भारत कब से कहता रहा पर खालिस्तानी आतंकवाद पर कनाडा की नींद अब खुली

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राकेश सैन । Jan 5 2019 6:21PM

भारत के लिए खुशी की बात है कि आतंकवाद को लेकर कनाडा के भी अंतर्चक्षु खुलने लगे हैं। वहां 2018 के लिए आई पब्लिक रिपोर्ट में देश को खालिस्तानी आतंकवाद से खतरा बताया गया है।

अमेरिका में हुए आतंकी हमले के बाद बताया गया कि वहां कुरान की खरीद बढ़ गई, लोग जानना चाहते थे कि इस्लाम क्या है और आतंकवाद से इसे क्यों जोड़ा जा रहा है। यह निकृष्टतम उदाहरण है इस बात का कि पश्चिमी समाज कितना आत्मकेंद्रित व दुनिया की परेशानी से अनजान है। इस हमले से पहले वहां के लोग व मानवाधिकारवादी संगठन आतंकियों को अपने-अपने देश की सरकारों के खिलाफ लड़ने वाले स्वतंत्रता सेनानी मान रहे थे और जब खुद के घर सेक पहुंचा तो सच्चाई का भान हुआ। कनाडा भी इसी मार्ग पर दिख रहा है, वहां सरकार ने पहली बार खालिस्तानी आतंकवाद को 'चरमपंथ' बताया है। भारत के लिए खुशी की बात है कि आतंकवाद को लेकर कनाडा के भी अंतर्चक्षु खुलने लगे हैं। वहां 2018 के लिए आई पब्लिक रिपोर्ट में देश को खालिस्तानी आतंकवाद से खतरा बताया गया है। यह रिपोर्ट जस्टिन ट्रूडो सरकार में जनसुरक्षा मंत्री राल्फ गुडाले ने पेश की। इसमें इस्लामी आतंकी संगठन इस्लामिक स्टेट और अल कायदा से भी खतरे की आशंका जताई है व खालिस्तानी आतंकवाद की आशंका जताते हुए लिखा गया है- कनाडा में कुछ लोग चरमपंथी सिख विचारधारा का समर्थन करते हैं, लेकिन यह समर्थन 1982 से 1993 की अवधि से कम है, जब खालिस्तान को लेकर चरमपंथ पूरे उफान पर था।

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रिपोर्ट में कहा गया है कि शिया और 'खालिस्तानी चरमपंथियों' के कनाडा में हमले का खतरा कम है लेकिन देश में उनके समर्थकों का होना चिंता का विषय है। ये समर्थक चरमपंथियों को आर्थिक मदद देते हैं। इस रिपोर्ट के अनुसार कनाडा सबका स्वागत करने वाला और शांत देश है, लेकिन हर तरह की चरमपंथी-हिंसा के खिलाफ है। वह इस तरह की गतिविधियों को उखाड़ फेंकने के लिए भी तैयार है। कनाडा में हिंसा के लिए कोई स्थान नहीं है। अब चरमपंथी सोच और उसके समर्थन को खत्म करना कनाडा सरकार की सर्वोच्च प्राथमिकताओं में शामिल हो गया है। पहली बार खालिस्तानी चरमपंथ के खतरे को प्रमुखता देते हुए रिपोर्ट में उसे अलग से स्थान दिया गया है। इसे सुन्नी, दक्षिणपंथी, शिया और कनाडाई घुमंतू चरमपंथियों की तरह खतरनाक बताया गया है। उनके अन्य देशों में जाकर हिंसक गतिविधियों को अंजाम देने की भी आशंका जताई गई है। 

यहां यह उल्लेखनीय है कि अतीत में कनाडा में रहने वाले तमाम खालिस्तानी आतंकियों ने पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी के सहयोग से पंजाब को अशांत रखा है। वर्तमान में हाल ही में हुई कई घटनाएं बताती हैं कि वे एक बार फिर से अपनी गतिविधियों को अंजाम देने के लिए प्रयासरत हैं। वैसे खालिस्तान का भूत ब्रिटिश सरकार की 'बांटो और राज करो' की नीति की संतान है परंतु तत्कालीन राष्ट्रवादी सिख नेतृत्व के चलते अंग्रेज इसे मुस्लिम लीग की भांति भयावह बनाने में सफल नहीं हुए। 1971 में बंगलादेश के रूप में विभाजन की खीझ मिटाने के लिए पाकिस्तान ने इस ओर ध्यान देना शुरू किया और उसे मौका मिला 13 अप्रैल, 1978 में हुए सिख कट्टरपंथियों व निरंकारियों के बीच टकराव के बाद जिसमें कई लोग मारे गए। इस टकराव के बाद पंजाब में जरनैल सिंह भिंडरावाले का प्रभाव बढ़ने लगा जिसे तत्कालीन राजनीतिक नेतृत्व ने अपने हिसाब से सियासी नफा नुक्सान को ध्यान में रख कर इतनी छूट दे दी कि वह बहुत बड़ी समस्या बन गया। उसने अपने साथियों के साथ अमृतसर के श्री हरिमंदिर साहिब में किलेबंदी कर ली जिसे मुक्त करवाने के लिए 1984 में आप्रेशन ब्ल्यू स्टार जैसा कदम उठाना पड़ा।

