क्षीण करता जा रहा है। जो भारतीय परिवेश 'यत्र नारी पूज्यन्ते तत्र देवता रमन्यते' के सद्गुण की बात पर चलने वाला हो, उसके लिए इससे बुरी बात और क्या हो सकती है कि उसका वर्तमान परिदृष्य महिलाओं की अस्मिता को तार−तार करता हुआ दिख रहा है। इस मानसिकता को समाज से नष्ट करना होगा। इसके लिए कानूनों को कठोर करने की जरूरत है। जिन महिलाओं को संवैधानिक तंत्र द्वारा भी समान अधिकार और कर्त्तव्य प्रदान किए गए हों, उसके खिलाफ होने वाली गंदगी मानसिकता के लोगों के खिलाफ सामाजिक तंत्र में रहने वाले लोगों को जंग छेड़ने की जरूरत है। महिलाओं के साथ अभद्रता करने वाले लोगों को समाज से निष्काषित कर देने चाहिए, उनको ऐसी सजा का ऐलान होना चाहिए कि उसके बाद अगर कोई असामाजिक तत्व महिलाओं के साथ अभद्रता या छेड़छाड़ करने का ख्याल भी अपने दिल में लाए तो उसकी रूह कांप उठे।

सामाजिक ताने−बाने में बदलाव के साथ हमारे नेताओं और राजनीतिक सिपहसलारों को भी अपनी सोच को महिलाओं के प्रति बदलने की जरूरत समाज में महसूस की जा रही है। उनको अपनी पित्तृसत्तात्मक सोच को दरकिनार करना होगा। तभी सामाजिक व्यवस्था में कुछ परिवर्तन की लहर दिख सकती है। महिलाओं के कपड़े और उनके रहन−सहन पर हमला बोलने वाले नेताओं को पहले सोचना चाहिए कि हम क्या बयान दे रहे हैं, फिर अपनी वाणी से शब्दों के तीर भांजने चाहिए। महिलाओं के कपड़े और उनके रहन−सहन को जिम्मेदार ठहराकर वे असामाजिक तत्वों को बढ़ावा देने का काम करते हैं, जो एक सभ्य समाज की दृष्टि से उचित नहीं कहा जा सकता है।

- महेश तिवारी

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