श्रीराम के अयोध्या पहुँचने की खबर पहाड़ों पर देर से मिली, इसलिए मनाते हैं बूढ़ी दीवाली

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पारम्परिक आयोजन से जुड़ी किवदंतियां महाभारत व रामायण युग से निकली हैं। कहते हैं पहाड़ी इलाकों में श्रीराम के अयोध्या लौटने की खबर देर से पहुंची तब तक पूरा देश दीवाली मना चुका था फिर भी पहाड़ी बाशिंदों ने उत्सव मनाया, नाम पड़ गया बूढ़ी दीवाली।

भारत का सबसे प्रसिद्ध त्योहार दीपोत्सव विदेशों के आँगन भी रोशन करता है। शहरों में त्योहारों का स्वरूप अब ज़्यादा व्यवसायिक होता जा रहा है। पर्वों की आत्मीयता कम हो रही है लेकिन हिमाचल प्रदेश में पुरातन संस्कृति व मेले और त्योहारों में आत्मीयता काफी हद तक कायम है। यहाँ हर बरस दीपावली के एक माह बाद बूढ़ी दीवाली मनाई जाती है। देवभूमि कहे जाने वाले हिमाचल के सिरमौर, कुल्लू के बाहरी व भीतरी सिराज क्षेत्र शिमला के ऊपरी इलाके व किन्नौर क्षेत्र में दीपावली से एक माह बाद यह पर्व इस बार सात दिसंबर को आरंभ होगा।

इन क्षेत्रों में इस आयोजन को बूढ़ दवैली, बूढ़ी दिआऊड़ी, दयाउली कहा जाता है। इस पारम्परिक आयोजन से जुड़ी किवदंतियां महाभारत व रामायण युग से निकली हैं। कहते हैं पहाड़ी इलाकों में श्रीराम के अयोध्या लौटने की खबर देर से पहुंची तब तक पूरा देश दीवाली मना चुका था फिर भी पहाड़ी बाशिदों ने उत्सव मनाया नाम पड़ गया बूढ़ी दीवाली। ज़िला कुल्लू का निरमंड पहाड़ी काशी से रूप में प्रसिद्ध है। यह जगह भगवान परशुराम ने बसाई थी, वे अपने शिष्यों के साथ भ्रमण कर रहे थे। एक दैत्य ने सर्पवेश में उन पर आक्रमण किया तो परशुराम ने अपने परसे से उसे खत्म किया। इस पर लोगों द्वारा खुशी मनाना स्वाभाविक था जो आज तक जारी है। इस मौके पर यहां महाभारत युद्ध के प्रतीक रूप युद्ध के दृश्य अभिनीत किए जाते हैं।

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सिरमौर में ऐसे प्रतीकयुद्ध को ठोडा खेल नृत्य कहा जाता है। इस खेल में नृत्य को भी समायोजित कर दिया गया है। मगर बूढ़ी दीवाली पर इसका आयोजन नहीं होता। निरमंड और शिमला में किए जाते रहे आयोजनों में अभिमन्यु के चक्रव्यूह भेदने के दृश्य को खास अंदाज में आयोजित किया जाता है। अखाड़े में लोग रस्सियों का एक घेरा बना उसे थामे रहते हैं। बीच में एक व्यक्ति हाथ में लाठी थामे रहता है। निश्चित समय पर संकेत से रस्सी का घेरा तंग किया जाता है बीच में खड़े अभिमन्यु को जकड़ने की कोशिश की जाती है वह घेरा तोड़ने का प्रयास करता है और सफल होकर दिखाता है। यह क्रिया कई बार दोहराई जाती है। इस चक्रव्यूहिक आयोजन में लोग कई बार जख्मी हो जाते हैं। मगर उल्लास और उमंग के वातावरण में कोई परवाह नहीं करता। इससे पहले अमावस की संध्या को टूटी लकड़ियाँ इक्क्ठी की जाती हैं व मेला स्थल दशनामी में रात्रि की पूवार्ध में पूजन कर उनमें आग लगा दी जाती है। लोग गाते हुए ‘पांडव नृत्य’ करते हैं। मध्य रात्रि को पांडव कौरव संघर्ष अभिनीत किया जाता है, कौरव पांडवों पर आक्रमण करते हैं, पांडव डटकर मुकाबला कर जीतते हैं फिर जश्न होता है। पूरी रात विजयोल्लास में परिवर्तित हो जाती हैं।