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1978 से लेकर 1993-94 तक चले आतंकवाद के दौरान लगभग 30000 हजार निर्दोष लोग इसकी भेंट चढ़े जिनमें पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी, पूर्व मुख्यमंत्री बेअंत सिंह जैसी हस्तियां भी शामिल हैं। आतंक के चलते पंजाब विकास की दौड़ में मीलों पिछड़ गया और लाखों लोगों ने पलायन किया। इतना होने के बावजूद कनाडा सहित पश्चिमी देश इसे आतंकवाद मानने से बचता आये। बताया जाता है कि कनाडा में करीब पांच लाख सिख हैं और रक्षा मंत्री हरजीत सज्जन भी सिख ही हैं जिन्हें खालिस्तानी अलगाववाद का समर्थक माना जाता है। सज्जन के पिता वर्ल्ड सिख ऑर्गेनाइजेशन के सदस्य थे। कनाडा में भारतीयों विशेषकर पंजाबियों के प्रभाव का अंदाजा इस बात से भी लगा सकते हैं कि वहां के हाऊस ऑफ कॉमन्स के लिए भारतीय मूल के 19 लोगों को चुना गया है इनमें 17 ट्रूडो की लिबरल पार्टी से हैं। ट्रूडो पिछले साल भारत आए परंतु यहां उनका इतनी गर्मजोशी से स्वागत नहीं हुआ जितना कि अमेरिका, जापान, चीन के राष्ट्राध्यक्षों का होता रहा है।

इसके पीछे मीडिया में उनका खालिस्तान के प्रति झुकाव वाला नजरिया बताया गया। सवाल पैदा होता है कि कनाडा की किसी भी सरकार के लिए सिख इतने महत्वपूर्ण क्यों हैं ? जनगणना के मुताबिक 2016 में कनाडा की कुल आबादी में अल्पसंख्यक 22.3 प्रतिशत थी और अनुमानों के अनुसार 2036 तक कनाडा की कुल आबादी में अल्पसंख्यक 33 प्रतिशत हो जाएंगे। 1897 में महारानी विक्टोरिया ने ब्रिटिश भारतीय सैनिकों की एक टुकड़ी को हीरक जयंती समारोह में शामिल होने के लिए लंदन आमंत्रित किया था। तब घुड़सवार सैनिकों का एक दल भारत की महारानी के साथ ब्रिटिश कोलंबिया के रास्ते में था। इन्हीं सैनिकों में से एक थे रिसालेदार मेजर केसर सिंह। रिसालेदार कनाडा में विस्थापित होने वाले पहले सिख थे। सिंह के साथ कुछ और सैनिकों ने कनाडा में रहने का निर्णय किया। बाकी के सैनिक भारत लौटे तो उन्होंने बताया कि ब्रिटिश सरकार उन्हें बसाना चाहती है। भारत से सिखों के कनाडा जाने का सिलसिला यहीं से शुरू हुआ। कुछ ही सालों में ब्रिटिश कोलंबिया में 5000 भारतीय पहुंच गए, जिनमें 90 प्रतिशत सिख थे। हालांकि सिखों का कनाडा में बसना और बढ़ना इतना आसान नहीं रहा है। इनका आना और नौकरियों में जाना कनाडा के गोरों को रास नहीं आया। भारतीयों को लेकर विरोध शुरू हो गया। यहां तक कि प्रधानमंत्री रहे विलियम मैकेंजी ने मजाक उड़ाते हुए कहा था-हिन्दुओं को इस देश की जलवायु रास नहीं आ रही है। लेकिन तब तक भारतीय वहां बस गए और तमाम मुश्किलों के बावजूद अपनी मेहनत और लगन से कनाडा में ख़ुद को साबित किया। इन्होंने मजबूत सामुदायिक संस्कृति को बनाया व गुरुद्वारे भी बनाए। 1960 के दशक में कनाडा में लिबरल पार्टी की सरकार बनी तो यह सिखों के लिए भी ऐतिहासिक साबित हुआ। सरकार ने प्रवासी नियमों में बदलाव किया और विविधता को स्वीकार करने के लिए दरवाजे खोल दिए। इसका असर यह हुआ कि भारतीय मूल के लोगों की आबादी में तेजी से वृद्धि हुई। वर्तमान में भारतीय-कनाडाई के हाथों में संघीय पार्टी एनडीपी की कमान है और पंजाबी तीसरी सबसे लोकप्रिय भाषा है। वहां 1.3 प्रतिशत लोग पंजाबी समझते और बोलते हैं।

पंजाब से गई पहली एक-दो पीढिय़ां तो किसी न किसी रूप में अपनी मात्रभूमि से लगाव रखती रही परंतु तीसरी व चौथी पीढ़ी जो मूलत: कनाडा निवासी है उसका लगता है कि अपने गांव व देश से इतना जुड़ाव नहीं है और यही पीढ़ी खालिस्तानी अलगाववाद का सर्वाधिक शिकार है। स्वाभाविक है कि वहां के राजनीतिक दलों के लिए इतने बड़े समुदाय को नाराज करना आसान नहीं और यही कारण है कि भारत की तमाम कोशिशों के बावजूद कनाडा ने खालिस्तानी खतरे को आतंकवाद नहीं माना। लेकिन 23 जून, 1985 को हुए विमान बम कांड ने वहां के राजनीतिक नेतृत्व को अपनी नीति पर पुनर्विचार करने को मजबूर किया। आतंकी संगठन बब्बर खालसा द्वारा किए गए इस विस्फोट में 329 लोग मारे गए जिनमें कनाडा के ही अधिकतर नागरिक थे। बताया जा रहा है कि खालिस्तानी वहां स्थानीय सुरक्षा के लिए भी खतरा बनते जा रहे हैं। ट्रूडो पिछले साल भारत आए तो पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह व प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उनके समक्ष अलगाववाद का मुद्दा उठाया। उसी का ही परिणाम है कि कनाडा अलगाववाद व आतंकवाद के अपने रुख में परिवर्तन करता दिख रहा है। इसका स्वागत किया जाना चाहिए कि चलो देर आए दुरुस्त आए।

-राकेश सैन

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