सिरमौर में मूल दीवाली के दिनों में ग्रामीण क्षेत्रों में काम की अधिकता होती है। यहां इन दिनों घासनियों (घास उगाने वाली जगहें) से सर्दी के लिए घास काटकर रखना होता है। मक्की की कटाई, अरबी निकाली जा रही होती है। अदरक निकाल कर बाजार पहुंचाना होता है। ऐसे अस्तव्यस्त समय के बीच दीवाली मनाने की फुरसत नहीं मिलती इसलिए बूढ़ी दीवाली मनाई जाती रही है। बूढ़ी दीवाली के पहले दिन मक्की के सूखे टांडों को जलाया जाता है। ढोल करनाल, दुमालू के लोकसंगीत में गूँथी शिरगुल देव की गाथा गाई जाती है। कार्यक्रम देर रात तक चलता है। अमावस्या के मौके पर दीवाली का मुख्य नृत्य ‘बूढ़ा नृत्य’ होता है। हुड़क बजाते हैं। शाम को सूखी लकड़ी एकत्र कर जलाई जाती है। अगले दिन पड़वा को देव पूजा होती है।

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दीवाली के दिन उड़द भिगोकर, पीसकर, नमक मसाले मिलाकर आटे के गोले के बीच भरकर पहले तवे पर रोटी की तरह सेंका जाता है फिर सरसों के तेल में फ्राई कर देसी घी के साथ खाया जाता है। मूड़ा, मक्की भूनकर व धान को नमक के पानी में कई दिन भिगोकर, छिलका अलग कर भूनकर, कूटकर चिवड़ा बनाकर खाया खिलाया जाता है। इन पहाड़ी खानों का अपना विशिष्ट स्वाद होता है। कई स्थानों पर दीवाली को मंगशराली भी कहते हैं। पुरेटुआ का गीत गाना इस अवसर पर जरूरी समझा जाता है। जिसमें वर्णित है कि त्योहार के मौके पर घर पर ही रहना चाहिए। पुरेटुआ ने अपनी वीरता के अभिमान में ऐसा किया और मारा गया। सिरमौर में कई जगह दिन में सिरमौरी लोक नाट्य सांग और स्वांग का आयोजन भी होता है। उत्सव के दौरान हर शाम सांस्कृतिक कार्यक्रमों की धूम मची रहती है। आग जलाकर चारों तरफ बैठकर लोक नृत्य ‘नाटी’ का रंग जमता है। खलियानों में रखे कृषियंत्रों पर दिए जलाए जाते हैं। पारम्परिक लोक गीत गाए जाते हैं।

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सिरमौर के कुछ क्षेत्र में यह उत्सव इस साल नई दिवाली के रूप में मनाया जाने वाला है संभवतः इसकी अवधि भी कम होने वाली है। विकास के युग में ऐसा होना स्वाभाविक है। जीवनयापन के साधन ढूँढ़ने युवाओं को घर से निकलना ही पड़ेगा। अंधाधुंध व गलाकाटू प्रतियोगी दुनिया में प्रतिभा उगाने के लिए अपने रास्ते खुद बनाने पड़ेंगे ऐसे में हमारी पुरानी संस्कृति पर कुछ तो असर होगा ही। यह अच्छी बात है कि पहाड़ों में अभी काफी कुछ बचा हुआ है।

-संतोष उत्सुक

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